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किन्नरों के लिए शगुन राशि तय करने की अनूठी पहल, अब नहीं कर पाएंगे जबरन वसूली

हमीरपुर जिले के कुछ गांवों ने किन्नरों के लिए शगुन राशि तय करने की अनूठी पहल की है. गांव के कई लोगों ने पंचायत से शिकायत की थी कि किन्नर जबरन पैसे मांगते हैं और उनकी मांग पूरी न करने पर लोगों को परेशान करते है. किन्नर समाज के लिए नियम बनाना और शगुन राशि तय करना एक सकारात्मक कदम हो सकता है.

किन्नरों के लिए शगुन राशि तय करने की अनूठी पहल, अब नहीं कर पाएंगे जबरन वसूली
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( Image Source:  Social Media: X )

हिमाचल प्रदेश के हमीरपुर जिले के कुछ गांवों ने किन्नरों के लिए शगुन राशि तय करने की अनूठी पहल की है. यह फैसला किन्नरों द्वारा जबरन पैसे मांगने की बढ़ती शिकायतों के बाद लिया गया. हमीरपुर के दारूघनपट्टी कोट पंचायत ने एक बैठक में फैसला लिया कि बच्चे के जन्म और शादी जैसे अवसरों पर किन्नरों को तयशुदा राशि दी जाएगी. ग्राम पंचायत के प्रधान गुलशन कुमार के अनुसार, बच्चे के जन्म पर शगुन के तौर पर 2100 रुपये और शादी के अवसर पर 3100 रुपये देने का नियम बनाया गया है. इस फैसले का पालन न करने पर पंचायत ने दंड का भी प्रावधान रखा है.

गांव के कई लोगों ने पंचायत से शिकायत की थी कि किन्नर जबरन पैसे मांगते हैं और उनकी मांग पूरी न करने पर लोगों को परेशान करते है. इन समस्याओं के समाधान के लिए पंचायत ने यह लिस्ट तैयार की. पंचायत ने यह भी सुनिश्चित किया है कि यह नियम सभी के लिए समान रूप से लागू हो और कोई भेदभाव न हो.

किन्नरों का इतिहास और समाज में उनकी भूमिका

भारतीय समाज में किन्नरों का इतिहास प्राचीन समय से है. पुराने समय में राजाओं के दरबारों में किन्नरों को महत्वपूर्ण भूमिकाएं दी जाती थीं. वे शाही महल और रसोई की सुरक्षा के लिए नियुक्त किए जाते थे. खासतौर पर मुगल काल में किन्नरों ने राजनीतिक और सामाजिक क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान दिया. शाहजहां और अकबर के शासनकाल में किन्नरों ने दरबार की राजनीति में अपनी जगह बनाई.

किन्नरों की वर्तमान स्थिति: हाशिए पर रहने की जंग

आज भी भारतीय समाज में किन्नर समुदाय हाशिए पर है. उनके साथ होने वाला भेदभाव और अलगाव उन्हें मुख्यधारा में शामिल होने से रोकता है. किन्नरों के प्रति समाज में आकर्षण और भय का मिश्रण देखने को मिलता है. किन्नरों के प्रति समाज की उदासीनता ने उनकी स्थिति को और जटिल बना दिया है. आधुनिकता और मानवाधिकारों के प्रवचनों के बावजूद, किन्नरों को समुचित अधिकार और सम्मान नहीं मिल पाया है.

किन्नरों का राजनीतिक सफर: पहली किन्नर विधायक

1998 में शबनम मौसी भारत की पहली किन्नर विधायक बनीं. उन्होंने मध्य प्रदेश विधानसभा में अपनी जगह बनाई और समाज में किन्नरों के उत्थान की आवाज उठाई. उनकी प्राथमिकताएं भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, गरीबी और एड्स के प्रति जागरूकता थीं. 2003 में किन्नरों ने 'जीती जिताई पॉलिटिक्स' नाम से अपनी राजनीतिक पार्टी बनाई. इसके अलावा, उत्तर प्रदेश में श्वेता नामक किन्नर ने 2004 में लोकसभा चुनाव भी लड़ा. गोरखपुर के मतदाताओं ने भी एक किन्नर, आशा देवी, को मेयर के रूप में चुना था.

किन्नर समाज के लिए नियम बनाना और शगुन राशि तय करना एक सकारात्मक कदम हो सकता है, लेकिन इससे उनकी पूरी समस्याएं हल नहीं होतीं. जरूरी है कि समाज उनकी समस्याओं को समझे और उन्हें मुख्यधारा में लाने के लिए ठोस कदम उठाए.

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