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बिहार चुनाव 2025: नीतीश कुमार के लिए दोधारी तलवार बनी शराबबंदी - महिलाएं हैं साथ, पर मर्दों की नाराज़गी गहरी

बिहार विधानसभा चुनाव 2025 में नीतीश कुमार की दारूबंदी नीति सबसे बड़ा चुनावी मुद्दा बन गई है. 2016 में लागू हुई इस शराबबंदी ने जहां महिलाओं का भरोसा और समर्थन दिलाया, वहीं पुरुषों में गहरी नाराज़गी पैदा की है. इंडियन एक्‍सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार ग्रामीण इलाकों में महिलाएं इसे “घर की शांति” से जोड़ती हैं, जबकि पुरुष इसे “गरीबों की सज़ा” और “आर्थिक नुकसान” मानते हैं. सामाजिक बदलावों के बावजूद, तस्करी, पुलिस की मनमानी और राजस्व हानि ने इस नीति की साख पर सवाल खड़े किए हैं.

बिहार चुनाव 2025: नीतीश कुमार के लिए दोधारी तलवार बनी शराबबंदी - महिलाएं हैं साथ, पर मर्दों की नाराज़गी गहरी
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प्रवीण सिंह
Edited By: प्रवीण सिंह

Published on: 10 Nov 2025 10:07 AM

बिहार में मुजफ्फरपुर जिले के बूढ़ी गंडक नदी के किनारे बसे रेवा गांव में 35 वर्षीय ललन सहनी अपने दोस्तों के साथ घर के बाहर बैठे हैं. चर्चा का विषय है - मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की शराबबंदी नीति, जिसने उनके अनुसार, “पूरा बिहार तबाह कर दिया है.” ललन कहते हैं, “नीतीश कुमार ने बहुत काम किए हैं, लेकिन ये एक गलती है. शराब आज भी मिलती है, बस महंगी हो गई है. जो पीते हैं, वो जेल चले जाते हैं. नुकसान सिर्फ गरीबों को है.” उनके दोस्त भी हामी भरते हैं.

लेकिन तभी घर के भीतर से 50 वर्षीय आशा देवी गुस्से में बाहर निकलती हैं - “बस यही करना है, पीकर पड़े रहो. अब मार खाओगे!” वो कहती हैं, “नीतीश कुमार ने ठीक किया. पहले मर्द नशे में घर आते थे, खाना फेंकते थे, लड़ाई करते थे. अब घर में शांति है. पहले मेरा पति भैंस खरीदने की बात करता था, सुबह तक बकरी भी नहीं खरीद पाता था!”

सीवान जिले के हुसैनगंज में यूट्यूबर मुन्‍ना मतलबी जब यह कहते हैं कि “शराबबंदी हट जानी चाहिए,” तो उनकी पत्नी भी झिड़क देती हैं. दरअसल, पूरा बिहार इस मुद्दे पर लिंग आधारित विभाजन (gender divide) का सामना कर रहा है. जहां ज्यादातर पुरुष - जाति और वर्ग की परवाह किए बिना - शराबबंदी खत्म करने की मांग कर रहे हैं, वहीं बड़ी संख्या में महिलाएं इसे “घर की शांति” से जोड़कर नीतीश कुमार का समर्थन कर रही हैं. नीतीश का यह फैसला अब उनके लिए चुनावी रण में एक दोधारी तलवार बन गया है. शराबबंदी ने महिलाओं को उनके पक्ष में खड़ा कर दिया है, लेकिन इससे पुलिस की मनमानी, तस्करी और राजस्व के नुकसान ने सरकार की नैतिक छवि को चोट पहुंचाई है.

महिलाओं के लिए वरदान, पुरुषों के लिए सज़ा

रेवा गांव की कुएं के पास चार महिलाएं बातचीत कर रही हैं. पुष्पा देवी कहती हैं, “नीतीश जी ने अच्छा किया, लेकिन यह पूरी तरह लागू होना चाहिए. देसी शराब भी बंद होनी चाहिए.” उनकी साथी सुनीता देवी जोड़ती हैं, “पहले मर्द शराब पीकर सड़कों पर गिरते थे, हादसों में मर जाते थे. अब ऐसा नहीं होता. घर का पैसा बचता है, बच्चे संभल रहे हैं.” 2016 में लागू हुई बिहार की शराबबंदी नीति (Prohibition Policy) ने सामाजिक स्तर पर कई बदलाव लाए. घरेलू हिंसा कम हुई, परिवार की आय में सुधार आया और कई महिलाओं को नीतीश में “घर की इज्जत लौटाने वाले नेता” के रूप में देखने लगीं.

लेकिन दूसरी ओर, इसी नीति ने प्रशासनिक और आर्थिक मोर्चे पर गंभीर सवाल खड़े किए हैं. राज्य को शराब से मिलने वाला हजारों करोड़ रुपये का उत्पाद शुल्क (excise revenue) बंद हो गया, जबकि काला बाजार और तस्करी का नेटवर्क और मजबूत हुआ.

राजनीतिक मोर्चे पर बढ़ा तनाव

शराबबंदी के मुद्दे ने बिहार के राजनीतिक परिदृश्य को भी दो हिस्सों में बांट दिया है. जहां जेडीयू (JDU) इसे “नैतिक सुधार” बताकर बचाव कर रही है, वहीं सीपीआई(एमएल) और प्रशांत किशोर की जनसुराज पार्टी खुले तौर पर कह चुकी हैं कि सत्ता में आने पर वे इस कानून को खत्म करेंगी. गोपलगंज जिले के भोर विधानसभा क्षेत्र के बसुदेवा गांव में शिवशंकर चौहान और मुकेश चौहान - दोनों नोनिया (EBC) समुदाय से हैं - अपनी नाराज़गी नहीं छिपाते. शिवशंकर कहते हैं, “नीतीश जी ने सड़क, बिजली सब किया, लेकिन दारूबंदी ने सब बिगाड़ दिया. जेलें गरीबों से भरी हैं. अगर कंट्रोल करना है, तो लाइसेंस देकर शराब बेचो.” उसी गांव की सुमित्रा देवी और पूजा देवी कहती हैं, “जो पीना चाहता है, वो अब भी पीता है, लेकिन यह सबसे अच्छा फैसला था. घर के झगड़े कम हुए हैं, बच्चे शराब से दूर हैं. अब कानून का डर तो है, यही बहुत है.”

गरीबों के लिए ‘विकास’ या ‘व्‍यंग्य’?

पश्चिम चंपारण जिले के मुसहर टोला में छट्टू राम कहते हैं, “सरकार से बहुत फायदा हुआ है – पहले जो दारू 25 रुपये की मिलती थी, अब 200 की मिलती है. यही विकास है!” फिर गंभीर होकर जोड़ते हैं, “दारू चाहिए, पर जेल नहीं जाना. अगली सरकार को कुछ सोचना चाहिए.” इसी गांव की कलीता देवी को मुख्यमंत्री महिला रोजगार योजना (MMRY) के तहत चुनाव से ठीक पहले घोषित ₹10,000 की सहायता अभी तक नहीं मिली है. वह कहती हैं, “मैं तो नहीं पीती, पर जो पीते हैं, वही मरते हैं. जहरीली शराब से मौतें हो रही हैं, सरकार को जिम्मेदारी लेनी चाहिए.” सीवान के आनंद बाजार में दुकानदार गोलू कुमार का कहना है, “नीतीश जी कहते हैं जो पिएगा वो मरेगा, लेकिन सरकार जवाबदेह क्यों नहीं है? लोग अब ज़्यादा पैसा देकर शराब खरीदते हैं, फायदा सिर्फ तस्करों और पुलिस को होता है.”

भावनात्मक मुद्दा बन चुका है दारूबंदी

बिहार में 2025 के विधानसभा चुनाव के दौरान यह साफ दिख रहा है कि दारूबंदी अब सिर्फ एक कानून नहीं, बल्कि भावनात्मक और सामाजिक मुद्दा बन चुका है. इसने परिवारों को बांट दिया है - एक ओर महिलाएं हैं, जो इसे घर की शांति और सुरक्षा का प्रतीक मानती हैं, दूसरी ओर पुरुष हैं, जो इसे आर्थिक और व्यक्तिगत आज़ादी पर हमला समझते हैं. राजनीतिक रूप से देखें तो यह मुद्दा नीतीश कुमार की सबसे बड़ी चुनौती बन चुका है. उनका वोट बैंक, जो कभी “सुशासन बाबू” के नाम से एकजुट था, अब ‘दारूबंदी बनाम आज़ादी’ की बहस में बंट चुका है. बीजेपी, जेडीयू, जनसुराज और सीपीआई(एमएल) - सभी दल जानते हैं कि इस बार बिहार की शराबबंदी सिर्फ कानून नहीं, बल्कि हर घर का चुनावी एजेंडा बन चुकी है. जहां एक तरफ नीतीश इसे अपनी “नैतिक विरासत” मानकर बचा रहे हैं, वहीं दूसरी तरफ यह वही नीति है जो उनके राजनीतिक भविष्य को डांवाडोल कर सकती है.

बिहार विधानसभा चुनाव 2025नीतीश कुमार
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