'यह संविधान के साथ धोखाधड़ी...', ईसाई धर्म अपनाने वालों द्वारा जारी एससी लाभ पर इलाहाबाद हाईकोर्ट का सख्त रुख
इलाहाबाद हाईकोर्ट ने उत्तर प्रदेश सरकार को निर्देश दिया है कि ईसाई धर्म अपनाने के बाद भी अनुसूचित जाति (SC) के आरक्षण और सरकारी लाभ लेते रहने वाले व्यक्तियों पर तुरंत सख्त कार्रवाई की जाए. अदालत ने कहा कि धर्म परिवर्तन के बाद एससी लाभ लेना संविधान के साथ धोखाधड़ी है और ईसाई धर्म में जातिगत भेदभाव की व्यवस्था न होने के कारण ऐसे प्रमाणपत्र स्वतः अमान्य माने जाएंगे.
इलाहाबाद हाईकोर्ट ने हाल ही में एक अहम आदेश पारित करते हुए उत्तर प्रदेश सरकार को उन लोगों के खिलाफ तत्काल और सख्त कार्रवाई करने के निर्देश दिए हैं, जो ईसाई धर्म अपना लेने के बाद भी अनुसूचित जाति (SC) से मिलने वाले आरक्षण और सरकारी लाभों का फायदा उठाते रह रहे हैं. अदालत ने साफ कहा कि धर्म परिवर्तन के बाद अनुसूचित जाति का लाभ लेना न सिर्फ अनैतिक है, बल्कि संविधान के साथ धोखाधड़ी है.
स्टेट मिरर अब WhatsApp पर भी, सब्सक्राइब करने के लिए क्लिक करें
यह आदेश न्यायमूर्ति प्रवीण कुमार गिरी की पीठ ने 21 नवंबर को पारित किया. अदालत ने इसमें आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के महत्वपूर्ण फैसलों का हवाला देते हुए स्पष्ट किया कि ईसाई धर्म में जातिगत भेदभाव की व्यवस्था नहीं है, इसलिए किसी हिंदू धर्म से ईसाई बने व्यक्ति को अनुसूचित जाति वर्ग में बनाए रखना संवैधानिक रूप से गलत है.
“धर्म परिवर्तन के बाद एससी लाभ नहीं”
पीठ ने अपने निर्णय में बताया कि आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट ने पहले ही कहा था कि ईसाई धर्म में जाति आधारित भेदभाव मौजूद नहीं है, इसलिए धर्म परिवर्तन के बाद जाति-आधारित प्रमाणपत्र स्वतः अमान्य माना जाना चाहिए - चाहे पहले प्रमाणपत्र जारी हुआ हो या नहीं. इसके साथ ही सुप्रीम कोर्ट के आदेश का भी उल्लेख किया गया जिसमें कहा गया था कि केवल आरक्षण का लाभ लेने के लिए धर्म परिवर्तन के बाद खुद को एससी बताना “संविधान के साथ धोखा” है.
जितेंद्र साहनी की याचिका खारिज - पुलिस ने लगाया धार्मिक वैमनस्य फैलाने का आरोप
अदालत यह आदेश जितेंद्र साहनी बनाम उत्तर प्रदेश मामले की सुनवाई के दौरान पारित कर रही थी. साहनी के खिलाफ आरोप हैं कि उन्होंने दो धर्मों के बीच वैमनस्य फैलाने, तथा एक समुदाय की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने की कोशिश की. अपनी याचिका में साहनी ने कहा कि वह सिर्फ अपने खेत की जमीन पर “यीशु मसीह के उपदेश” देने के लिए एक सभा आयोजित करना चाहते थे और पुलिस ने उन्हें झूठे केस में फंसा दिया. लेकिन पुलिस की दलील बिल्कुल अलग थी. आरोपपत्र में दर्ज गवाहों के हवाले से पुलिस ने बताया कि साहनी मूल रूप से केवट समुदाय से आते हैं. उन्होंने शपथपत्र में खुद को हिंदू धर्म का अनुयायी बताया लेकिन वास्तव में वे ईसाई धर्म अपना चुके हैं और एक पादरी की भूमिका में कार्य कर रहे हैं. गवाहों के अनुसार आरोपित कथित रूप से गरीब लोगों को प्रलोभन देकर ईसाई धर्म अपनाने के लिए प्रेरित करते थे. आरोप यह भी है कि वे हिंदू देवी-देवताओं के खिलाफ अशोभनीय और अपमानजनक भाषा का प्रयोग करते थे.
अदालत ने इन आरोपों को गंभीर माना और कहा कि यदि धर्म परिवर्तन के बाद भी साहनी ने अदालत में खुद को हिंदू बताकर लाभ लेने की कोशिश की है, तो यह जालसाजी और धोखाधड़ी की श्रेणी में आता है.
जिलाधिकारी को जांच और कड़ी कार्रवाई के निर्देश
हाईकोर्ट ने महराजगंज के जिलाधिकारी को निर्देश दिया कि यदि साहनी द्वारा शपथपत्र में गलत जानकारी देने की बात सत्य पाई जाती है, तो उनके खिलाफ कड़ी कार्रवाई तुरंत शुरू की जाए. अदालत ने स्पष्ट चेतावनी देते हुए कहा, “भविष्य में ऐसे हलफनामों की पुनरावृत्ति रोकने के लिए सख्त दंडात्मक कदम उठाना आवश्यक है.”
केंद्र और राज्य सरकार को भी स्पष्ट आदेश
हाईकोर्ट ने इस मुद्दे की गंभीरता को देखते हुए मामले को व्यक्तिगत स्तर तक सीमित नहीं रखा, बल्कि इसे राष्ट्रीय स्तर के प्रशासनिक सुधार से जोड़ा. अदालत ने निर्देश दिया कि - भारत सरकार के कैबिनेट सचिव, यूपी सरकार के मुख्य सचिव, यूपी के अल्पसंख्यक कल्याण विभाग, यूपी के प्रधान सचिव/अपर मुख्य सचिव राज्य के सभी जिलाधिकारी - इन सभी को एससी/एसटी और ओबीसी लाभों से जुड़े नियमों की पुन: समीक्षा करने, और धार्मिक रूप से परिवर्तित लोगों द्वारा अवैध रूप से लाभ उठाने के मामलों में तत्काल और कड़ी प्रशासनिक कार्रवाई लागू करने का आदेश दिया गया.
मामले के सामाजिक और प्रशासनिक प्रभाव
हाईकोर्ट के इस आदेश का असर बेहद व्यापक माना जा रहा है क्योंकि पहली बार अदालत ने खुलकर यह कहा है कि धर्म परिवर्तन के बाद भी एससी लाभ लेना कानून, संविधान और सामाजिक न्याय - तीनों के खिलाफ है. यह निर्णय भविष्य में फर्जी जाति प्रमाणपत्र पर कार्रवाई, धर्म परिवर्तन के बाद आरक्षण लाभों की स्वचालित समीक्षा, जिला प्रशासन की जवाबदेही और अल्पसंख्यक कल्याण विभाग की निगरानी जैसे क्षेत्रों में बदलाव का आधार बन सकता है.
हाईकोर्ट का यह आदेश न सिर्फ एक व्यक्ति के मामले तक सीमित है, बल्कि आरक्षण व्यवस्था के सही और वास्तविक लाभार्थियों की सुरक्षा के लिए एक बड़े सुधार की दिशा में संकेत देता है. अदालत ने स्पष्ट कर दिया है कि आरक्षण अधिकार धर्म परिवर्तन के साथ समाप्त हो जाते हैं, लाभ बनाए रखना संभव नहीं है. ऐसा करना कानून और संविधान दोनों के साथ धोखा है.





