बिहार में वोटर लिस्ट से 65 लाख नाम OUT! दस्तावेज़ों के जाल में फंसे मतदाता, खतरे में है वोट देने का हक़?
बिहार में विधानसभा चुनाव से पहले वोटर लिस्ट से 65 लाख नाम हटाए जा रहे हैं. चुनाव आयोग की SIR प्रक्रिया पर विपक्ष भड़का है. दस्तावेज़ों की सख्ती, गरीबों की परेशानी और सुप्रीम कोर्ट में जारी सुनवाई ने इस मुद्दे को संवेदनशील बना दिया है. क्या लोकतंत्र की नींव पर खतरा मंडरा रहा है?
24 जून 2025 को चुनाव आयोग ने देशभर में विशेष गहन पुनरीक्षण (SIR) की घोषणा की, लेकिन इसकी शुरुआत बिहार से की गई क्योंकि राज्य में नवंबर 2025 में विधानसभा चुनाव प्रस्तावित हैं. आयोग ने कहा कि यह प्रक्रिया मतदाता सूची को अपडेट और शुद्ध करने के उद्देश्य से की जा रही है ताकि अपात्र नाम हटाए जा सकें और पात्र नागरिकों को जोड़ा जा सके.
26 जुलाई को समाप्त पहले चरण में चुनाव आयोग को 7.89 करोड़ में से 7.23 करोड़ गणना फॉर्म मिले. आयोग ने स्पष्ट किया कि करीब 65 लाख मतदाताओं के नाम हटाए जाएंगे जिनमें 22 लाख मृत, 36 लाख स्थायी रूप से पलायन कर चुके, और 7 लाख डुप्लिकेट या ग़ैर-पहचान वाले नाम शामिल हैं. इससे यह सवाल उठा कि क्या ये लोग सही मायनों में अपात्र थे या दस्तावेज़ों की कमी का शिकार?
दस्तावेज़ की सख्ती बना विवाद का केंद्र
आयोग द्वारा मान्य 11 दस्तावेज़ों में आधार, राशन कार्ड और वोटर ID शामिल नहीं हैं, जबकि जाति प्रमाण पत्र, मैट्रिक सर्टिफिकेट, पासपोर्ट और जन्म प्रमाण पत्र को जरूरी बताया गया है. इससे ग्रामीण और गरीब तबके के मतदाताओं को विशेष दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है. आलोचकों का आरोप है कि यह सख्ती कई वास्तविक मतदाताओं को सूची से बाहर कर सकती है.
स्वयंसेवकों की तैनाती राहत या दिखावा?
चुनाव आयोग ने कहा कि दस्तावेज़ जुटाने में मदद के लिए वरिष्ठ नागरिकों, दिव्यांगों और अन्य कमजोर वर्गों को स्वयंसेवकों की सहायता दी जाएगी. लेकिन ज़मीनी हकीकत में ये पहल कितनी कारगर होगी, इस पर संदेह बना हुआ है. स्वयंसेवकों की संख्या, प्रशिक्षण और पहुंच को लेकर भी आयोग ने स्पष्ट जानकारी नहीं दी है.
लोकतंत्र की परीक्षा
विपक्षी दलों ने इसे 'छुपा हुआ NRC' करार देते हुए आरोप लगाया कि इससे अल्पसंख्यक, दलित और पिछड़ा वर्ग मुख्य रूप से प्रभावित होगा. आरजेडी, कांग्रेस और वाम दलों ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की, जिसमें कहा गया कि चुनाव आयोग का आदेश जनप्रतिनिधित्व अधिनियम और मतदाता पंजीकरण नियमों का उल्लंघन है.
सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में संशोधन प्रक्रिया
10 जुलाई से सुप्रीम कोर्ट इस प्रक्रिया की संवैधानिकता की सुनवाई कर रहा है. याचिकाकर्ताओं का कहना है कि SIR आदेश न तो अधिनियम में है और न ही पंजीकरण नियमों में. अदालत आयोग से यह स्पष्टिकरण मांग रही है कि क्या यह प्रक्रिया न्यायसंगत है और क्या यह मतदाता अधिकारों का हनन नहीं करती?
कागज़ी कार्रवाई में उलझा हक
ग्रामीण इलाकों और शहरी झुग्गी बस्तियों में रहने वाले लोगों के लिए जरूरी दस्तावेज़ प्राप्त करना आसान नहीं है. जन्म प्रमाणपत्र या मैट्रिकुलेशन सर्टिफिकेट जैसे कागज़ात बहुत से लोगों के पास नहीं हैं. इसके चलते उन्हें या तो एजेंट्स को पैसा देना पड़ रहा है या फिर सरकारी दफ्तरों के चक्कर काटने पड़ रहे हैं.
पारदर्शिता और संतुलन जरूरी
यदि ये 65 लाख नाम अंतिम रूप से हटा दिए जाते हैं, तो यह 2025 के बिहार विधानसभा चुनाव के नतीजों को गहराई से प्रभावित कर सकता है. इस प्रक्रिया में पारदर्शिता और अपील की सुविधा बनी रहनी चाहिए, नहीं तो मतदाता विश्वास और चुनावी वैधता पर सवाल खड़े हो सकते हैं.
चुनाव आयोग ने क्या दी सफाई?
आयोग ने कहा कि बिना सूचना और आदेश के कोई भी नाम सूची से नहीं हटेगा. साथ ही अपील करने के लिए जिला मजिस्ट्रेट और मुख्य निर्वाचन अधिकारी तक की व्यवस्था होगी. इसके लिए मानक प्रारूप भी जारी किया जाएगा और स्वयंसेवकों को अपील की प्रक्रिया सिखाई जाएगी.
मतदाता सूची सुधार या लोकतंत्र पर वार?
चुनाव आयोग का कदम तकनीकी रूप से सुधार की दिशा में हो सकता है, लेकिन जिस तरह से यह लागू किया गया है, वह विवादित हो गया है. आयोग को यह सुनिश्चित करना होगा कि कोई भी पात्र नागरिक सूची से वंचित न हो. नहीं तो यह प्रक्रिया मतदाता अधिकारों की हत्या के रूप में देखी जाएगी.





