पंजाब निकाय चुनाव का मतलब क्या, BJP फिसड्डी, कांग्रेस इस बार भी क्यों बेअसर? किसने किया कमबैक
पंजाब लोकल बॉडी चुनाव नतीजों ने 2027 में प्रस्तावित विधानसभा चुनाव के सियासी संकेत दे दिए हैं. सत्ताधारी पार्टी आप अधिक सीटें जीतने में सफल हुई, लेकिन उसके लिए चिंता की बात यह है कि अकाली दल ने नगर निकाय और पंचायत समिति के चुनाव में अपनी स्थिति मजबूत कर ली है. कांग्रेस इस बार भी एंटी इंकम्बेंसी का लाभ नहीं उठा पाई तो बीजेपी एक बार फिर हाशिये पर दिखी. जानिए क्या हैं, इस चुनाव के सियासी मायने?
पंजाब के लोकल बॉडी चुनाव परिणाम सिर्फ नगर निकायों तक सीमित नहीं हैं, बल्कि उन्होंने अगले विधानसभा चुनाव की सियासत का मूड भी साफ कर दिया है. आम आदमी पार्टी (AAP) ने जहां अपनी संगठनात्मक पकड़ दिखाई, वहीं बीजेपी एक बार फिर कमजोर और अप्रभावी साबित हुई. सबसे बड़ा सवाल कांग्रेस को लेकर है. प्रदेश में सत्ता विरोधी माहौल मौजूद होने के बाद भी पार्टी के नेता इसे भुनाने में क्यों नाकाम रहे? इन नतीजों ने पंजाब की विपक्षी राजनीति की सीमाएं और चुनौतियां दोनों उजागर कर दी हैं.
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दरअसल, पंजाब में जिला परिषद और पंचायत समिति चुनाव, जो आखिरकार पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट द्वारा तय समय सीमा के अनुसार 14 दिसंबर को हुए. चुनाव परिणाम जमीनी स्तर पर कुछ राजनीतिक उथल-पुथल के संकेत दे दिए हैं. जहां सत्तारूढ़ AAP स्पष्ट विजेता के रूप में उभरी है, वहीं उसके प्रतिद्वंद्वियों (SAD, कांग्रेस और BJP) द्वारा हासिल किए गए फायदे, भले ही कम हों, लेकिन वो काफी अहम हैं. इससे साफ हो गया है कि आने वाले विधानसभा चुनावों में राज्य में तीन पार्टियों के बीच मुकाबला होने की संभावना है.
ऐसा इसलिए कि पंजाब में स्थानीय सरकारी निकाय चुनावों में लगातार कम वोटर टर्नआउट रहा था. हालांकि, राज्य ने विधानसभा और लोकसभा चुनावों में राष्ट्रीय औसत की सीमा को पार कर लिया. ये चुनाव भी कोई अपवाद नहीं थे, क्योंकि वोटर टर्नआउट सिर्फ़ 48% था.
2027 SAD के लिए अस्तित्व का सवाल
पंजाब में विधानसभा चुनाव 2027 में होने हैं. इन चुनावों में मुख्यधारा की पार्टियों पर सभी की नजर है. पंजाब की सबसे पुरानी पार्टी शिरोमणि अकाली दल के लिए लगातार चुनावी गिरावट और नेतृत्व संकट का सामना करने के बाद आने वाले चुनावों में यह अस्तित्व की लड़ाई होगी. अकाली दल से अलग होने के बाद BJP को अपना समर्थन आधार बढ़ाने की जरूरत है. जहां तक कांग्रेस और AAP की बात है, वे राजनीतिक सत्ता के लिए कोशिश करेंगी. हाल के दिनों में चुनावी लिहाज से दोनों के पास दिखाने के लिए ज्यादा कुछ नहीं है.
AAP के लिए संतोषजनक रहा चुनाव
AAP जिला परिषद और पंचायत समिति चुनावों में सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी है. राज्य में स्थानीय निकाय चुनावों और यहां तक कि विधानसभा उपचुनावों में सत्तारूढ़ पार्टी की जीत के पिछले नतीजों के आधार पर, AAP की जीत कोई असामान्य बात नहीं है. AAP ने पिछले दिसंबर में हुए नगर निगम चुनावों में भी दूसरी पार्टियों से बेहतर प्रदर्शन किया था.
चुनाव परिणाम कोई अपवाद नहीं थे, जिसमें विरोधी पार्टियों ने AAP सरकार पर सरकारी अधिकारियों और राज्य चुनाव आयोग की मदद से नतीजों में हेरफेर करने का आरोप लगाया. दिलचस्प बात यह है कि राज्य चुनाव आयुक्त एक संवैधानिक अथॉरिटी होता है और उसे केवल राष्ट्रपति ही हटा सकते हैं. भले ही उसकी नियुक्ति राज्यपाल द्वारा राज्य सरकार की सिफारिश पर की जाती है.
60 फीसद ग्रामीण आबादी
ग्रामीण स्थानीय सरकारी निकायों के लिए चुनावों के महत्व के बारे में, भले ही पंजाब ज्यादा शहरी राज्यों में से एक है, लेकिन लगभग 60 प्रतिशत आबादी ग्रामीण इलाकों में रहती है. इसके अलावा, शहरों और कस्बों में रहने वाले ज्यादातर लोग अपने गांवों से मजबूत संबंध बनाए रखते हैं. कई लोगों के लिए, उनके पैतृक गांव उनकी पहचान और उपनाम का स्रोत हैं.
संघर्ष से जूझ रहे पंजाब में, जनवरी 1993 में हुए गांव पंचायत चुनाव और सितंबर और अक्टूबर 1994 में हुए जिला परिषद और पंचायत समिति चुनावों ने ही लोगों का लोकतांत्रिक राजनीतिक प्रक्रिया में भरोसा बहाल किया था, जिससे मुख्यधारा की पार्टियों को राजनीतिक मंच पर फिर से आने का मौका मिला.
अकाली दल की पकड़ हुई मजबूत
दरअसल, पंजाब तीन पार्टियों वाला राज्य बना हुआ है. अकाली दल ने पंचायत समिति चुनावों में 449 सीटें और जिला परिषद में 46 सीटें जीतकर अपनी पकड़ मजबूत की है. खास बात यह है कि पार्टी ने बरगारी से जीत हासिल की, जहां 2015 में बेअदबी की घटना हुई थी, जिसके बाद बेहबल कलां और कोटकपूरा में पुलिस फायरिंग हुई थी. इस घटना ने तकसाली सिखों को भी पंथिक पार्टी से दूर कर दिया था.
BJP का निराशाजनक प्रदर्शन
बीजेपी का निराशाजनक प्रदर्शन (जिला परिषद और पंचायत समिति चुनावों में क्रमशः सिर्फ सात और 73 सीटें जीतना) ने एक बार फिर दिखाया कि पार्टी किसानों के कृषि बिलों के खिलाफ आंदोलन के बाद मिले झटके से उबर नहीं पाई है। लेकिन बीजेपी का शहरी पंजाब में, जहाँ जातिगत हिंदू और खत्री सिख रहते हैं, हमेशा से पारंपरिक सामाजिक समर्थन आधार रहा है।
कांग्रेस को नहीं मिला लहर का फायदा
कांग्रेस AAP के खिलाफ सत्ता विरोधी लहर का फायदा नहीं उठा पाई. कांग्रेस की हार मुख्य रूप से उसकी गुटबाजी की राजनीति के कारण हुई. इसी वजह से पार्टी पिछले साल पंचायत चुनावों में भी हारी थी. कमजोर कांग्रेस हाईकमान के सामने, पार्टी के क्षेत्रीय नेताओं ने गंभीरता से मुख्यमंत्री पद के लिए लड़ना शुरू कर दिया है. यह ध्यान दिए बिना कि 11 नवंबर को हुए तरनतारन विधानसभा क्षेत्र के उपचुनाव में पार्टी का उम्मीदवार चौथे स्थान पर रहा. पार्टी के लिए यह शायद ही कोई सांत्वना की बात है कि AAP 22 जिला परिषदों में से नौ में स्पष्ट बहुमत हासिल करने में विफल रही.
AAP का सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरना, दिल्ली में पहले के निराशाजनक प्रदर्शन के बाद पार्टी के लिए एक बहुत जरूरी बढ़ावा है. उसे दिल्ली में विधानसभा और लोकसभा चुनावों में और साथ ही नगर निगम उपचुनावों में लगातार हार का सामना करना पड़ा था. हालांकि, पार्टी ने गोवा और गुजरात में अपनी पैठ बनाई है, लेकिन वहां उसकी उपस्थिति उतनी महत्वपूर्ण नहीं है. जहां तक पंजाब की बात है, AAP को अभी भी कई चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है.
भगवंत मान के नेतृत्व वाली सरकार, जो अगले विधानसभा चुनावों में AAP का मुख्यमंत्री चेहरा बने रहने की संभावना है, ने ड्रग्स और माफिया कार्टेल को खत्म करने के अपने चुनावी वादों को पूरा करने में सफल नहीं हुई. ग्रामीण चुनावों के नतीजे बताते हैं कि AAP पंजाब में अभी भी जीतने वाली पार्टी बनी हुई है.





