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EXCLUSIVE: आंखिन-देखी... “बाबरी ढहने के बाद अयोध्या के मुसलमान बोले- बवाल कटा, हम कौन सा वहां नमाज पढ़ने जाते थे...”

अयोध्या में 6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद ढहने का आंखों-देखा हाल वरिष्ठ फोटो जर्नलिस्ट राजीव त्यागी ने साझा किया. उन्होंने बताया कि लाखों कारसेवकों की भीड़ के बीच मीडिया को अंदाजा तक नहीं था कि मस्जिद ध्वस्त कर दी जाएगी. भीड़ में पत्रकारों को कांग्रेस समर्थक समझे जाने पर तनाव भी रहा. ढहते ढांचे की कानफोड़ू आवाज, भीड़ का सैलाब और कोठारी बंधुओं के रोते माता-पिता - इन क्षणों को उन्होंने अब भी सबसे भयावह और ऐतिहासिक मानवीय अनुभव बताया.

EXCLUSIVE: आंखिन-देखी... “बाबरी ढहने के बाद अयोध्या के मुसलमान बोले- बवाल कटा, हम कौन सा वहां नमाज पढ़ने जाते थे...”
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संजीव चौहान
By: संजीव चौहान

Updated on: 6 Dec 2025 4:09 PM IST

‘मैं उन दिनों मध्य प्रदेश के एक हिंदी अखबार के लिए फोटो-पत्रकार के बतौर काम कर रहा था. 30 नवंबर 1992 को दिल्ली से जेब में 1500 रुपए डालकर अपने साथी पत्रकार के साथ अयोध्या जा पहुंचा. मतलब 6 दिसंबर 1992 को यानी अब से 33 साल पहले ढहाई जा चुकी विवादित बाबरी मस्जिद को 6 घंटे में ढहाए जाने की तबाही का मंजर मैंने अपनी आंखों से देखा था.

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उन चार-पांच दिन तक फैजाबाद और अयोध्या में सिर्फ जय श्रीराम के घोष के और कुछ सुनाई नहीं पड़ रहा था. राम और कार-सेवकों की भीड़ इस कदर थी कि, कहीं भी तिल रखने की जगह नहीं बाकी नहीं दिखाई दे रही थी. लाखों की उस भीड़ में अपनी गर्दन झुकाकर पांवों तले की जमीन देखने के लिए भी जगह नहीं थी.

विश्व हिंदू परिषद, बजरंग दल व सनातन को मानने वाले या उसके कट्टर समर्थक व भारतीय जनता पार्टी के लाखों पदाधिकारी कार्यकर्ता किसी एक जगह पर जय श्रीराम का घोष करते. तो वह समुद्र में आने वाले ज्वार-भाटे की तरह पूरी अयोध्या में एक साथ सुनाई दे रहा था. भारत सहित दुनिया भर के पत्रकारों की भीड़ तो फैजाबाद अयोध्या में जुट चुकी थी. मगर वहां की कुंज गलियों के चप्पे चप्पे से वाकिफ सिर्फ स्थानीय (फैजाबाद अयोध्या) के पत्रकार ही थे. जो हम बाहर से पहुंचे मीडिया वालों की मदद ठीक वैसे ही कर रहे थे जैसे कि मानों, लंका पर चढ़ाई के दौरान हनुमान जी और उनकी बानर सेना ने भगवान राम की, की थी.

पत्रकार बनाम हनुमान सेना...

मैं यहां पत्रकारों की तुलना हनुमान जी या भगवान राम से कतई नहीं कर रहा हूं. यह सिर्फ बता रहा हूं कि स्थानीय पत्रकार अगर अयोध्या में हम बाहर से पहुंचे सैकड़ों हजारों पत्रकारों को अयोध्या फैजाबाद के उस बेतहाशा भीड़ के बीच से सीता रसोई और बाबरी मस्जिद तक अपने पहले से जाने पहचाने पुराने खुफिया-संकरे रास्तों से न पहुंचाते, तो हम लोग (दिल्ली से पहुंचे तमाम देसी-विदेशी मीडिया वालों को) भी राम सेवकों-कार सेवकों की उस ऐतिहासिक भीड़ में ही खो चुके होते. और हमें फिर कभी भी वह बदनाम बाबरी मस्जिद अपनी आंखों से देखने को नहीं मिलती, जो मैंने 6 दिसंबर 1992 को यानी अब से 33 साल पहले दोपहर से शाम तक (करीब 5-6 घंटे में) अपनी आंखों के सामने ढहती-जमींदोज होती देखी थी.’

कौन हैं फोटो जर्नलिस्ट राजीव त्यागी-अनिरुद्ध धोउपकर

आंखिन देखी और कानों सुनी यह तमाम बेबाक यादगार अमिट यादों से जुड़ी बातें बेखौफ होकर स्टेट मिरर हिंदी के एडिटर क्राइम इनवेस्टीगेशन के साथ साझा कीं “बाबरी-विध्वंस” के चश्मदीद (गवाह) रहे वरिष्ठ फोटो जनर्लिस्ट राजीव त्यागी ने. राजीव त्यागी भारत के मशहूर अखबार मिड-डे, अमर उजाला जैसे बड़े नामी-गिरामी समाचार/मीडिया संस्थानों सहित देश की तमाम प्रमुख न्यूज समाचार एजेंसियों के लिए 1990-2000 के दशक में फोटो-पत्रकारिता कर चुके हैं. अयोध्या में मौजूद कलंकित बाबरी मस्जिद को ढहाए जाने वाले दिन (6 दिसंबर 1992) राजीव त्यागी इंदौर (मध्य प्रदेश) के “चौथा संसार” समाचार पत्र से जुड़े हुए थे. राजीव त्यागी के साथ चौथा-संसार अखबार के दिल्ली ब्यूरो-चीफ वरिष्ठ पत्रकार अनिरुद्ध धोउपकर भी उस एतिहासिक घटना को कवर करने दिल्ली से अयोध्या पहुंचे थे.

अंदाजा नहीं था बाबरी ढह जाएगी

“स्टेट मिरर हिंदी” के साथ एक्सक्लूसिव बातचीत में उस लोमहर्षक घटना की आंखिन-देखी साझा करते हुए अब 33 साल बाद वरिष्ठ फोटो जर्नलिस्ट राजीव त्यागी कहते हैं, “बेशक फैजाबाद अयोध्या में कार-सेवकों का सैलाब पहुंचा हुआ था. इसके बाद भी मगर मौजूद मीडिया को इसका दूर दूर तक अंदाजा नहीं था कि, इस बार वहां मौजूद बाबरी मस्जिद को ढहा ही दिया जाएगा. हम लोग (देसी-विदेशी मीडिया) यह सोच रहे थे कि कार और रामसेवक कुछ दिन हो-हल्ला मचाएंगे. उसके बाद तत्कालीन राज्य सरकार (उन दिनों यूपी में कल्याण सिंह के मुख्यमंत्रित्व/ नेतृत्व वाली भाजपा सरकार थी) व तत्कालीन केंद्रीय हुकूमत (तब केंद्र में कांग्रेस के प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव की हुकूमत थी) द्वारा अयोध्या में तैनात राज्य पुलिस, पीएसी व केंद्रीय सुरक्षा बल भीड़ को तितर-बितर करके हटा देंगे. और स्थिति सामान्य हो जाएगी.”

इसलिए निशाने पर था ‘मीडिया’...

अब से 33 साल पहले यानी 6 दिसंबर 1992 को बाबरी के ढांचे को ज़मींदोज होते अपनी आंखों से देखने वाले वरिष्ठ फोटो जर्नलिस्ट राजीव त्यागी बातचीत के दौरान बताते हैं, “दरअसल उन दिनों भारतीय जनता पार्टी, विश्व हिंदू परिषद, बजरंग दल, शिव सेना जैसे कट्टर हिंदू संगठनों की नजर में तब का मीडिया, कांग्रेस का पिट्ठू कहा-समझी जाता था. राम मंदिर के काम में जुटे इन सभी हिंदू-सनातनी संगठनों को शक था कि यूपी और दिल्ली से पहुंचा मीडिया कांग्रेस व बाबरी मस्जिद के पक्ष में और राम मंदिर के विरोध में, केंद्रीय हुकूमत (तब केंद्र में मौजूद कांग्रेस और नरसिम्हा राव की सरकार) के इशारे पर हिंदू विरोधी काम करती है. इसलिए कार सेवा में जुटे सभी हिंदू संगठनों की मौके पर कई मीडिया वालों से भी तगडी नोक-झोंक होती देखी गई. इससे बचने के लिए विश्व हिंदू परिषद ने बाकायदा मीडिया वालों के लिए विशेष-पास की व्यवस्था की थी. ताकि उस उतने बड़े हवन-कार्य में कहीं मीडिया और ज्यादा हिंदू संगठनों के खिलाफ न लिखने-दिखाने लगे.”

कार-सेवकों को बदनाम करने की साजिश

बाबरी मस्जिद ढहाए जाने के आसपास एक घटना का आंखों देखा वाकया बयान करते हुए वरिष्ठ फोटो जर्नलिस्ट राजीव त्यागी कहते हैं, “एक दिन लाखों की भीड़ में मौजूद जर्मन पत्रकार के साथ कार-राम सेवकों की इत्तिफाकन कहा-सुनी हो गई. वह कहासुनी गलतफहमी के चलते हुई थी. कहासुनी के बीच हुई हाथापाई में उस विदेशी पत्रकार के सिर पर चोट लग गई. मामले की गंभीरता देखकर और सच्चाई पता लगते ही कि चोट खाने वाला विदेशी पत्रकार है, राम-कार सेवा में जुटे हिंदू संगठनों ने उस जर्मन पत्रकार को भीड़ से हटाकर सुरक्षित स्थान पर ले जाने की कोशिश की. उस कोशिश के दौरान कुछ लोगों ने अफवाह उड़ा दी कि जर्मन पत्रकार की जेब काट ली गई है. जबकि वह अफवाह कार सेवकों और हिंदू संगठनों को बदनाम करने के लिए जान-बूझकर उड़ाई गई थी ताकि किसी भी तरह से वहां कवरेज के लिए पहुंचा मीडिया कार सेवा के विरुद्ध नकारात्मक खबरें देश के जन-मानस के बीच पहुंचाना शुरू कर दे. हालांकि उस बेहद घटिया कोशिश को बेहद शालीनता के साथ हिंदू संगठनों ने नाकाम कर दिया.”

मीडिया वालों का दोगलापन

एक घटना के जिक्र में राजीव त्यागी कहते हैं, “जैसे ही बाबरी मस्जिद ढही. मौके से कुछ पत्रकारों का एक दल रातों रात फ्लाइट से दिल्ली पहुंचा और यहां पहुंच कर उन पत्रकारों ने प्रेस-कांफ्रेंस कर डाली. सवाल यह है कि उस घटना को लेकर अयोध्य़ा से रातों रात दिल्ली भागकर आने और उसके बाद पत्रकारों को भला प्रेस-कांफ्रेंस करने की क्या जरूरत थी? पत्रकारों का काम खबरें लिखना होता है न कि किसी घटना को लेकर प्रेस-काफ्रेंस करके उसकी उट-पटांग जानकारियां जनमानस के बीच पहुंचाकर, जनता को भ्रमित करना मीडिया का काम है. बाद में पता चला कि पत्रकारों का वह दल तत्कालीन केंद्रीय हुकूमत (कांग्रेस) के मुंहलगा था. वो बाबरी मस्जिद ढहा दिये जाने की घटना को घोर अनैतिक घटना साबित करके तत्कालीन कांग्रेस (केंद्र में) हुकूमत को खुश करने के लिए अयोध्या से रातों-रात दिल्ली में प्रेस कांफ्रेंस करने पहंचा था.”

कोठारी बंधुओं के माता-पिता और मैं

बकौल चश्मदीद राजीव त्यागी, “6 दिसंबर 1992 को दोपहर के वक्त मैंने देखा कि सीता रसोई की छत पर एक दंपत्ति (पति-पत्नी) बैठे हुए थे. हर राम भक्त कार सेवक उनके पास आकर उनके पांव छूता और जयश्री राम का घोष करता हुआ बाबरी मस्जिद की ओर चला जाता. वह दंपत्ति लगातार रोए ही जा रहा था. मैंने पत्रकार की हैसियत से जानकारी जुटाई तो पता चला कि वह दंपत्ति कोई और नहीं अपितु कोठारी बंधुओं के माता-पिता हैं. जिनकी अश्रुधार रुकने का नाम नहीं ले रही थी और हर कार सेवक सीता रसोई की छत पर जिनके पांव छूकर बाबरी मस्जिद की ओर बढ़ रहा था. कोलकाता के वही राम कुमार कोठारी (23) और शरद कुमार कोठारी(20साल, दोनों सगे भाई) जिन्हें 2 नवंबर 1990 (बाबरी मस्जिद ढहाए जाने से करीब 2 साल पहले) यूपी में मुलायम सिंह यादव के मुख्यमंत्रित्वकाल वाली तत्कालीन सरकार की पुलिस-पैरा मिलिट्री फोर्सेज ने अयोध्या में हनुमानगढ़ी (सरयू के करीब) में गोलियों से भून डाला था. वे दोनों भाई विश्व हिंदू परिषद यानी वीएचपी से जुडे थे.”

बाबरी और मेरी दूरी महज 200-300 मीटर

“जहां तक जिक्र अगर 6 दिसंबर 1992 को बाबरी ढहा दिए जाने के मंजर का करूं. तो मैंने जिस बाबरी मस्जिद को 6 दिसंबर 1992 को खुद से महज 3-400 मीटर की दूरी पर अपनी आंखों से खड़े देखा था. उसी बाबरी मस्जिद को उसी तारीख में दोपहर बाद से शाम तक करीब 5-6 घंटे में मिट्टी में मिलते हुए भी देखा. बाबरी मस्जिद मेरे सामने देखते देखते ढहा दी गई. जब उसका गुंबद जमींदोज हुआ तो उसकी वह रुह कंपा देने वाली कानफोड़ू आवाज आज भी मेरे कानों में गूंजती है. जब गुंबद गिरा तो हमें लगा कि बम से उसे उड़ा दिया गया है. मौजूद भीड़ को भी ऐसा ही लगा था. मगर बम से बाबरी मस्जिद के गुंबद को उड़ाने की बात गलत थी. वह सब लाखों कार सेवकों की मेहनत मशक्कत का फल था, जिसने महज 6 घंटे के भीतर 5-600 साल पुरानी बाबरी के गुंबद को जब धराशाही किया तो लगा कि उसे बम से ढहाया गया होगा.”

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