बुर्का पहनी बी अम्मा ने जलाई क्रांति की मशाल, हजारों महिलाओं को जंग-ए-आज़ादी में उतारा; पढ़ें अबादी बानो बेगम की कहानी
अबादी बानो बेगम, जिन्हें देश बी अम्मा के नाम से जानता है, पहली मुस्लिम महिला थीं जो बुर्का पहनकर आज़ादी की रैलियों को संबोधित करती थीं. खिलाफत आंदोलन से लेकर स्वदेशी अभियान तक, उन्होंने महिलाओं को घर से बाहर निकालकर क्रांति का हिस्सा बनाया. उनके जोशीले भाषण और साहस ने स्वतंत्रता संग्राम को नई दिशा दी. आप पढ़ रहे हैं 'आजादी के मुस्लिम परवाने' सीरीज की नवमीं और आखिरी पेशकश, जिसमें मुझे यानी अबादी बानो बेगम को जानने का मौका मिलेगा.;
1917 की सुबह थी. रामपुर की गलियों में एक अफवाह फैल चुकी थी- अली ब्रदर्स को अंग्रेजों ने गिरफ्तार कर लिया है. मोहम्मद अली जौहर और शौकत अली, जो खिलाफत और असहयोग आंदोलन की जान थे, अब जेल में थे. लोग सन्न थे, मानो आंदोलन की धड़कन थम गई हो. तभी एक बुर्का पहने, उम्रदराज़ महिला ने भीड़ के बीच कदम रखा. चेहरे पर झुर्रियां थीं, लेकिन आंखों में बिजली की सी चमक. उन्होंने लाठी के सहारे मंच पर चढ़ते ही कहा, "अगर मेरे बेटे जेल में हैं तो क्या हुआ? क्या तुम सबके दिलों में भी हिम्मत कैद हो गई है?" यह आवाज़ थी अबादी बानो बेगम - बी अम्मा की, जिसने भीड़ में सोया जोश फिर से जगा दिया.
उस दिन बी अम्मा का भाषण सिर्फ शब्द नहीं था, वह एक चिंगारी थी जिसने निराशा की राख में दबा क्रांति का अंगारा भड़का दिया. लोगों ने पहली बार देखा कि एक बुर्का-पोश बुज़ुर्ग महिला भी, हजारों पुरुषों के सामने खड़े होकर आंदोलन का बिगुल फूंक सकती है. इस घटना ने साफ कर दिया कि आज़ादी की लड़ाई अब कुछ नेताओं या जवानों की नहीं, बल्कि हर मां, बहन और बेटी की जिम्मेदारी है. यहीं से बी अम्मा का नाम पूरे देश में गूंजने लगा, और उनका बुर्का आज़ादी की मशाल बन गया. आइए पढ़ते हैं अबादी बानो बेगम की कहानी उनकी ही जुबानी...
मैं अबादी बानो बेगम हूं, लेकिन लोग मुझे प्यार से बी अम्मा कहते हैं. मेरा जीवन हमेशा साधारण नहीं रहा, लेकिन जो भी पल मैंने जिया, वह मातृत्व, देशभक्ति और क्रांति का संगम था. मुझे याद है 1917 की वह सुबह, जब खबर आई कि मेरे बेटे मोहम्मद अली जौहर और शौकत अली को अंग्रेजों ने गिरफ्तार कर लिया है. उनका जेल जाना हमारे पूरे परिवार के लिए झटका था, लेकिन मैंने अपने दुःख को क़ाबू में रखा. मैं जानती थी कि अब़ादी की लड़ाई में सिर्फ उनके साहस की नहीं, बल्कि मेरी भी जरूरत है. उस दिन मैंने बुर्का पहनकर मंच पर कदम रखा और पूरी ताकत से बोला, “अगर मेरे बेटे जेल में हैं तो क्या हुआ? क्या तुम्हारे दिलों में भी हिम्मत कैद हो गई है?” मेरी आवाज़ ने भीड़ में सोए जोश को फिर से जगा दिया.
वह दिन किसी जादू से कम नहीं था. लोग चुप थे, सिर्फ मेरी बात सुन रहे थे. बुर्का मेरी पहचान था, लेकिन मंच पर जब मैं बोलती थी, वह सिर्फ कपड़ा नहीं रह जाता था; वह हिम्मत और साहस का प्रतीक बन जाता था. लोग मुझे देखकर कहते थे कि बुर्का पहनने वाली बूढ़ी महिला इतनी ताकत कैसे रख सकती है. मैं उन्हें जवाब देती, “साहस उम्र में नहीं, दिल में होता है.” उस दिन से मेरा नाम पूरे रामपुर और आसपास के जिलों में गूंजने लगा.
मेरी लड़ाई सिर्फ राजनीतिक नहीं थी, बल्कि सामाजिक भी थी. गांधी जी ने मुझे समझाया कि महिलाओं को आंदोलन में शामिल करना बेहद ज़रूरी है. मैंने घर-घर जाकर महिलाओं से कहा कि वे घर की चारदीवारी से बाहर निकलें, सभा में आएं और ब्रिटिश शासन के खिलाफ आवाज़ उठाएं. मैंने उन्हें यह भी समझाया कि विदेशी कपड़े पहनना, विदेशी सामान खरीदना यह सब गुलामी को बढ़ावा देता है. मुझे याद है कि मैंने कई बार गांव के चौपालों में बैठकर महिलाओं को समझाया कि स्वदेशी अपनाना सिर्फ वस्त्र और सामान का नहीं, बल्कि आत्मसम्मान और स्वतंत्रता का कदम है.
कई बार लोग मेरे मंच पर आने की आलोचना करते थे. कहते थे, “उम्रदराज़ महिला, बुर्का पहने, यहां क्या कर रही है?” लेकिन मुझे फर्क नहीं पड़ता था. मैं जानती थी कि मेरी आवाज़ और हिम्मत ही उन लोगों के दिलों में क्रांति की चिंगारी जगा सकती है. मैं कई बार बताती, “अगर मेरे बेटे और तुम्हारे बेटे जेल में हैं, तो इसका मतलब है कि हम सब को उठकर खड़ा होना है. हमें डरना नहीं है.” मेरी यही हिम्मत कई महिलाओं और युवाओं को आंदोलन में शामिल होने के लिए प्रेरित करती.
मेरे दोनों बेटे मोहम्मद अली जौहर और शौकत अली 'अली ब्रदर्स' के नाम से जाने गए. उन्होंने जेल की कठोर यातनाएं झेलीं, और कई बार मुझे खत लिखकर अपनी मुश्किलें बताईं. मुझे याद है, मोहम्मद अली ने 1921 में लिखा था, "मां, आपकी हिम्मत हमें रोज़ प्रेरित करती है. आपकी आवाज़ हमारे लिए जेल की सलाखों से बाहर निकलने की राह है.” उस पत्र ने मुझे और अधिक ताकत दी. मैं जानती थी कि मेरी जिम्मेदारी सिर्फ उन्हें हौसला देने तक सीमित नहीं थी; मुझे पूरी जनता को जागृत करना था.
मैंने कई बार लड़कियों और महिलाओं के लिए खुली सभाएं आयोजित कीं. बेगम हसरत मोहानी, सरला देवी और सरोजिनी नायडू जैसी महिला नेताओं ने भी मेरे प्रयासों में साथ दिया. हम सब मिलकर महिलाओं को बतातीं कि आज़ादी सिर्फ पुरुषों का अधिकार नहीं है. महिलाओं की भागीदारी इस आंदोलन को मजबूती दे सकती है. मुझे याद है, 1920 के दशक में एक सभा में एक लड़की ने मुझसे कहा, “बी अम्मा, आपकी बातें सुनकर मुझे लगता है कि मैं भी देश के लिए कुछ कर सकती हूं.” यही मेरे जीवन का सबसे बड़ा पुरस्कार था.
एक बार 1922 में अंग्रेज़ अधिकारी ने मुझे मंच से हटाने की कोशिश की. भीड़ में चीख-पुकार हुई, लेकिन मैंने उन्हें शांत रहने के लिए कहा और फिर अपने भाषण की ओर लौट आई. मैंने कहा, “हमारे डर से उनका शासन नहीं रुकेगा. अगर हम डरेंगे, तो आज़ादी और दूर हो जाएगी.” उस दिन भीड़ ने मेरे शब्दों को जीते हुए महसूस किया और मेरी हिम्मत की सराहना की.
मेरा घर हमेशा स्वतंत्रता संग्राम का केंद्र रहा. हमारे घर पर नेताओं और आंदोलनकारियों का आना-जाना लगा रहता था. कभी-कभी रातों को मेरे बेटे जेल से छुट्टी लेकर आते और मुझे बताते कि जेल में क्या हाल था. मैं उन्हें अपने भाषणों और बैठकों के माध्यम से जनता तक उनके अनुभव पहुंचाने के लिए प्रेरित करती. कभी-कभी मैं खुद मंच पर उनके जेल के अनुभवों को पढ़ती और जनता को बताती कि उनकी मेहनत व्यर्थ नहीं जाएगी.
मुझे याद है 1920-25 के बीच, जब खिलाफत आंदोलन अपने चरम पर था. मैं गांव-गांव जाकर लोगों से अपील करती कि वे अंग्रेजों के खिलाफ एकजुट हों. मेरा उद्देश्य सिर्फ विरोध करना नहीं था, बल्कि हिंदू-मुस्लिम एकता को भी बढ़ावा देना था. मैंने अपने भाषणों में बार-बार कहा, “हमारा धर्म हमें एकजुट करता है और हमारी आज़ादी हमारा अधिकार है.” इन शब्दों से कई समुदायों की महिलाओं और पुरुषों में आंदोलन के लिए उत्साह जागा.
मैंने बुर्के के पीछे छिपकर अपनी पहचान बनाई, लेकिन यह पहचान सिर्फ मेरे लिए नहीं थी. यह उन सभी महिलाओं के लिए थी, जो अपनी सामाजिक सीमाओं और डर के कारण चुप रहती थीं. मैंने उन्हें दिखाया कि उम्र, लिंग और परंपरा कभी भी हिम्मत और देशभक्ति के मार्ग में बाधा नहीं बन सकती. मुझे गर्व है कि मैंने बुर्के के पीछे छिपी महिला से, स्वतंत्रता संग्राम की मिसाल बनने तक का सफर तय किया.
1930 के दशक में, जब असहयोग और स्वदेशी आंदोलनों का असर धीरे-धीरे देशभर में दिखने लगा, मेरी उम्र और सेहत कमजोर पड़ने लगी. लेकिन मेरे मन का जोश कभी कम नहीं हुआ. मैंने अपने भाषणों और बैठकों में यह संदेश दिया कि हम तब तक नहीं रुकेंगे जब तक देश पूरी तरह आज़ाद नहीं होता. मैं जानती थी कि मेरा काम सिर्फ मेरे जीवन तक सीमित नहीं है; यह आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा बन जाएगा.
जीवन के आखिरी दिनों तक मेरी सोच वही थी. देश की आज़ादी और महिलाओं की भागीदारी. मैंने कभी खुद को केवल मां या पत्नी तक सीमित नहीं रखा. मैं हमेशा यह मानती थी कि मेरी आवाज़ और मेरी हिम्मत किसी भी हथियार से कम नहीं. मेरी मेहनत, संघर्ष और भाषणों की गूंज आज भी उन लोगों में जीवित है, जिन्हें मैंने जागरूक किया. मेरे बेटे और मेरे साथ काम करने वाली महिलाओं ने यह साबित किया कि आज़ादी की लड़ाई हर घर से शुरू होती है.
मेरे जीवन की सबसे बड़ी सीख यही रही. डर को कभी हिम्मत के रास्ते में बाधा नहीं बनने देना चाहिए. अगर एक मां अपने बच्चों के लिए खड़ी हो सकती है, तो क्यों न पूरे देश के लिए भी खड़ी हो जाए? मैंने बुर्के में छिपकर, भाषणों में आवाज़ उठाकर और महिलाओं को प्रेरित करके यह साबित किया. मेरी हिम्मत, मेरे बेटे और मेरे परिवार की मेहनत, और उन सभी महिलाओं का योगदान जिन्होंने मेरे साथ आंदोलन में भाग लिया, भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का हिस्सा हैं.
1924 में लम्बी बीमारी के बाद मैंने इस दुनिया को अलविदा कहा. उस समय मेरे बेटों और आंदोलन के साथी मेरे पास नहीं थे, क्योंकि वे जेल में थे या आंदोलन में व्यस्त थे. मेरे निधन की खबर सुनकर कई जगह सभाएं हुईं, जिनमें नेताओं ने कहा कि बी अम्मा ने महिलाओं को राजनीति और स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने का रास्ता दिखाया. मुझे गर्व है कि मैं अपने देश की आज़ादी देखने से पहले चली गई, लेकिन मेरे शब्द, मेरा बुर्का और मेरा साहस आने वाली पीढ़ियों के लिए हमेशा प्रेरणा बनकर जिंदा रहेगा.
- अबादी बानो बेगम