बिहार की सियासी डिक्‍शनरी में जुड़ रहे कैसे-कैसे शब्‍द - लफुआ, छपरी और टपोरी की भी हुई एंट्री

बिहार चुनाव 2025 में शब्दों का स्तर अभूतपूर्व रूप से गिरा है. 'छपरी', 'लफुआ', 'नमाजवादी' जैसे शब्द अब राजनीतिक बहस के हथियार बन गए हैं. तेजस्वी यादव जहां युवाओं की ज़ुबान बोल रहे हैं, वहीं बीजेपी सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का आरोप झेल रही है. इस 'वाकयुद्ध' ने लोकतांत्रिक विमर्श को गहराई से प्रभावित किया है.;

Curated By :  नवनीत कुमार
Updated On : 24 July 2025 5:00 PM IST

बिहार चुनाव 2025 से पहले राजनीतिक दलों ने मुद्दों की जगह 'शब्दों' को हथियार बना लिया है. जहां एक ओर बीजेपी 'नमाजवादी' कहकर समाजवादी राजनीति पर हमला कर रही है, वहीं आरजेडी ने पलटवार में 'छपरी', 'टपोरी' और 'लफुआ' जैसे लोकल मुहावरों का सहारा लिया है. यह नई शब्दावली न सिर्फ ध्रुवीकरण की कोशिश है, बल्कि राजनीतिक विमर्श को अभूतपूर्व रूप से नीचे खींचने का संकेत भी है.

तेजस्वी यादव अपने भाषणों में इन शब्दों का इस्तेमाल करके खुद को आम जनता और युवाओं से जोड़ने की कोशिश कर रहे हैं. 'छपरी', 'टपोरी' और 'लफुआ' जैसे शब्द बिहार की आम बोलचाल में इस्तेमाल होते हैं. इसका लक्ष्य है- बीजेपी को एक "बाहरी" या "नासमझ" ताकत दिखाना और खुद को जमीनी नेता के तौर पर स्थापित करना. लेकिन इस भाषा की आक्रामकता, विरोधियों को जवाब देने से ज्यादा, सियासी गरिमा को चोट पहुंचा रही है.

'छपरी', 'टपोरी' और 'लफुआ' का क्या है मतलब

'छपरी', 'टपोरी' और 'लफुआ' तीनों शब्द आम बोलचाल में किसी व्यक्ति को नीचा दिखाने, मज़ाक उड़ाने या उसकी सामाजिक गंभीरता पर सवाल खड़े करने के लिए उपयोग किए जाते हैं. 'छपरी' शब्द अक्सर सोशल मीडिया पर उन युवाओं के लिए इस्तेमाल होता है जो खुद को अत्यधिक "कूल" या "स्टाइलिश" दिखाने की कोशिश करते हैं, लेकिन उनका फैशन, भाषा या बर्ताव बनावटी और बचकाना लगता है.

'टपोरी', जो मुंबई की लोकभाषा से निकला है, मूलतः 'आवारा', 'बदमाश' या 'शरारती' युवक के लिए कहा जाता है, लेकिन कभी-कभी यह एक खास तरह की स्ट्रीट-स्मार्ट स्टाइल और रवैये को भी दर्शाता है- जैसे फिल्मों में 'मुंबईया माचो' छवि.

वहीं, 'लफुआ' शब्द बिहार की ज़ुबान में खास जगह रखता है, जिसका तात्पर्य किसी ऐसे व्यक्ति से है जो आवारा, कामचोर या गैर-ज़िम्मेदार हो. बुजुर्गों और आम लोगों की जुबान में 'लफुआ' बेरोजगार या उद्दंड युवकों के लिए व्यंग्यात्मक रूप से प्रयोग होता है. इन तीनों शब्दों में एक कॉमन भाव है- समाज में गंभीरता, परिपक्वता या ज़िम्मेदारी की कमी को दर्शाना, लेकिन इनके पीछे क्षेत्रीय, सांस्कृतिक और पीढ़ीगत नजरिए की भी भूमिका है.

बीजेपी का मुस्लिम वोट बैंक पर हमला?

बीजेपी ने तेजस्वी यादव और उनके गठबंधन को ‘नमाजवादी’ कहकर मुस्लिम तुष्टिकरण का आरोप लगाया है. इसके पीछे साफ रणनीति है- बहुसंख्यक मतदाताओं को एकजुट करना और अल्पसंख्यक वोटों पर आरजेडी की पकड़ को ढीला करना. 17% मुस्लिम आबादी वाले बिहार में यह एक बड़ा दांव है, लेकिन यह सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की साजिश जैसा भी देखा जा सकता है.

विधानसभा में गिर रहा संवाद का स्तर

हाल ही में विधानसभा सत्र में सीएम नीतीश कुमार ने तेजस्वी को "बच्चा" कहकर संबोधित किया, जिस पर विपक्षी विधायक भड़क उठे. राजद विधायक ने खुलेआम सदन को "किसी के बाप का नहीं" कहकर एक और विवाद छेड़ दिया. यह घटना बताती है कि नेताओं के बीच संवाद अब विचारों पर नहीं, बल्कि व्यक्तिगत कटाक्षों और तानों पर टिका हुआ है.

जब सदन बन गया अखाड़ा

सदन में उपमुख्यमंत्री विजय सिन्हा का यह कहना कि “इन्होंने हजारों लोगों का कत्लेआम किया है, ये गुंडे हैं” - लोकतांत्रिक मर्यादाओं को तार-तार कर गया. जवाब में राजद विधायकों की नारेबाज़ी और हंगामे ने विधानसभा की गरिमा को और गिराया. सत्र बार-बार बाधित हुआ, लेकिन आरोप-प्रत्यारोप का दौर थमा नहीं - यह बताता है कि अब बहस विकास की नहीं, दुश्मनी की हो रही है.

दोनों कर रहे हैं वोट बैंक की राजनीति

आरजेडी जहां अपनी भाषा से युवा और ग्रामीण मतदाताओं को भावनात्मक रूप से जोड़ना चाहती है, वहीं बीजेपी सांप्रदायिक पहचान के जरिए बहुसंख्यक वोटर्स को लामबंद करना चाहती है. ये शब्द राजनीति के दो चेहरे हैं - एक जनता की ज़ुबान बोलने की कोशिश, दूसरा धार्मिक अस्मिता को उभारने की चाल. लेकिन दोनों ही विकास, बेरोज़गारी, महंगाई जैसे असली मुद्दों से ध्यान भटकाते हैं.

कब-कब इन शब्दों का हुआ इस्तेमाल

  • 1 जुलाई 2025- तेजस्वी यादव ने कहा, “बीजेपी वाले मुझे नमाजवादी और मौलाना कहते हैं, लेकिन ये छपरी, टपोरी और लफुआ लोग बिहार की जनता को बेवकूफ नहीं बना सकते.”
  • 1 जुलाई 2025- बीजेपी प्रवक्ता गौरव भाटिया ने पलटवार किया, “जो खुद को समाजवादी कहते हैं, उनका असली चेहरा नमाजवादी है. इन्हें शरिया और हलाला चाहिए, संविधान से कोई मतलब नहीं.”
  • 1 जुलाई 2025- बीजेपी प्रेस कॉन्फ्रेंस में बयान, “नमाजवादियों का असली चेहरा बेनकाब हो चुका है। ये संविधान विरोधी हैं जो समाजवाद की आड़ में चल रहे हैं.”
  • 30 जून 2025- आरजेडी नेता का आरोप, “बीजेपी नमाजवाद जैसे शब्द गढ़कर समाजवाद को बदनाम करना चाहती है और गरीबों-पिछड़ों को बांट रही है.”
  • 29 जून 2025- तेजस्वी यादव का तीखा बयान, “बीजेपी के लफुआ और छपरी नेताओं को जनता वोट से जवाब देगी। हम समाजवाद के रास्ते पर हैं.”
  • 28 जून 2025- जेडीयू नेता का तंज़, “आरजेडी वाले मौलाना और मुल्ला की बात छोड़ें, पहले विकास पर बात करें."
  • 27 जून 2025- कांग्रेस प्रवक्ता का बयान, “बीजेपी का नमाजवाद नैरेटिव बिहार में सांप्रदायिकता फैलाने की साजिश है। हम समाजवाद की रक्षा करेंगे.”
  • 26 जून 2025- बीजेपी विधायक का सीधा हमला, “आरजेडी के मौलाना और नमाजवादी बिहार को पीछे ले जाना चाहते हैं, हम विकास पर बात कर रहे हैं.”
  • 25 जून 2025- तेज प्रताप यादव बोले, “बीजेपी के टपोरी और लफुआ लोग समाजवाद को नहीं समझ सकते. हम लालू जी के रास्ते पर हैं.”
  • 24 जून 2025- आरजेडी के वरिष्ठ नेता का बयान, “बीजेपी मुल्ला और मौलाना कहकर मुस्लिम वोटरों को डराना चाहती है, लेकिन बिहार की जनता समझदार है.”
  • 23 जून 2025- बीजेपी प्रवक्ता सुधांशु त्रिवेदी बोले, “तेजस्वी यादव संविधान को कूड़ेदान में फेंकने की बात कहकर संसद और लोकतंत्र का अपमान कर रहे हैं.”

इस तरह के शब्द इस्तेमाल कर नेता अपने-अपने गढ़ मजबूत करने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन इससे लोकतांत्रिक विमर्श का स्तर रसातल में चला गया है.

इन शब्दों प्रभावित होंगे वोटर्स?

243 सीटों वाले बिहार विधानसभा चुनाव में 8 करोड़ मतदाता निर्णायक होंगे. लेकिन सवाल है – क्या मतदाता इन शब्दों की राजनीति से प्रभावित होंगे या असली मुद्दों की मांग करेंगे? जिस तरह से 'राजनीतिक शब्दावली' का पतन हो रहा है, वह लोकतंत्र की सेहत के लिए खतरनाक है. अगर यह सिलसिला नहीं रुका, तो अगला चुनाव 'विकास' नहीं, 'वाकयुद्ध' से तय होगा.

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