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कौन थे सैयद सालार मसूद गाज़ी जिनके नाम पर गोरखपुर में 900 साल से लग रहा था 'बाले मियां का मेला'?

बाले मियां को लेकर इतिहास हमेशा से दो ध्रुवों में बंटा रहा है. एक तरफ उन्हें एक सूफी योद्धा, लोकदेवता और श्रद्धा का केंद्र माना जाता है, जिनकी दरगाह पर हिन्दू और मुस्लिम दोनों आस्था रखते हैं. दूसरी ओर, राज्य सरकार उन्हें महमूद गजनवी के सेनापति और "आक्रमणकारी" के रूप में देखती है.

कौन थे सैयद सालार मसूद गाज़ी जिनके नाम पर गोरखपुर में 900 साल से लग रहा था बाले मियां का मेला?
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प्रवीण सिंह
Edited By: प्रवीण सिंह

Published on: 19 May 2025 11:59 AM

एक परंपरा जो 900 सालों से चली आ रही थी, इस बार इतिहास के पन्नों में थम गई है. गोरखपुर में हर साल राजब के महीने की 15वीं रात को लगने वाला बाले मियां का मेला अबकी बार नहीं लगेगा. यह मेला सूफी योद्धा सैयद सालार मसूद गाज़ी (जिन्हें स्थानीय लोग 'बाले मियां' कहते हैं) की याद में आयोजित होता रहा है.

मेला 18 मई से शुरू होना था, लेकिन प्रशासन ने इसकी अनुमति नहीं दी. हालांकि, 19 मई को बाले मियां के उर्स के उपलक्ष्य में स्थानीय अवकाश घोषित किया गया है.

इतिहास के पन्नों से: कौन थे सालार मसूद?

सैयद सालार मसूद ग़ाज़ी का जन्म 1014 ईस्वी में गज़नी (आधुनिक अफ़ग़ानिस्तान) में हुआ था. वे इस्लामी सेनानायक सैयद सालार साहर के पुत्र थे और उनकी माता महमूद गजनवी की बहन थीं. यानी वे स्वयं गज़नी के आक्रमणकारी सुल्तान महमूद के भांजे थे. माना जाता है कि मात्र 16 वर्ष की आयु में, मसूद ग़ाज़ी ने एक सेना के साथ भारत की ओर कूच किया और उत्तर भारत के विभिन्न क्षेत्रों, खासकर वर्तमान उत्तर प्रदेश के मेरठ, संभल, गोरखपुर और बहराइच में उन्होंने अभियान चलाया. उनकी मृत्यु 1034 ईस्वी में बहराइच के पास हुई. कुछ इतिहासकारों के अनुसार, उनकी भिड़ंत हिंदू योद्धा महाराजा सुहेलदेव से हुई थी, जिन्होंने उन्हें पराजित कर युद्ध में मार डाला.

इतिहास से वर्तमान तक: सूफी संत या आक्रमणकारी?

बाले मियां को लेकर इतिहास हमेशा से दो ध्रुवों में बंटा रहा है. एक तरफ उन्हें एक सूफी योद्धा, लोकदेवता और श्रद्धा का केंद्र माना जाता है, जिनकी दरगाह पर हिन्दू और मुस्लिम दोनों आस्था रखते हैं. दूसरी ओर, राज्य सरकार उन्हें महमूद गजनवी के सेनापति और "आक्रमणकारी" के रूप में देखती है. मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने हाल ही में बयान दिया कि "आक्रमणकारियों का महिमामंडन देशद्रोह के बराबर है, जिसे आज़ाद भारत में बर्दाश्त नहीं किया जाएगा." इस सोच को आधार बनाकर राज्य में बहराइच और संभल में भी गाज़ी मियां से जुड़े मेलों और उर्सों को रोका गया.

अदालत का रुख और प्रशासन की चुप्पी

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने बहराइच उर्स के मामले में हस्तक्षेप करने से इनकार कर दिया, जिससे सरकार के कानून-व्यवस्था वाले तर्क को मजबूती मिली. हालांकि, दरगाह पर रोज़मर्रा की इबादत जारी रखने की छूट दी गई है, लेकिन वार्षिक आयोजन बंद हैं. गोरखपुर के आयोजकों का दावा है कि उन्होंने मार्च में ही सुरक्षा इंतज़ामों की लिखित मांग की थी, मगर कोई जवाब नहीं मिला. मेलास्थल पर फिलहाल हर्बर्ट बांध के चौड़ीकरण का निर्माण कार्य चल रहा है, जिससे ज़मीन पर निर्माण सामग्री पड़ी है.

सुहेलदेव बनाम गाज़ी मियां: बदलती सांस्कृतिक राजनीति

राज्य सरकार अब महाराजा सुहेलदेव को नायक के तौर पर उभार रही है, जिन्हें कुछ ऐतिहासिक वर्णनों में गाज़ी मियां को हराने वाला बताया गया है. भाजपा समर्थित संगठनों ने हाल के वर्षों में सुहेलदेव को हिंदू गौरव के प्रतीक के तौर पर पेश किया है, जो गाज़ी मियां की विरासत के विपरीत खड़ा किया जा रहा है.

900 वर्षों की परंपरा का एक अनसुना अंत

गोरखपुर का बाले मियां मेला सिर्फ एक धार्मिक आयोजन नहीं, बल्कि लोक-परंपरा और सांस्कृतिक एकता की मिसाल रहा है. कई ग्रामीण क्षेत्रों से लोग महीनों पहले इस मेले की तैयारी शुरू कर देते थे, झूले, कव्वाली, सूफी संगीत, और दरगाह की जियारत के साथ-साथ यह एक लोक उत्सव बन गया था. अब पहली बार ऐसा हो रहा है जब यह मेला आधिकारिक रूप से रद्द कर दिया गया है.

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