प्रशांत किशोर की पार्टी जनसुराज को ओवैसी और कुशवाहा की पार्टी से मिले ज्यादा वोट, पर सीट एक भी नहीं
बिहार विधानसभा चुनाव में प्रशांत किशोर की जनसुराज पार्टी को एआईएमआईएम और रालोमो से ज्यादा वोट मिले, लेकिन सीट एक भी नहीं. चुनाव आयोग द्वारा जारी इंडेक्स कार्ड ने बताया कि जनसुराज ने 3.34% यानी 16.77 लाख वोट हासिल किए, जबकि ओवैसी की AIMIM और कुशवाहा की रालोमो ने कम वोट प्राप्त कर भी सीटें जीत लीं. जानिए पूरा चुनावी गणित, कौन सा दल कितना वोट लेकर कहां खड़ा है और क्यों पीके की पार्टी बड़े वोट शेयर के बावजूद सीटें नहीं जीत सकी.;
बिहार विधानसभा चुनाव के नतीजों ने एक बार फिर साबित कर दिया कि राजनीति में वोट पाना और सीट जीतना दो बिल्कुल अलग खेल हैं. जनसुराज के संस्थापक प्रशांत किशोर (PK) की पार्टी को जितने वोट मिले, वह न सिर्फ चर्चा का विषय बने बल्कि कई स्थापित दलों से अधिक थे. इसके बावजूद उन्हें एक भी सीट नहीं मिली. यह स्थिति चुनावी गणित की उस खाई को उजागर करती है, जहां बिखरा हुआ समर्थन सीटों में बदल नहीं पाता.
दूसरी ओर, असदुद्दीन ओवैसी की AIMIM और उपेंद्र कुशवाहा की RLSP (या रालोमो) जैसी पार्टियों को पीके की तुलना में कम वोट हासिल हुए, लेकिन उनकी उपस्थिति ठोस राजनीतिक जेबों में थी. ऐसे में इंडेक्स कार्ड रिपोर्ट इस बात की गवाही देती है कि व्यापक वोट प्रतिशत होना जरूरी नहीं कि जमीन पर सीटों में तब्दील हो जाए.
जनसुराज को 3.34% वोट मिला, जीत नहीं
चुनाव आयोग की ताज़ा रिपोर्ट के मुताबिक, प्रशांत किशोर की पार्टी जनसुराज को कुल 3.34% यानी 16,77,583 वोट मिले. यह आंकड़ा कई क्षेत्रीय दलों से अधिक है, लेकिन वोट विभिन्न इलाकों में बिखरे होने के कारण एक भी सीट उनकी झोली में नहीं गई. यह स्थिति बताती है कि बिना मजबूत कोर वोट बैंक और क्षेत्रीय पकड़ के राज्यस्तरीय चुनाव में सीट पाना बेहद कठिन चुनौती है.
मिले ओवैसी और कुशवाहा से ज्यादा वोट
AIMIM को बिहार में 1.85% (9,30,504 वोट) और RLSP/रालोमो को 1.06% (5,33,313 वोट) मिले. ये दोनों आंकड़े जनसुराज के कुल वोटों से काफी कम हैं. इसके बावजूद इन दलों को सीमित इलाकों में केंद्रित समर्थन मिला, जिससे उन्हें कुछ सीटों पर प्रभाव दिखाने का मौका मिला. वहीं पीके की पार्टी का समर्थन प्रदेशभर में फैला रहा और यही बिखराव उन्हें सीट नहीं दिला सका.
राजद और भाजपा आगे
इंडेक्स कार्ड में राजद, भाजपा और जदयू ने एक बार फिर शीर्ष तीन पार्टियों के रूप में अपना दबदबा कायम रखा.
- राजद: 23% वोट (1,15,46,055)
- भाजपा: 20.08% वोट (1,00,81,143)
- जदयू: 19.25% वोट (96,67,118)
ये तीनों दल बड़े पैमाने पर न सिर्फ वोट जुटाने में सफल रहे बल्कि सीटों में इसे बदलकर अपनी राजनीतिक मजबूती भी साबित की.
कांग्रेस, लोजपा और माले- मध्यम वर्ग की लड़ाई
कांग्रेस ने 8.71% वोट (43,74,579) प्राप्त किए, जबकि लोजपा (रा) ने 4.97% (24,97,358) वोट हासिल किए. भाकपा-माले भले ही 2.84% वोट के साथ सीमित दायरे में दिखती है, लेकिन उनकी सीटों पर मौजूदगी बताती है कि वोट कम होने के बावजूद संगठनात्मक ताकत मायने रखती है.
निर्दलीयों और अन्य का प्रभाव
निर्दलीय उम्मीदवारों ने भी इस बार उल्लेखनीय प्रदर्शन किया और उन्हें 25,16,297 वोट मिले. वहीं NOTA को 1.81% यानी 9,10,730 वोट मिले. यह संख्या बताती है कि राज्य में एक बड़ा वर्ग किसी भी उम्मीदवार से संतुष्ट नहीं था.
अन्य दलों का 3.90% वोट
"अन्य" श्रेणी में आने वाले छोटे राजनीतिक समूहों को कुल 3.90% यानी 19,57,368 वोट मिले. इस समूह की भागीदारी दिखाती है कि बिहार की राजनीति कितनी बहुविध और बिखरी हुई है. जहां हर छोटे सामाजिक समूह की अपनी राजनीतिक आवाज और नुमाइंदगी है.
इंडेक्स कार्ड में कुछ आंकड़े गायब
चुनाव आयोग की रिपोर्ट में कई दलों के वोटों का पूरा ब्योरा उपलब्ध नहीं है, जैसे...
- आईआईपी, माकपा की सीट तो बताई गई, पर वोट नहीं
- भाकपा के 9 सीटों पर मिले वोटों की जानकारी भी गायब
- माले का प्रतिशत दिया गया, लेकिन कुल वोट नहीं
इन अधूरे आंकड़ों को लेकर आयोग से विस्तृत जानकारी की मांग उठ रही है.
पीके की चुनौती अभी बाकी है
इन नतीजों ने एक बड़ा संदेश दिया है. राजनीति में सिर्फ मुद्दों और जनसंपर्क से जीत नहीं मिलती, बल्कि ज़मीनी संगठन, चुनावी समीकरण, जातीय सोशल बेस और बूथ मैनेजमेंट जैसे फ़ैक्टर भी निर्णायक भूमिका निभाते हैं. पीके की पार्टी को जनता का समर्थन जरूर मिला, लेकिन सीटों में तब्दील न हो पाने से यह साफ है कि बिहार की जमीनी राजनीति में अभी उन्हें लंबी दूरी तय करनी है.