बिहार के इस गांव का नाम कैसे पड़ा 'लाल सलाम'? नक्सलियों से रहा नाता, दिलचस्प है किस्सा
Lal Salam Village Story: बिहार के एक गांव का नाम लाल सलाम है. यह गांव गया जिले में टनकुप्पा रेलवे स्टेशन के नजदीक स्थित है. गांव का नाम लाल सलाम कैसे पड़ा और इसका नक्सलियों से क्या नाता रहा है, इसका भी एक बेहद दिलचस्प किस्सा है. आइए, इस बारे में जानते हैं.
Lal Salam Village Story: लाल सलाम... यह क्या है? एक नारा या कुछ और... अगर हम आपसे कहें कि लाल सलाम एक गांव है तो क्या आप भरोसा करेंगे? लेकिन यह सच है. यह गांव बिहार के गया जिले में स्थित है, जो सामंती सामाजिक व्यवस्था, नक्सलवाद और हिंसा के खिलाफ दशकों के संघर्ष का गवाह रहा है. यह गांव गया शहर से महज 20 किलोमीटर दक्षिण-पूर्व में स्थित है. टनकुप्पा रेलवे स्टेशन भी इस गांव के नजदीक पड़ता है.
'टेलीग्राफ' की रिपोर्ट के मुताबिक, नवां गांव के रहने वाले 82 साल के बुजुर्ग बैजनाथ भारती ने बताया कि लाल सलाम गांव को पहले रैनपुरी के नाम से जाना जाता था, लेकिन 1984 में नक्सलियों ने अपने एक कमांडर के मारे जाने पर उसकी याद में यहां स्मारक बनवाया और फिर गांव का नाम बदलकर लाल सलाम रख दिया. यह नाम काफी लोकप्रिय है.
रमाशंकर लाल पर रखा गया गांव का नाम
नवा गांव लाल सलाम के साथ ही बरसौना पंचायत का हिस्सा है. इन इलाकों में नक्सलवाद का लंबे समय तक प्रभाव रहा. बैजनाथ ने बताया कि वे भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (CPI) के गया जिला कमेटी के सदस्य हैं. इसके साथ ही, वे रमाशंकर लाल के दोस्त भी हैं, जिनके नाम पर लाल सलाम का नाम रखा गया है.
जमींदार ने रमाशंकर के छोटे भाई पर ढाया सितम
रिपोर्ट के मुताबिक, रमाशंकर के छोटे भाई ने 1980 के दशक की शुरुआत में बेटी की शादी के लिए इलाके के एक जमींदार से कुछ चीनी उधार ली थी. उस समय इसकी कीमत करीब 25 रुपये थी, लेकिन जब उन्होंने इसे चुकाना चाहा तो जमींदार ने ब्याज समेत 2200 रुपये की रकम मांगी और धमकी दी कि अगर उन्होंने पैसे नहीं चुकाए तो वह उनकी खेती की जमीन ले लेंगे. उन्होंने इस अनुचित मांग का विरोध किया और वे इसे पूरा करने के लिए आर्थिक रूप से भी संपन्न नहीं थे, जिसके बाद जमींदार के गुंडों ने रमाशंकर के छोटे भाई को एक रेलवे क्रॉसिंग के गेट पर बांध दिया और उसे पीटा, ताकि आम लोगों में डर पैदा हो.
'रॉबिनहुड थे रमाशंकर'
बैजनाथ ने बताया कि रमाशंकर सीपीआई का सदस्य भी था, लेकिन घटना के बाद वह निराश होकर मेरे पास आया और बताया कि वह नक्सलियों में शामिल होने जा रहा है, क्योंकि उसका सिस्टम से भरोसा उठ गया है. कुछ ही महीनों में उसका नाम लोगों के मुद्दों के कट्टर समर्थक के रूप में हर जगह फैल गया. वह कमज़ोर लोगों की मदद करता रहा और पुलिस उसे खोजती रही. वर्षों बीत गए और रमाशंकर की छवि क्षेत्र के लोगों के बीच रॉबिनहुड की बन गई.
'हमारे लिए मसीहा थे रमाशंकर'
टंकप्पा के किसान धर्मेंद्र कुमार ने कहा कि अगर किसी गरीब व्यक्ति के साथ किसी तरह की गलत हरकत की खबर मिलती तो रमाशंकर और उनके लोग दौड़े चले आते. उनके आते ही सामंती लोग भाग जाते हैं. वे हमारे लिए मसीहा थे.
20 मार्च 1984 को खुद को मारी गोली
हालांकि, 20 मार्च 1984 को जब रमाशंकर रैनपुरी स्थित एक घर में घुस रहे थे तो पुलिस ने उन्हें घेर लिया.पकड़े जाने से बचने के लिए उन्होंने खुद को गोली मारकर ली. रमाशंकर के बड़े बेटे उदय कुमार सिन्हा उस समय 10 साल के थे. अब उदय बोधगया में पर्यटक गाइड के रूप में काम करते हैं.
'गांव में अब अच्छी सड़कें हैं'
उदय कुमार सिन्हा ने बताया कि मेरे पिता के शहीद होने के कुछ सप्ताह बाद एक शाम नक्सलियों की एक बड़ी टुकड़ी आई. उन्होंने उनके लिए एक स्मारक बनाया, गोलियां चलाईं, लड्डू बांटे और उस जगह का नाम लाल सलाम घोषित कर दिया. गांव में अब अच्छी सड़कें हैं. लोग बुनियादी स्वच्छता बनाए रखते हैं. कई दुकानें खुल गई हैं और पंजाब नेशनल बैंक का ग्राहक केंद्र भी वहां सेवाएं प्रदान कर रहा है.
'मेरे पिता गरीबों और दलितों के लिए जिए और मरे'
उदय ने कहा कि हम ऊंची जातियों से थे, लेकिन मेरे पिता गरीबों और दलितों के लिए जिए और मरे. वह सामंतवाद के खिलाफ थे और इसे बदलने के लिए उन्होंने अपना योगदान दिया. उनके जाने के बाद भी सरकार इस जगह की अनदेखी नहीं कर सकी और गांव का विकास हुआ.
'मेरे पिता के कामों की वजह से लोग हमारा सम्मान करते हैं'
उदय ने कहा कि मेरी पिता के कामों की वजह से इलाके के लोग हमारा सम्मान करते हैं. मेरी मां 2001 में पंचायत समिति सदस्य चुनी गई थीं. 2018 में अपनी मौत तक वह गांव में ही रहीं. मैं जिला परिषद का चुनाव लड़ने की योजना बना रहा हूं. मैं अपने पिता की तरह लोगों के लिए काम करने की कोशिश करूंगा.
'नक्सलियों के खिलाफ जारी है अभियान'
हालांकि, पुलिस अभी भी लाल सलाम को लेकर थोड़ी सतर्क है. गया के अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक (एएसपी) अनवर जावेद ने बताया कि पिछले कुछ सालों में यह जगह काफी बदल गई है, लेकिन इतिहास में खूंखार इलाके के तौर पर इसका इतिहास रहा है. इसलिए यह अभी भी थोड़ा संवेदनशील है. जावेद ने बताया कि नक्सलियों का प्रभाव कम हो गया है, लेकिन उनमें से कुछ अभी भी बचे हुए हैं और उनके खिलाफ हमारा अभियान जारी है.





