हुमायूं कबीर ही नहीं, ये दो मुस्लिम नेता भी बढ़ा रहे ममता की टेंशन, क्या TMC के किले में लगा पाएंगे सेंध?

पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव 2026 से पहले ममता बनर्जी की सबसे मजबूत ढाल यानी मुस्लिम वोट बैंक में दरार के संकेत मिलने लगे हैं. सिर्फ हुमायूं कबीर ही नहीं, इस बार असदुद्दीन ओवैसी और पीरजादा अब्बास सिद्दीकी जैसे नेता भी उनके खिलाफ मोर्चा खोल सकते हैं. ऐसे में, क्या टीएमसी के किले में ये मुस्लिम नेता सेंध लगा पाएंगे? अगर, हां तो किसे होगा फायदा?;

( Image Source:  ANI )
Curated By :  धीरेंद्र कुमार मिश्रा
Updated On : 26 Dec 2025 2:11 PM IST

पश्चिम बंगाल की राजनीति में ममता बनर्जी अजेय सियासी चेहरा हैं. कम्युनिस्ट नेता ज्योति बसु के बाद उनसे बड़ा नेता अभी तक कोई नहीं हुआ. ममता बनर्जी की सबसे बड़ी ताकत हमेशा से मुस्लिम वोटों का उनके पक्ष में समर्थन रहा है, लेकिन विधानसभा चुनाव 2026 में तीन मुस्लिम नेता उनके सियासी किले में सेंध लगाने में अभी से जुट गए हैं. इनमें हुमायूं कबीर तो उनके पार्टी से विधायक भी हैं. यानी टीएमसी के लिए इस बार का चुनाव टफ साबित हो सकता है. अगर वामपंथी पार्टियों और कांग्रेस का परदे के पीछे से सहयोग 2021 की तरह नहीं मिला.

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दरअसल, टीएमसी विधायक हुमायूं कबीर की नाराजगी खुलकर सामने आ चुकी है. ममता बनर्जी उन्हें पार्टी से सस्पेंड भी कर चुकी हैं. हुमायूं कबीर ने मुर्शिदाबाद के अपने विधानसभा क्षेत्र में बाबरी मस्जिद बनाने का एलान कर रखा है. मस्जिद निर्माण के लिए वह 6 दिसंबर 2025 को शिलान्यास भी रख चुके हैं. अब तो उन्होंने अपनी अलग पार्टी भी बना ली है.

 वहीं AIMIM प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी की बढ़ती सक्रियता और इंडियन सेक्युलर फ्रंट के पीरजादा अब्बास सिद्दीकी की नई राजनीतिक गोलबंदी ने मिलकर ममता बनर्जी को ऐसी चुनौती देने की योजना बना रहे हैं, जो सीधे उनके कोर वोट यानी मुस्लिम वोट बैंक को प्रभावित कर सकती है.

एंटी-इनकम्बेंसी लहर

पश्चिम बंगाल में टीएमसी प्रमुख ममता बनर्जी 15 साल से सत्ता में हैं. उनके स्थानीय नेताओं पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे हैं. टीएमसी के कार्यकर्ताओं में पंचायत से लेकर नगर निकाय तक असंतोष देखने को मिल रहा है. मुस्लिम बहुल इलाकों में भी अब स्थानीय नाराजगी खुलकर सामने आने लगी हैं.

 हुमायूं कबीर तो इतना नाराज है कि वो ममता सरकार की नीतियों पर खुली नाराजगी जता चुके हैं. मुस्लिम इलाकों में विकास और प्रतिनिधित्व पर सवाल उठा रहे हैं. उनका दावा है कि पार्टी हाईकमान मुस्लिम नेताओं को सिर्फ वोट बैंक समझता है. यह असंतोष भीतर से सेंध लगाने वाला साबित हो सकता है.

ओवैसी फैक्टर कितना कारगर?

AIMIM प्रमुख ओवैसी बिहार चुनाव की तरह पश्चिम बंगाल में भी अभी से सक्रिय हो गए है. उन्होंने मुस्लिम पहचान की राजनीति का मुद्दा उछाल दिया है. उनका असर मुस्लिम युवाओं और शिक्षित मुस्लिम वर्ग पर दिखने लगा है. बिहार की तरह बंगला में ओवैसी की पार्टी का सीमित संख्या में भी सीटें जीतना भी टीएमसी के लिए नुकसानदेह साबित हो सकता है.

अब्बास सिद्दीकी असर

पीरजादा अब्बास सिद्दीकी का फुरफुरा शरीफ क्षेत्र में मजबूत असर है. वह ग्रामीण मुस्लिम समाज में सीधी पैठ रखते हैं. उन्होंने ISF के जरिए अलग राजनीतिक पहचान बनाई है. 2021 में सीमित सफलता के बावजूद उनकी मौजूदगी ने यह दिखा दिया कि मुस्लिम वोट पूरी तरह टीएमसी का स्थायी वोट नहीं है.

ऐसे में अगर हुमायूं का असंतोष, ओवैसी का वैचारिक विकल्प और अब्बास का धार्मिक–सामाजिक प्रभाव कारगर साबित हुआ तो टीएमसी के लिए मुश्किल भरा साबित होगा. तीनों टीएमसी के मुस्लिम समर्थन को टुकड़ों में बांट सकते हैं, जिसका सीधा फायदा बीजेपी या वाम-कांग्रेस गठजोड़ को मिल सकता है.

असल में ममता बनर्जी के लिए असली खतरा बीजेपी से कम और अपने पारंपरिक मुस्लिम वोट बैंक में उभरते विकल्पों से ज्यादा है. अगर हुमायूं कबीर की नाराजगी खुली बगावत में बदली, ओवैसी ने सीमित लेकिन रणनीतिक दखल दिया

और अब्बास सिद्दीकी ने जमीनी पकड़ मजबूत की तो टीएमसी का अब तक अजेय दिखने वाला किले को बड़ी चुनौती का सामना करना पड़ सकता है. बता दें कि पश्चिम बंगाल की लगभग 30% मुस्लिम आबादी है.

बीजेपी ने भी कसी कमर

दूसरी तरफ तो भाजपा की इस बार तैयारी टीएमसी को सत्ता से बेदखल करने की है. वैसे भी पश्चिम बंगाल में भाजपा और तृणमूल कांग्रेस के बीच लगभग सीधा मुकाबला है. कांग्रेस और तीन दशक तक राज्य में सत्ता पर काबिज रही माकपा और उसके सहयोगी दल हाशिए पर जा चुके हैं. भाजपा ने विपरीत परिस्थितियों के बावजूद भी बंगाल में अपना विस्तार किया है. उसके तीन से 77 विधायक हो चुके हैं. इस बार भाजपा का केंद्रीय नेतृत्व पहले से ज्यादा आक्रामक है. साल 2021 में भाजपा अपने बूथ प्रबंधन में कमजोर रही थी, इसलिए पार्टी ने इस बार पूरा जोर बूथ प्रबंधन पर लगा रखा है.

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