वाम दलों को 2020 में मिली थी सियासी संजीवनी, क्या इस बार बिहार में दिखा पाएंगे 1970 के दशक वाला करिश्मा?
आजादी के बाद लेफ्ट पार्टियों का बिहार में सामाजिक आधार हमेशा से रहा है. 90 के दशक के बाद से लेकर अब तक मध्यमार्गीय पार्टियों जैसे आरजेडी और जनता दल यूनाइटेड ने उन्हें काफी नुकसान पहुंचाया. सूर्य देव सिंह, कृष्ण देव सिंह और भगवान सिंह जैसे नेता लालू यादव के साथ चले गए. सरकार में मंत्री तक बने और लेफ्ट का स्पोर्ट कम होता गया.

देश की आजादी के बाद वामदलों का बिहार में 1977 तक अच्छा सियासी रसूख था. वामपंथी पार्टियां सामूहिक रूप से 1972 से लेकर 1977 तक मुख्य विपक्षी पार्टी की भूमिका में रही, लेकिन 1977 के बाद कर्पूरी ठाकुर की जातिवादी राजनीति और मंडल-कमंडल की वजह से वामपंथ का पतन बिहार में शुरू हो गया. 2015 के चुनाव में पार्टी 3 सीटों तक सिमट गई. साल 2020 में अपने सिद्धांतों से समझौता कर आरजेडी और कांग्रेस के साथ मिलकर चुनाव लड़ने का फैसला लिया. 29 सीटों में से 16 सीटों पर वामपंथी पार्टियों को जीत मिली.
बिहार विधानसभा चुनाव 2025 में दशकों बाद वामपंथी पार्टियां ( सीपीआई, सीपीआईएम और सीपीआई एमएल) ने महागठबंधन के साथ मिलकर चुनाव लड़ने का फैसला लिया और 2000 के बाद पहली बार 16 सीटें जीतने में कामयाब हुईं. इससे से उत्साहित वामपंथी दल इस बार पहले से ज्यादा सीटों पर चुनाव लड़ने की तैयारी में जुटे हैं, लेकिन अहम सवाल यह है कि वामपंथी पार्टियां बिहार की राजनीति में अपना वजूद फिर से बना पाएगी?
वामपंथी दलों का बिहार में सियासी इतिहास
देश की आजादी के बाद से 1977 तक वामपंथी पार्टियां नंबर दो या तीन की पार्टियां हुआ करती थी, लेकिन जातिवादी राजनीति के बाद मंडल-कमंडल के दौरान पार्टी का जमीनी आधार खिसक गया. कांग्रेस और उसके बाद आरजेडी, समता पार्टी ने उसके वोट बैंक को हड़प लिया. 1995 के बिहार विधानसभा चुनाव में नीतीश कुमार ने सीपीआई (एमएल) के साथ मिलकर पहली बार चुनाव लड़ा. समता पार्टी 324 में से 310 सीट पर उम्मीदवार उतारे और उसे 7 सीटों पर जीत मिली. जबकि सीपीआई (एमएल) ने 6 सीटों पर जीत हासिल की थी. उसके बाद 2015 तक कभी वामपंथी पार्टियां डबल डिजिट में नहीं आ पाईं.
साल 2020 तक आते आते बिहार की राजनीति ऐसी बदली की सीपीआई (एमएल) ने विधानसभा चुनाव में राष्ट्रीय जनता दल के साथ मिल कर चुनाव लड़ा. 19 सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े किए और 12 सीटों पर जीत दर्ज की. उनसे साथ सीपीआई और सीपीएम ने भी दो दो सीटों पर जीत हासिल की है. यानी सीपीआई (एमएल) का रिवाइवल और लेफ्ट पार्टियों का भी प्रदर्शन अच्छी ही रही. तीनों पार्टियां 29 सीटों पर लड़ी और 16 सीटों पर जीत हासिल करने में कामयाब हुई.
बेमेल जोड़ी को गले लगाने का मिला लाभ
साल 2020 के विधानसभा चुनाव ने सीपीआई (एमएल) के लिए महागठबंधन के साथ मिलकर चुनाव लड़ने का फैसला संजीवनी के तौर पर काम किया. 2015 तक ये पार्टी ही बिहार के चुनावी मैदान में अकेले के दम पर उतरती थी. लेकिन खोई हुई सियासी जमीन को वापस पाने के लिए उसने विचारधारा के साथ समझौता करते हुए उन्होंने राष्ट्रीय जनता दल जैसी क्षेत्रीय पार्टी के साथ गठबंधन किया और बहुत हद तक अपनी खोई हुई ज़मीन पाने में सफल रहे. जबकि 2015 के विधानसभा चुनाव में इनको मात्र तीन सीटों पर जीत मिली थी.
1990 के बाद आरजेडी और जेडीयू ने पहुंचाया नुकसान
दरअसल, लेफ्ट पार्टियों का बिहार में सामाजिक आधार हमेशा से रहा है. 90 के दशक के बाद से लेकर अब तक मध्यमार्गीय पार्टियों जैसे आरजेडी और जदयू ने उन्हें काफी नुकसान पहुंचाया. सूर्य देव सिंह, कृष्ण देव सिंह, भगवान सिंह जैसे नेता लालू यादव के साथ चले गए. सरकार में मंत्री तक बने और लेफ्ट का स्पोर्ट कम होता गया. हालांकि, मध्य बिहार और दक्षिण बिहार के इलाकों में लेफ्ट का जनाधार बना रहा.
1995 के बाद लेफ्ट पार्टियों ने पहली बार 2020 में गठबंधन में चुनाव लड़ी जो सीपीआई (एमएल) का अब तक का सबसे बेहतरीन प्रदर्शन माना जा रहा है. साल 2000 के बाद से अब तक अकेले सीपीआई(एमएल) दहाई का आंकड़ा पार नहीं कर पाई थी. 2000 में 6 और 2005 के अक्टूबर वाले चुनाव में 5 सीटें जीती थी. 2010 में वाम दल वाले खाता भी नहीं खोल पाए. 2015 में 3 सीटें इनके खाते में आई थी.