तालिबान के लिए क्यों खास है दारुल उलूम देवबंद? जानिए अफगान विदेश मंत्री मुत्तकी के दौरे के मायने
अफगान विदेश मंत्री आमिर खान मुत्तकी भारत दौरे पर देवबंद स्थित दारुल उलूम पहुंचे. यह तालिबान का पहला उच्चस्तरीय भारत दौरा है. देवबंद के उलेमाओं और छात्रों से मुलाकात के जरिए मुत्तकी धार्मिक और वैचारिक संवाद स्थापित करेंगे. इस यात्रा का मकसद तालिबान और भारत के मुस्लिम समाज के बीच संपर्क और भरोसे का पुल बनाना है. दौरे के राजनीतिक और धार्मिक मायनों को लेकर सुरक्षा और तैयारियां कड़ी की गई हैं.

अफगानिस्तान के विदेश मंत्री आमिर खान मुत्तकी का भारत दौरा कई मायनों में ऐतिहासिक माना जा रहा है. 2021 में तालिबान के सत्ता में लौटने के बाद यह पहला मौका है जब किसी वरिष्ठ तालिबानी अधिकारी ने भारत की यात्रा की है. मुत्ताकी नई दिल्ली में विदेश मंत्री एस. जयशंकर से मुलाकात कर चुके हैं, लेकिन असली चर्चा उनके देवबंद दौरे को लेकर है, जिसने देशभर में उत्सुकता बढ़ा दी है.
यह यात्रा केवल धार्मिक नहीं, बल्कि राजनयिक और वैचारिक संदेश भी रखती है. अफगानिस्तान में स्थिरता लाने के लिए भारत को तालिबान से संवाद जरूरी है, और तालिबान देवबंद के ज़रिए भारत के मुस्लिम समाज से वैधता चाहता है. मुत्ताकी का यह दौरा दोनों देशों के बीच ‘विश्वास की नई परत’ जोड़ सकता है जहां धर्म, राजनीति और इतिहास एक साथ खड़े हैं.
देवबंद क्यों खास है?
उत्तर प्रदेश के सहारनपुर में स्थित दारुल उलूम देवबंद सिर्फ एक मदरसा नहीं, बल्कि दक्षिण एशिया में इस्लामी शिक्षा और विचारधारा का केंद्र रहा है. 1866 में ब्रिटिश राज के दौरान स्थापित यह संस्थान देवबंदी आंदोलन का जन्मस्थान बना, जिसने इस्लाम को शुद्ध और विदेशी प्रभावों से मुक्त रखने का संदेश दिया. इसके संस्थापक मौलाना कासिम नानोत्वी और हाजी आबिद हुसैन थे, जिन्होंने भारतीय मुस्लिम समाज में सुधारवादी सोच की नींव रखी.
देवबंद और अफगानिस्तान का पुराना रिश्ता
देवबंद की शिक्षाएं भारत से निकलकर अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश तक फैलीं. अफगानिस्तान के कई मौलाना और उलेमा ने देवबंद से शिक्षा प्राप्त की. इसलिए मुत्ताकी का यह कहना कि “देवबंद अफगानिस्तान से रूहानी तौर पर जुड़ा है” ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में पूरी तरह सच है. दोनों के बीच न केवल धार्मिक संबंध रहे हैं, बल्कि सांस्कृतिक और शैक्षणिक रिश्ते भी गहरे हैं.
तालिबान और देवबंद की वैचारिक समानता
1947 में पाकिस्तान के खैबर पख्तूनख्वा में बना दारुल उलूम हक्कानिया देवबंद से ही प्रेरित था. इसके संस्थापक मौलाना अब्दुल हक ने देवबंद में शिक्षा ली थी और वही पाठ्यक्रम वहां लागू किया. इसी हक्कानिया से कई तालिबान नेता निकले, जिनमें मुल्ला उमर और जलालुद्दीन हक्कानी जैसे नाम शामिल हैं. यही वजह है कि तालिबान की वैचारिक जड़ें देवबंद से जुड़ी मानी जाती हैं.
शिक्षाओं से तालिबान का उभार
देवबंद की शिक्षा का केंद्र था- कुरान, हदीस, फिकह (इस्लामी न्यायशास्त्र) और नैतिक अनुशासन. तालिबान ने इसी ढांचे को अफगानिस्तान में लागू करने की कोशिश की. हालांकि बाद में सऊदी अरब की वहाबी विचारधारा के प्रभाव से तालिबान और कट्टर हुआ, लेकिन उसकी बुनियादी वैचारिक दिशा देवबंद से ही निकली थी.
क्या देवबंद अब भी तालिबान का वैचारिक ठिकाना है?
2001 में जब तालिबान ने बामियान बुद्ध प्रतिमाओं को तोड़ा, तो दारुल उलूम देवबंद ने इसे इस्लामी दृष्टिकोण से सही ठहराया था. भले ही भारत के उलेमाओं ने कई बार तालिबान की कठोर नीतियों पर असहमति जताई हो, लेकिन वैचारिक स्तर पर समर्थन की एक परत हमेशा रही है. अब जब तालिबान अंतरराष्ट्रीय मान्यता की तलाश में है, तो देवबंद से जुड़ाव दिखाना एक सांस्कृतिक और राजनीतिक रणनीति के रूप में देखा जा रहा है.
भारत के लिए मुत्ताकी का संदेश
भारत ने अभी तक तालिबान सरकार को औपचारिक मान्यता नहीं दी है, लेकिन मानवीय मदद और राजनयिक बातचीत जारी है. मुत्ताकी का देवबंद जाना, भारत को यह संदेश देने की कोशिश है कि तालिबान की जड़ें “कट्टरपंथ” से नहीं, बल्कि “धार्मिक परंपरा” से जुड़ी हैं. यह तालिबान के इमेज मेकओवर का हिस्सा भी हो सकता है.
देवबंद में चल रही तैयारी
दारुल उलूम के मोहतमिम मौलाना अबुल कासिम नोमानी ने कहा कि संस्था के दरवाजे सभी के लिए खुले हैं. मुत्ताकी के स्वागत के लिए देवबंद को सजाया गया है. पूरे क्षेत्र में सुरक्षा के कड़े इंतज़ाम किए गए हैं. मुत्ताकी की मुलाकात मौलाना अरशद मदनी सहित कई वरिष्ठ उलेमाओं से होने वाली है.
क्या मुत्तकी छात्रों से भी करेंगे बात?
सूत्रों के मुताबिक, मुत्तकी दारुल उलूम में छात्रों को भी संबोधित कर सकते हैं. उनका यह संवाद तालिबान और भारत के मुस्लिम समाज के बीच संवाद की नई शुरुआत हो सकती है. देवबंद प्रबंधन का मानना है कि इस तरह की यात्राएं “धार्मिक कूटनीति” को बढ़ावा देती हैं.