कहीं महामारी न बन जाए कैंसर की बीमारी? भारत में हालात चिंताजनक, अगले 25 साल में...
द लैंसेट जर्नल की ग्लोबल स्टडी के अनुसार, अगले 25 वर्षों में दुनिया में कैंसर से होने वाली मौतें 18.6 मिलियन और नए मामले 30.5 मिलियन तक पहुंच सकते हैं, जिसमें कम और मध्यम आय वाले देशों को सबसे ज्यादा नुकसान होगा. भारत में 1990-2023 के बीच कैंसर के मामले 26% बढ़े हैं.

दुनिया भर में कैंसर से होने वाली मौतों में अगले 25 वर्षों में भारी वृद्धि होने की संभावना है. यह आशंका द लैंसेट जर्नल में प्रकाशित एक नई ग्लोबल स्टडी में सामने आई है. रिपोर्ट के मुताबिक, आर्थिक विकास और उम्र बढ़ने वाली आबादी के कारण सालाना कैंसर से होने वाली मौतें 18.6 मिलियन तक पहुंच सकती हैं, जबकि नए मामलों की संख्या 3 करोड़ से भी ज्यादा तक बढ़ने का अनुमान है.
वैश्विक अध्ययन के अनुसार, 1990 से अब तक कैंसर से होने वाली मौतों में 74% की वृद्धि हो चुकी है. 1990 में 60 लाख से कम मौतें थीं, जो 2023 तक बढ़कर 1.04 करोड़ तक पहुंच गईं. इसी अवधि में नए कैंसर मामलों की संख्या दोगुनी से अधिक होकर 1.85 करोड़ हो गई है. विशेष रूप से कम और मध्यम आय वाले देशों में यह वृद्धि अधिक तेज़ी से हो रही है. अध्ययन के अनुसार, नए मामलों में 61% की वृद्धि और मौतों में 75% की वृद्धि का मुख्य कारण बूढ़ी होती आबादी और जीवनशैली में बदलाव है, न कि कैंसर की घातकता में असामान्य वृद्धि.
भारत में स्थिति
भारत में कैंसर की दर 1990 से 2023 के बीच 26.4% बढ़ी, जो वैश्विक स्तर पर सबसे अधिक में से एक है. वहीं चीन में इसी अवधि के दौरान कैंसर की दर में 18.5% गिरावट दर्ज की गई. रिपोर्ट के अनुसार, भारत में 1990 में कैंसर का इन्सिडेंस रेट 84.8 प्रति 100,000 जनसंख्या था, जो 2023 में बढ़कर 107.2 प्रति 100,000 हो गया. इस अवधि में लगभग 15 लाख नए कैंसर मामले सामने आए. वहीं, मृत्यु दर 71.7 प्रति 100,000 से बढ़कर 86.9 प्रति 100,000 हो गई, जो लगभग 12.1 लाख मौतों के बराबर है. हालांकि भारत में मामले और मौतें बढ़ी हैं, लेकिन ये वैश्विक औसत से अभी भी कम हैं.
रोकथाम और जोखिम कारक
रिसर्च टीम ने बताया कि 40% से अधिक वैश्विक कैंसर मौतें रोकथाम योग्य जोखिम कारकों से जुड़ी हैं. इनमें तम्बाकू का सेवन, अस्वस्थ आहार, उच्च ब्लड शुगर, शराब का सेवन और शारीरिक गतिविधियों की कमी शामिल हैं. यदि इन कारकों के प्रति जागरूकता बढ़ाई जाए, तो काफी हद तक कैंसर से होने वाली मौतों को रोका जा सकता है.
डॉ. लिसा फोर्स, जो इस अध्ययन की प्रमुख शोधकर्ता हैं, ने कहा, "कैंसर नियंत्रण नीतियों और उनके कार्यान्वयन को वैश्विक स्वास्थ्य में अभी भी प्राथमिकता नहीं दी जा रही है. कई देशों में इसके लिए पर्याप्त धनराशि उपलब्ध नहीं है."
देशों के बीच असमानता
अध्ययन में 204 देशों और क्षेत्रों के आंकड़ों का विश्लेषण किया गया. इसमें सामने आया कि वैश्विक स्तर पर कुल मृत्यु दर 1990 से 2023 के बीच 24% घटी है, लेकिन उच्च और निम्न आय वाले देशों के बीच इस कमी में भारी अंतर है. कम आय वाले देशों में नए कैंसर मामलों में 24% की वृद्धि हुई है, जबकि निम्न-मध्यम आय वाले देशों में यह 29% तक बढ़ी है. इससे यह स्पष्ट होता है कि जिन देशों में संसाधन कम हैं, वहां कैंसर की बढ़ती दर अधिक चिंताजनक है.
डॉ. फोर्स ने कहा, “कैंसर वैश्विक रोग भार में एक महत्वपूर्ण योगदानकर्ता बना हुआ है. हमारा अध्ययन दिखाता है कि आने वाले दशकों में इसका भार और बढ़ने की संभावना है, विशेष रूप से उन देशों में जहां संसाधन सीमित हैं.”
वैश्विक स्वास्थ्य पर प्रभाव
रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि भविष्य में नई कैंसर घटनाओं और मौतों का अनुपात कम और मध्यम आय वाले देशों में अधिक होगा. अनुमान है कि 2050 तक तीन करोड़ से ज्यादा नए मामले और 1.86 करोड़ मौतें होंगी, जो क्रमशः 2024 की तुलना में 60.7% और 74.5% की वृद्धि दर्शाती हैं. विशेषज्ञों का कहना है कि इसका समाधान केवल बेहतर स्वास्थ्य सेवाओं, सटीक और समय पर निदान, तथा गुणवत्ता उपचार तक पहुंच सुनिश्चित करने में निहित है. इसके अलावा, जीवनशैली सुधार, तंबाकू पर नियंत्रण और पोषण संबंधी जागरूकता भी अहम हैं.
भारत के लिए संदेश
भारत में कैंसर मामलों और मौतों की दर वैश्विक औसत से कम है, लेकिन बढ़ती संख्या चिंता का विषय है. 26% की वृद्धि दर्शाती है कि जीवनशैली, पर्यावरण और पुराने स्वास्थ्य ढांचे के कारण देश में कैंसर का बोझ लगातार बढ़ रहा है. विशेषज्ञों का कहना है कि रोकथाम योग्य जोखिम कारकों पर ध्यान देना और कैंसर नियंत्रण कार्यक्रमों को सुदृढ़ करना भारत के लिए प्राथमिकता होनी चाहिए.
वैश्विक स्तर पर कैंसर अब भी रोग भार में एक प्रमुख भूमिका निभा रहा है. आने वाले 25 वर्षों में मौतों में 75% की वृद्धि और नए मामलों में 61% की वृद्धि की संभावना है. भारत में भी स्थिति चिंताजनक है, जहां 26% की बढ़ोतरी हुई है. रोकथाम योग्य जोखिमों पर ध्यान देकर, स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार और जागरूकता बढ़ाकर इस चुनौती से निपटा जा सकता है. विशेषज्ञों का कहना है कि अगर उचित कदम नहीं उठाए गए, तो कम और मध्यम आय वाले देशों में यह संकट और बढ़ सकता है.