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क्‍या नीतीश कुमार को सता रहा हार का डर, क्‍यों लगातार कर रहे मुफ्त की योजनाओं की घोषणा?

चुनावी मौसम नजदीक आते ही बिहार के सीएम नीतीश कुमार एक के बाद एक फ्री योजनाओं का ऐलान कर रहे हैं. जबकि वह अपने सियासी जीवन में हमेशा इसका विरोध करते आए हैं. अब ऐसा क्या हो गया कि एक प्रगतिशील और समाजवादी सोच का नेता गरीब बिहार को फ्री की रेवड़ी की राजनीति के दुष्चक्र में फंसा देना चाहता है. ये उनके विकास की चिंता है या फिर चुनावी हार का डर?

क्‍या नीतीश कुमार को सता रहा हार का डर, क्‍यों लगातार कर रहे मुफ्त की योजनाओं की घोषणा?
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जैसे-जैसे बिहार चुनाव 2025 की गर्मी बढ़ रही है, वैसे-वैसे नीतीश कुमार का "फ्री का फार्मूला" भी तेज होता जा रहा है. कभी छात्राओं को मुफ्त साइकिल, तो कभी युवाओं के लिए स्टाइपेंड, अब तो किसानों और महिलाओं को भी लुभाने की तैयारी है. सवाल ये है कि 20 साल तक बिहार की सत्ता संभाल चुके नीतीश अब क्यों लगातार ऐसी लोकलुभावन घोषणाएं कर रहे हैं? क्या उन्हें सत्ता खिसकने का डर सता रहा है? या ये सिर्फ चुनावी रिवाज बन चुका है?

सीएम नीतीश कुमार ने अपने पहले दो कार्यकाल यानी 2005 से 2015 के दौरान ​अपराधि नियंत्रण, आधारभूत ढांचों का विकास, महिला सशक्तिकरण, शासन और जातिगत गतिशीलता के प्रबंधन पर अपनी छाप छोड़ी थी. उसके बाद उन्होंने आरक्षण और जाति पर जोर दिया. इन सबसे उनकी 'सुशासन बाबू' की छवि ​बनी. लेकिन ये क्या उन्होंने अब अरविंद केजरीवाल की तरह अपनी सियासी पारी के अंतिम चरण में खैरात (फ्री की रेवड़ी) की राजनीति शुरू कर दी. ऐसा लगता है कि अब नीतीश कुमार जाति और खैरात खैरात बांटने के चक्रव्यूह से बाहर नहीं निकल पा रहे हैं.

मुफ्तखोरी की राजनीति किस पर भारी

अभी तक नीतीश कुमार के (फ्री की रेवड़ी) की दूसरे दलों की नीति की तीखी आलोचना करते आए हैं, लेकिन अब वो खुद उसी पर अमल करते दिखाई दे रहे हैं. नीतीश जैसे नेताओं के लिए यह बुरी खबर इसलिए ​कि बिहार भारत के सबसे गरीब राज्यों में से एक है. अगर सरकारी खजाना फ्री की रेवड़ी वाली योजनाओं में बंट गया कि बिहार का विकास कैसे होगा? जातिवादी राजनीति की गिरफ्त की चपेट में ​नीतीया बहुत पहले आ गए थे अब उनके लिए एक निराशाजनक सवाल उठ खड़ा हुआ है, क्या मुफ्तखोरी जातिगत पहचान पर भारी पड़ेगी या नीतीश कुमार पर?

कहां खो गया सुशासन का 'पोस्टर बॉय'

दरअसल, बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार कभी शासन-संचालित और अपराध-विरोधी राजनीति के पोस्टर बॉय के रूप में जाने जाते थे. अब अपने लंबे और उतार-चढ़ाव भरे राजनीतिक करियर के अंतिम पड़ाव में प्रासंगिक बने रहने के लिए वह मुफ्त बिजली, नकद अनुदान और युवाओं के लिए एक करोड़ सरकारी नौकरियों के रूप में रियायतों पर दांव लगा रहे हैं.

जेडीयू नेता ने 'फ्री की रेवड़ी' पर क्या कहा?

सीएम नीतीश कुमार के इस रुख पर जनता दल यूनाइटेड के नेता एक सवाल के जवाब में कहा कि नीतीश कुमार को दूसरों की तरह मुफ्त सुविधाओं की घोषणा करने की कभी जरूरत नहीं पड़ेगी और एनडीए गठबंधन 'विकास परियोजनाओं की लहर' पर सवार होकर और 'जंगल राज का अंत' करने के लिए राज्य चुनाव में तेजी से आगे बढ़ेगा.

नीतीश की चिंता 'स्ट्राइक रेट'

नीतीश कुमार की पॉलिटिक्स को देखते हुए एक अहम सवाल यह है कि लगभग पांच महीने पहले नीतीश कुमार ने मुफ्त बिजली, वित्तीय सहायता और अन्य मुफ्त सुविधाओं की घोषणा की तो, क्या बदला? ​बिहार बीजेपी के नजरिए से देखें तो बिहार में जातिगत समीकरणों के कई सर्वेक्षणों और विश्लेषणों ने गठबंधन को आश्वस्त किया कि सत्ता विरोधी लहर, जातिगत कारकों, मुस्लिम वोटों और कुछ नीतिगत फैसलों के कारण जेडीयू का 'स्ट्राइक रेट' प्रभावित हो सकता है. भाजपा नेता ने कहा, "मुफ्त सुविधाएं अब इस मौसम का चलन बन गई हैं, लेकिन यह कोई घोषणापत्र नहीं है. ये सरकार के नीतिगत फैसलों का हिस्सा हैं."

क्या इससे नीतीश कुमार स्ट्राइक रेट सुधार लेंगे? इसके जवाब में उन्होंने कहा कि सच यह है कि आखिरी मिनट में किया गया यह प्रयास उस राज्य की पटकथा बदल देगा, जहां उनकी जेडीयू लड़खड़ाती दिख रही है. जमीन इतनी तेजी से बदल रही है कि वह खुद को संभाल नहीं पा रहे हैं?

विश्वास की कमी सबसे बड़ी बाधा

दरअसल, जेडीयू अब एक ऐसी पार्टी है जो दिशाहीन दिखाई देने लगी है. उसकी हताशा साफ दिखाई दे रही है. भाजपा के एक सूत्र ने बताया कि जेडीयू के कार्यकर्ता अब बेचैन हैं. कई नेताओं ने पाला बदल लिया है और पार्टी के संदेश में कुछ क्षेत्रों में सामंजस्य का अभाव है. बार-बार राजनीतिक उलटफेर के बाद नीतीश की अपनी विश्वसनीयता को धक्का लगा है. पहले भाजपा का साथ देना, फिर राजद-कांग्रेस गठबंधन के साथ फिर से जुड़ना और फिर एनडीए खेमे में वापस लौट जाना. यह विश्वास की कमी शायद उनके सामने सबसे बड़ी बाधा है, न कि मुफ़्त चीज़ें.

सुलझा पाएंगे जाति का पेंच!

नीतीश कुमार ने इस बार लक्षित लाभों के साथ गैर-यादव ओबीसी, महिलाओं और महादलितों का एक नया गठबंधन बनाने की कोशिश की है, लेकिन ग्रामीण बिहार में जातिगत नेटवर्क और स्थानीय क्षत्रपों की ताकत अभी भी कायम है. इस अस्थिर माहौल में, मुफ्त सुविधाएं एक रास्ता लग सकती हैं, लेकिन नीतीश कुमार का यह दांव उनके सुधारवादी राजनीति के बिल्कुल विपरीत है जो कभी संरक्षण की राजनीति से ऊपर उठ गया था. साल 2025 तक आते आते उनकी राजनीति में थकान आने लगी है. जबकि बिहार एक ऐसे नेतृत्व की तलाश जो उसे इससे बाहर निकाल सके.

बिहारबिहार विधानसभा चुनाव 2025
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