Begin typing your search...

काजी और शरिया अदालतों के फैसले कानूनी नहीं, सुप्रीम कोर्ट ने किस मामले में सुनाया ये फैसला?

सुप्रीम कोर्ट ने दोहराया है कि 'काजी अदालत', 'दारुल कजा' और 'शरिया अदालत' जैसे निकायों को भारतीय कानून में कोई कानूनी मान्यता प्राप्त नहीं है. कोर्ट ने स्पष्ट किया कि इनके आदेश बाध्यकारी नहीं हैं. पारिवारिक न्यायालय द्वारा 'काजी अदालत' के समझौते पर भरोसा कर पत्नी का भरण-पोषण खारिज करने को सुप्रीम कोर्ट ने अस्वीकार कर दिया और महिला को 4000 रुपये मासिक भरण-पोषण देने का आदेश दिया.

काजी और शरिया अदालतों के फैसले कानूनी नहीं, सुप्रीम कोर्ट ने किस मामले में सुनाया ये फैसला?
X
नवनीत कुमार
Edited By: नवनीत कुमार

Published on: 29 April 2025 6:53 AM

सुप्रीम कोर्ट ने एक अहम फैसले में दोहराया है कि 'काजी अदालत', 'दारुल कजा' या 'शरिया अदालत' जैसे निकाय भारतीय कानून के तहत मान्यता प्राप्त नहीं है. न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया और न्यायमूर्ति अहसानुद्दीन अमानुल्लाह की पीठ ने स्पष्ट किया कि ऐसे निकायों के आदेश या फतवे कानूनी रूप से बाध्यकारी नहीं हैं और इन्हें बलपूर्वक लागू नहीं किया जा सकता.

न्यायालय ने 2014 के 'विश्व लोचन मदन बनाम भारत संघ' फैसले का हवाला देते हुए कहा कि शरिया अदालतें केवल सलाहकार निकाय की तरह काम कर सकती हैं. यदि कोई पक्ष स्वेच्छा से इन फैसलों को मानना चाहे तो कर सकता है, लेकिन यह भी तभी जब वे किसी मौजूदा भारतीय कानून का उल्लंघन न करें. इस मामले में, एक महिला ने अपने भरण-पोषण से जुड़े मामले में उच्च न्यायालय के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी.

फैमिली कोर्ट ने 'काजी कोर्ट' के फैसले पर किया था भरोसा

मामले में पारिवारिक न्यायालय ने अपने निर्णय का आधार 'काजी अदालत' में हुए कथित समझौते को बनाया था, जिसमें अपीलकर्ता-पत्नी को भरण-पोषण से वंचित कर दिया गया था. हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने इस आधार को पूरी तरह अस्वीकार करते हुए कहा कि ऐसे किसी भी निकाय के निर्णय को भारतीय न्यायिक व्यवस्था में कोई कानूनी दर्जा प्राप्त नहीं है.

सुप्रीम कोर्ट ने क्या कहा?

सुप्रीम कोर्ट ने पारिवारिक न्यायालय के इस तर्क को भी सिरे से खारिज कर दिया कि दूसरी शादी होने से दहेज की मांग की संभावना समाप्त हो जाती है. अदालत ने इसे "काल्पनिक और कानूनी रूप से निराधार" बताया और कहा कि इस प्रकार के तर्कों का कोई स्थान न्यायिक प्रक्रिया में नहीं होना चाहिए.

पत्नी के अधिकारों की अनदेखी

शीर्ष अदालत ने यह भी पाया कि पारिवारिक न्यायालय ने 2005 के समझौते की गलत व्याख्या की थी. समझौते में अपीलकर्ता-पत्नी द्वारा किसी गलती को स्वीकार करने का कोई प्रमाण नहीं था, बल्कि, यह दोनों पक्षों के शांतिपूर्ण साथ रहने की मंशा को ही दर्शाता था. इस आधार पर पत्नी की भरण-पोषण याचिका खारिज करना कानून के खिलाफ था.

पत्नी को 4000 रुपये मासिक देने का आदेश

नतीजतन, सुप्रीम कोर्ट ने पारिवारिक न्यायालय के फैसले को पलटते हुए पति को आदेश दिया कि वह पत्नी को 4000 रुपये प्रतिमाह का भरण-पोषण देगा. यह भुगतान उस तिथि से प्रभावी होगा जिस दिन से पत्नी ने मूल याचिका दायर की थी. कोर्ट का यह फैसला न केवल महिला के अधिकारों की सुरक्षा का उदाहरण है, बल्कि धार्मिक निकायों के आदेशों की सीमाओं को भी स्पष्ट करता है.

सुप्रीम कोर्ट
अगला लेख