200-200 रुपये इकट्ठा कर लो, नई छत डलवा देंगे, झालावाड़ हादसे से पहले आई थी शिक्षकों की शर्मनाक सलाह
झालावाड़ के पिपलोदी गांव में सरकारी स्कूल की छत गिरने से हड़कंप मच गया. ग्रामीणों ने पहले ही जर्जर हालात की जानकारी दी थी, पर अधिकारियों ने अनदेखी की. शिक्षकों ने दो-दो सौ रुपये जुटाने की सलाह दी थी. हादसे में कई बच्चे घायल हुए. 45 मिनट देर से पहुंची एंबुलेंस और खुद राहत में जुटे ग्रामीणों ने सिस्टम की नाकामी उजागर कर दी.

झालावाड़ के पिपलोदी गांव में सरकारी स्कूल की छत गिरने की घटना सिर्फ एक हादसा नहीं, बल्कि सिस्टम की पूरी विफलता की कहानी है. ग्रामीणों ने लगातार चार साल से स्कूल की जर्जर स्थिति को लेकर शिकायतें की थीं. उन्होंने स्कूल प्रशासन और सरकारी अधिकारियों दोनों से गुहार लगाई थी. लेकिन जवाब मिला- “200-200 रुपये इकट्ठा कर लो, नई छत डलवा देंगे”. यह सुझाव शिक्षकों की ओर से आया था, जो संवेदनशीलता से कहीं अधिक एक बेरुखा मज़ाक साबित हुआ.
हादसे का मंजर दिल दहला देने वाला था. प्रत्यक्षदर्शी ग्रामीण बालकिशन ने बताया कि स्कूल के पास बैठे हुए अचानक तेज आवाज आई और स्कूल भवन का एक हिस्सा धूल में तब्दील हो गया. चीखते बच्चों की आवाजें हवा में गूंजने लगीं. ग्रामीणों ने खुद राहत अभियान शुरू किया. स्लैब हटाए, बच्चों को बाहर निकाला, और निजी वाहनों से अस्पताल पहुंचाया. प्रशासनिक मदद तब तक नदारद रही.
जब एंबुलेंस उम्मीद से बहुत दूर थी
गांव के सरपंच रामप्रसाद लोढ़ा ने बताया कि हादसे के बाद उन्होंने अपनी जेसीबी मशीन से मलबा हटाने का काम शुरू किया और गांव वालों ने घायलों को दोपहिया वाहनों से अस्पताल पहुंचाया. सरकारी एंबुलेंस पूरे 45 मिनट बाद पहुंची. ऐसे में सवाल उठता है कि आपातकालीन स्थिति में ग्रामीणों को ही क्यों प्रशासन की भूमिका निभानी पड़ी?
चूल्हे बुझे रहे, भूख से बड़ी थी चिंता
इस हादसे ने पूरे गांव को शोक में डुबो दिया. शुक्रवार को किसी भी घर में चूल्हा नहीं जला. लोगों ने खाना नहीं खाया, बस बच्चों के लिए प्रशासन ने भोजन का प्रबंध किया. गांव के लोग अपनों को खोने और मासूमों को घायल होते देखने के दर्द से उबर नहीं पा रहे थे. यह सिर्फ एक शारीरिक चोट नहीं, बल्कि पूरे गांव के आत्मविश्वास पर गहरा आघात है.
सिस्टम से उठा भरोसा
देर शाम पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे और सांसद दुष्यंत सिंह गांव पहुंचे. वसुंधरा राजे ने कहा कि अगर स्कूल की पहचान पहले ही खतरे वाले भवन के तौर पर होती, तो हादसे को टाला जा सकता था. लेकिन सवाल उठता है– क्या यह बयान सिर्फ सियासी रस्मअदायगी है या आने वाले दिनों में स्कूलों की जमीनी हालत को सुधारने की शुरुआत होगी? फिलहाल तो यह हादसा हर उस बच्चे का सवाल बन गया है जो मलबे से जिंदा निकल आया, लेकिन सिस्टम से भरोसा खो बैठा.