दिलीप सरदेसाईः 1971 के वेस्ट इंडीज़ दौरे का वो आइकोनिक प्रदर्शन जिसने टीम इंडिया की दिशा बदल दी
1971 के वेस्ट इंडीज़ दौरे में दिलीप सरदेसाई ने संकट में फंसी भारतीय टीम को तीन शानदार शतकों और कुल 642 रनों से संभाला. उनकी ठोस बल्लेबाज़ी और आत्मविश्वास ने युवा सुनील गावस्कर सहित पूरी टीम को मजबूती दी, जिससे भारत ने पहली बार विदेशी ज़मीन पर टेस्ट सिरीज़ जीती. उनकी बल्लेबाज़ी तकनीक, विशेषकर फ़्लिक शॉट में उनकी महारथ, ने उन्हें 'सारदी मान' बना दिया. कप्तान अजित वाडेकर के भरोसे ने उनके अनुभव को ऐतिहासिक जीत में बदल दिया.

"1971 में वेस्ट इंडीज़ के तेज़ गेंदबाज़ों का सामना कैसे करना है, उन्होंने सिखाया. इससे वो आत्मविश्वास मिला जो वेस्ट इंडीज़ को उनकी ही धरती पर हराने के लिए चाहिए था." सुनील गावस्कर ने ये दिलीप सरदेसाई के बारे में अपनी किताब 'सनी डेज़' में लिखा है. उस सिरीज़ में डेब्यू कर रहे गावस्कर ने चार टेस्ट शतकों समेत 774 रन बनाए (जो कि आज भी एक वर्ल्ड रिकॉर्ड है.) गावस्कर पहला टेस्ट नहीं खेले. जहां भारत का शुरुआती स्कोर पांच विकेट पर 75 रन था.
तब ये दिलीप नारायण सरदेसाई ही थे जिन्होंने एकनाथ सोलकर के साथ 137 रन और ईएएस प्रसन्ना के साथ 122 रनों की साझेदारी निभाई और ख़ुद 212 रन बनाए जिससे भारत 387 रनों का पहाड़ खड़ा कर सका. पहले ही मैच में भारत को हराने के लिए तैयार वेस्ट इंडीज़ की टीम को ड्रॉ से संतोष करना पड़ा.
उस सिरीज़ में गावस्कर के कारनामे की चर्चा तो हमेशा होती है, पर दिलीप सरदेसाई ने भी तीन शतकों और 80.25 की औसत से जो 642 रन बनाए उनका भारत की उस ऐतिहासिक जीत में उतना ही महत्वपूर्ण किरदार था. उस दौरे पर टीम इंडिया में तेज़ गेंदबाज़ देवराज गोविंदराज को भी शामिल किया गया था, जो सीके नायडू के भतीजे थे. हालांकि उन्हें एक भी टेस्ट मैच खेलने का मौक़ा नहीं मिला. पर एक इंटरव्यू में उन्होंने ने भी गावस्कर की बात से सहमति जताई कि, "उस दौरे पर अधिकतर मैच की शुरुआत में ही वेस्ट इंडीज़ के खिलाड़ियों से गावस्कर का कैच छूटा था. जबकि दूसरे छोर से दिलीप सरदेसाई बिल्कुल चट्टान की तरह टिक कर खेले. वो ज़बरदस्त थे. उनकी बैटिंग ने पूरी टीम को आत्मविश्वास से भर दिया था."
वेस्ट इंडीज़ वाले प्यार से बुलाते थे- सारदी मान
8 अगस्त 1940 को गोवा के मरगांव में पैदा हुए दिलीप नारायण सरदेसाई को अगर 1971 में वेस्ट इंडीज़ में मिली उस जीत का वास्तुकार कहा जाए जो भारत ने पहली बार विदेशी पिच पर हासिल की थी, तो यह अतिश्योक्ति नहीं होगी. 70-80 के दशक में वेस्ट इंडीज़ में क्रिकेट अपने चरम पर था और वहां आ कर अच्छा प्रदर्शन करने वाले क्रिकेटरों को उन्हें सम्मान देना भी बखूबी आता था. यही कारण है कि अपनी कलाइयों के इस्तेमाल से क्रिकेट खेलने के माहिर दिलीप सरदेसाई को तब वेस्ट इंडीज़ के क्रिकेटरों ने प्यार से सारदी मान (Sardee Maan) के नाम से पुकारना शुरू कर दिया था. गावस्कर कहते हैं, "दिलीप सरदेसाई की एक बड़ी खूबी यह थी कि वह हमेशा बहुत सकारात्मक रहते थे, और पूरी टीम को उस दौरे पर उन्होंने सकारात्मक रहना सिखाया."
संकटमोचन बने सरदेसाई
उस दौरे के दूसरे टेस्ट में गावस्कर ने टेस्ट में डेब्यू किया और दोनों पारियों में 65 और नाबाद 67 रन बनाए. भारत ने वेस्ट इंडीज़ में पहली बार जीत हासिल की. पर आज के बहुत कम लोगों को ये पता होगा कि ये दिलीप सरदेसाई ही थे जिनकी 112 रनों की ठोस पारी ने ही पहली पारी में बढ़त बना कर भारत की जीत की नींव रखी थी. अगला टेस्ट जॉर्जटाउन में हुआ, जहां गावस्कर ने उस दौरे पर जमाए गए चार शतकों में से पहला शतक जमाया. सरदेसाई ने 45 रन बनाए और मैच ड्रॉ समाप्त हुआ.
ब्रिजटाउन, बारबाडोस में खेले गए चौथे टेस्ट में वेस्ट इंडीज़ ने पांच विकेट पर 501 रन बनाए, जवाब में भारत एक बार फिर पहले टेस्ट की तरह ही भारत के छह बल्लेबाज़ केवल 70 रन बनने तक पवेलियन लौट गए तब फिर ये दिलीप सरदेसाई ही थे जिन्होंने एकनाथ सोलकर के साथ 186 रन और अंतिम खिलाड़ी बिशन सिंह बेदी के साथ 62 रनों की साझेदारी निभाई. अंतिम बल्लेबाज़ के रूप में आउट होने से पहले सरदेसाई ने उस टेस्ट मैच में 150 रन बनाए. छह घंटे तक पिच पर जम कर टीम इंडिया को फ़ॉलोऑन से बचाया. दूसरी पारी में गावस्कर ने शतक जमा कर यह सुनिश्चित किया कि वेस्ट इंडीज़ पांचवें और अंतिम दिन जीत न सके.
ड्रॉ रहे अंतिम टेस्ट मैच में भी सरदेसाई ने 75 रनों की पारी खेली, जहां गावस्कर ने 124 और 220 रन बनाए थे. वेस्ट इंडीज़ के उस दौरे पर सरदेसाई बेहद शानदार फ़ॉर्म में थे. पिच पर वो बेहद संयम के साथ बल्लेबाज़ी करते और वेस्ट इंडीज़ के तूफ़ानी गेंदबाज़ों के सामने पिच पर एक मजबूत चट्टान की तरह जम जाते. तीन शतकों समेत बनाए गए 642 रन उनके उस दौरे पर दिए गए योगदान की बखूबी गवाही देते हैं.
फ़्लिक करने की कला के धनी थे सरदेसाई
बैटिंग करने की दिलीप सरदेसाई की तकनीक और कलाई के दम पर गेंद को फ़्लिक करने की कला में उनकी महारथ ऐसी थी कि कई सालों तक किसी भी टेस्ट सिरीज़ के शुरू होने से पहले ही उनका चुना जाना एकदम पक्का माना जाता रहा. 1960 में भारत आए पाकिस्तान की टीम के ख़िलाफ़ अभ्यास मैच में 87 रनों की पारी की बदौलत उन्होंने बॉम्बे की टीम में अपनी जगह बनाई. एक साल बाद ही टेस्ट टीम में इंग्लैंड के ख़िलाफ़ कानुपर टेस्ट के लिए उन्हें चुना गया, जहां टोनी लॉक की गेंद पर हिट विकेट आउट होने से पहले उन्होंने 28 रन बनाए. इसके बाद 1961-62 में वेस्ट इंडीज़ गए और सरदेसाई ही नहीं पूरी भारतीय टीम ने ख़राब प्रदर्शन किया. इसके तुरंत बाद सरदेसाई ने भारत में इंग्लैंड के ख़िलाफ़ टेस्ट पांच टेस्ट में पांच अर्धशतक जमाए, पर ऑस्ट्रेलिया के ख़िलाफ़ बतौर ओपनर रन जुटाने में नाकाम रहे और फिर जब न्यूज़ीलैंड के ख़िलाफ़ भी पहले टेस्ट में उनका बल्ला नहीं चला तो दूसरे टेस्ट के लिए उन्हें प्लेइंग इलेवन में जगह नहीं दी गई.
प्रदर्शन में लगातार उतार-चढ़ाव देखने को मिला
तीसरे टेस्ट में सरदेसाई वापस लाए गए तो वो बेहद दबाव में थे. केवल चार रन बना सके और टीम इंडिया सिर्फ़ 88 रनों पर सिमट गई. लेकिन जब दोबारा बैटिंग के लिए उतरे तो वो जानते थे कि ये उनकी आख़िरी पारी हो सकती है और भाग्य ने भी उनका भरपूर साथ दिया. 20 रन पर कैच टपका तो उन्होंने 548 मिनटों तक एक मैराथन पारी खेलकर नाबाद 200 रन बना दिए जो कि पिछले 14 टेस्ट मैचों में उनका पहला शतक था. अगले टेस्ट में फिर उन्होंने तेज़ 106 रन बनाए. लेकिन जल्द ही उन्हें दोबारा टीम से बाहर कर दिया गया क्योंकि जब वेस्ट इंडीज़ और इंग्लैंड की टीम भारत आई तो वो बुरी तरह फ़्लॉप रहे और जब 1967-68 में ऑस्ट्रेलिया गए तो उन्होंने चार पारियों में केवल 18 रन बनाए.
पर इतिहास बनना था, तो मिला कप्तान का साथ
1968-69 में जब ऑस्ट्रेलियाई टीम भारत आई तो सरदेसाई वापस टीम में लाए गए पर उन्होंने 20 और 03 का स्कोर बनाया जिससे एक बार फिर बाहर बिठा दिए गए. उनकी जगह पर जिस शख़्स को टीम में जगह दी गई उन्होंने शुरुआत तो शून्य से की पर दूसरी पारी में 137 का स्कोर बना डाला. इसके साथ ही सरदेसाई की तरह ही कलाई के खेल के धनी गुंडप्पा विश्वनाथ का भारतीय खेल के पटल पर आगमन हो चुका था. जो सरदेसाई की तरह ही पारी की शुरुआत करते थे, तो लगा कि टीम में उनकी जगह समाप्ति की ओर बढ़ रही है. हालांकि, उन्हें अपने बॉम्बे के कप्तान का भरोसा मिला. अजित वाडेकर इसे लेकर स्पष्ट थे कि 1971 के वेस्ट इंडीज़ दौरे पर उन्हें दिलीप सरदेसाई के अनुभव चाहिए. चयनकर्ताओं के संदेहों के बावजूद वो अड़े रहे और उस दौरे पर दिलीप सरदेसाई को मध्यक्रम में उतारा गया और फिर जो हुआ वो इतिहास बन गया, जिसने भारतीय क्रिकेट की दिशा बदल कर रख दी.