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हिंदी पर फिर छिड़ी रार! अश्विन के समर्थन में उतरे BJP नेता, क्या है भारत में भाषाई लड़ाई का इतिहास?

Controversy over Hindi: अश्विन ने कहा था कि हिंदी भारत की राष्ट्रीय भाषा नहीं बल्कि आधिकारिक भाषा है. इसे लेकर एक बार फिर से भाषा की लड़ाई सुर्खियों में है. अश्विन के समर्थन में बीजेपी नेता अन्नामलाई भी सामने आए हैं.

हिंदी पर फिर छिड़ी रार! अश्विन के समर्थन में उतरे BJP नेता, क्या है भारत में भाषाई लड़ाई का इतिहास?
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Controversy over Hindi
सचिन सिंह
Edited By: सचिन सिंह

Published on: 11 Jan 2025 12:09 PM

Controversy over Hindi: भारत में दक्षिण और हिंदी को लेकर रार कोई नया नहीं है. समय - समय पर ये बस किसी बयान से सुर्खियों में आ जाता है. क्रिकेटर आर. अश्विन ने हाल में ही कहा कि हिंदी भारत की राष्ट्रीय भाषा नहीं बल्कि केवल एक आधिकारिक भाषा है. इसे लेकर जब बवाल हुआ तो साउथ में बीजेपी का बड़ा चेहरा माने जाने वाले बीजेपी नेता भी उनके समर्थक में उतर आए.

बीजेपी नेता अन्नामलाई से जब इस टिप्पणी को लेकर सवाल पूछा गया तो उन्होंने कहा, 'सही है, यह राष्ट्रीय भाषा नहीं है. केवल मेरे प्रिय मित्र अश्विन का ही ऐसा नहीं कहना है. यह राष्ट्रीय भाषा नहीं है. यह महज एक बातचीत की भाषा है और कहीं भी मैं या कोई भी यह नहीं कह रहा है कि हिंदी राष्ट्रीय भाषा है.'

एमके स्टालिन ने भी जताया था विरोध

तमिलनाडु के सीएम और DMK चीफ एमके स्टालिन ने भी पीएम मोदी को लेटर लिखकर गैर-हिंदी भाषी राज्यों पर हिंदी न थोपने की बात कही थी. उन्होंने कहा था कि भारत का संविधान किसी भी भाषा को राष्ट्रीय भाषा का दर्जा नहीं देता है. हिंदी और अंग्रेजी का उपयोग केवल आधिकारिक तौर पर जैसे कानून बनाने, न्यायपालिका और केंद्र सरकार और राज्य सरकारों के बीच कम्युनिकेशन के लिए किया जाता है.'

आजादी से पहले हिंदी का विरोध

अंग्रेजी सरकार ने साल 1938 में मद्रास के सरकारी स्कूलों में हिंदी को पढ़ना अनिवार्य किया था, जिसे लेकर विरोध शुरू हुआ और 1939 में राजगोपालाचारी को इस्तीफा देना पड़ गया. अंत में अंग्रेजी सरकार को ये आदेश वापस लेना पड़ा. हालांकि आजादी के बाद भी कई राज्यों में हिंदी थोपने का केंद्र पर आरोप लगा, जिसे हिंसक विरोध के बाद वापस लेना पड़ा. यहां हिंदी को लेकर विरोध 1940 तक लगातार चलता रहा.

आजादी के बाद हिंदी भाषा को लेकर लड़ाई

जब देश आजाद हो गया और संविधान में इसे लेकर चर्चा हुई कि हिंदी को राष्ट्रभाषा और देश की इकलौती भाषा के तौर पर स्वीकार की जाए, तो इसे लेकर भारत के दक्षिणी राज्यों में विरोध शुरू हो गया. इसके बाद संविधान सभा को भी इससे को इस फैसले से पीछे हटना पड़ा. ये भाषा की लड़ाई ही थी, जिसका अंग्रेजों ने खुब फायदा भी उठाया. आंदोलनों में भी हिंदी के उपयोग को लेकर दक्षिणी राज्यों में चिढ़ देखने को मिली थी.

रेलवे स्टेशनों पर हिंदी भाषा का विरोध

कई हिंदी भाषी लोग भी भारत के दक्षिणी राज्यों में रहते हैं. इसलिए रेलवे ने ये फैसला लिया था कि साइन बोर्ड पर हिंदी लिखी जाए, जिसे आगे विरोध का सामना करना पड़ा था. इसी तरह बेंगलूरु मेट्रो के स्टेशनों पर हिंदी में लिखे नाम उन हजारों यात्रियों के लिए बहुत काम के हैं, जो कर्नाटक से बाहर के हैं और कन्नड़ नहीं समझते. इसे लेकर भी विरोध जताया गया.

नेहरू के फैसले के बाद भी भाषा पर हुए दंगे

जवाहरलाल नेहरू की सरकार ने 1963 में आधिकारिक भाषा अधिनियम लागू कर दिया, जिससे सुनिश्चित कर दिया कि 1965 के बाद भी अंग्रेजी का प्रयोग जारी रहेगा, जबकि संविधान में कहा गया था कि हिंदी ही देश की एकमात्र आधिकारिक भाषा होगी. हालांकि, नेहरू के इस फैसले के बाद भी इसका विरोध जारी रहा. 1965 आते-आते हिंदी विरोधी आंदोलन मद्रास राज्य में जोर पकड़ गया और हर तरफ दंगे भड़क गए, जिसमें 70 लोगों की जान चली गई.

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