ईरान को देते फिरते हैं ज्ञान, दुनिया भर में आतंकवाद फैला रहे पाकिस्तान के मामले में चुप क्यों हो जाते हैं पश्चिमी देश?
ईरान-इजरायल युद्ध के पांचवें दिन अमेरिका खुलकर इजरायल के साथ खड़ा है, जबकि पाकिस्तान पर नरमी बरतता है, जो ईरान का पक्ष लेता है. अमेरिका ईरान को परमाणु खतरा मानता है लेकिन आतंकवाद फैलाने वाले पाकिस्तान को 'रणनीतिक सहयोगी' बताता है. असल वजह है ईरान का तेल-गैस खजाना और उसका झुकने से इनकार, जबकि पाकिस्तान की भू-राजनीतिक उपयोगिता. अमेरिका की नीति – जहां स्वार्थ है, वहां सख्ती, जहां रणनीति है, वहां नरमी. यही दोहरापन आतंक के खिलाफ वैश्विक लड़ाई को कमजोर करता है.;
इजरायल और ईरान के बीच चल रही जंग पांच दिनों से जारी है. दोनों ही देश एक-दूसरे पर लगातार मिसाइलों की बारिश कर रहे हैं और दोनों ही तरफ कई लोगों के मारे जाने की भी खबर है. और इस बार भी पश्चिमी देश ईरान को ही नसीहत देने में लगे हैं. जब भी ईरान किसी कड़े कदम या जवाबी कार्रवाई की बात करता है, पश्चिमी देश, खासकर अमेरिका और उसके सहयोगी तुरंत संयम और डिप्लोमेसी का पाठ पढ़ाने लगते हैं. मानवाधिकार की दुहाई दी जाती है, और युद्ध को टालने की सलाह दी जाती है.
लेकिन जब बात पाकिस्तान की आती है, जो दशकों से आतंकवाद की फैक्ट्री चला रहा है, जहां से दुनिया के हर कोने में दहशतगर्द भेजे जाते हैं, तो वही देश चुप्पी साध लेते हैं. अफगानिस्तान से लेकर भारत, ईरान, इज़रायल और यहां तक कि अमेरिका खुद भी पाकिस्तानी आतंक का शिकार रह चुका है, फिर भी कभी उस पर प्रतिबंध लगाने की गंभीर चर्चा नहीं होती. क्या यह दोहरा मापदंड नहीं? एक ओर ईरान पर आंखें तरेरना, दूसरी ओर पाकिस्तान को आर्थिक मदद देना, इससे आतंक के खिलाफ वैश्विक जंग की साख पर ही सवाल खड़े हो जाते हैं. आखिर कब तक पाकिस्तान को 'स्ट्रेटेजिक एसेट' कहकर बख्शा जाता रहेगा?
...तो इजरायल पर परमाणु बम गिरा देगा पाकिस्तान
अब बात करते हैं पाकिस्तान की. ईरान और इजरायल के मौजूदा संघर्ष के बीच ऐसी खबर आई कि पाकिस्तान अपने परमाणु हथियार का इस्तेमाल करने वाला है. हालांकि, पाकिस्तान की तरफ से इस बारे में कोई आधिकारिक बयान नहीं जारी किया गया. दरअसल, ईरान के एक टॉप जनरल का सोशल मीडिया पर एक वीडियो क्लिप वायरल हो रहा था, इस वीडियो में वो दावा कर रहे थे कि इजरायल अगर परमाणु हथियारों का इस्तेमाल करेगा, तो पाकिस्तान अपने परमाणु हथियार से इजरायल को जवाब देगा. इस खबर के बाद पूरी दुनिया में जैसे हड़कंप मच गया. हालांकि, पाकिस्तान के विदेश मंत्री इसहाक़ डार ने इस खबर को झूठा बताया लेकिन एक बात तो सच है कि मौजूदा संघर्ष में पाकिस्तान इजरायल के खिलाफ और ईरान के समर्थन में खड़ा है.
अमेरिका भी कूदा जंग में!
ईरान और इज़रायल के मौजूदा संघर्ष में अमेरिका भी कूद पड़ा है. ट्रंप ने कहा है कि ईरान इजरायल के खिलाफ संघर्ष में जीत नहीं सकेगा. इससे पहले काफी देर हो जाए उसे बातचीत से मुद्दे को हल करना चाहिए. अब यहां ये देखना दिलचस्प हो गया है कि अमेरिका इजरायल को सपोर्ट करता है लेकिन पाकिस्तान के साथी ईरान का विरोधी है. दूसरी तरफ अमेरिका और पाकिस्तान के रिश्ते भी बुरे नहीं हैं और भारत का पड़ोसी मुल्क अमेरिका के दोस्त इजरायल के विरोध में है.
सवाल है कि अमेरिका पाकिस्तान का सपोर्ट क्यों करता है जो इजरायल के खिलाफ ईरान का सपोर्ट करता है? इस सारे समीकरण में भारत कहां फिट बैठता है?
आइए विस्तार से समझते हैं...
अमेरिका किसके साथ?
ये बात तो दिगर है कि अमेरिका खुले तौर पर इज़रायल का समर्थन करता है. अमेरिकी डिफेंस सिस्टम (जैसे आयरन डोम) को फंडिंग देने में अमेरिका की भूमिका अहम रही है. अगर ईरान इज़रायल पर सीधा हमला करता है, तो अमेरिका सैन्य या कूटनीतिक रूप से इज़रायल के साथ खड़ा होता है. हालिया संघर्षों में अमेरिका ने बार-बार ईरान को चेतावनी दी है कि इज़रायल पर हमले का जवाब ज़रूरी हुआ तो वो देगा.
पाकिस्तान किसके साथ?
वैसे तो पाकिस्तान प्रत्यक्ष तौर पर ईरान या इज़रायल के पक्ष में नहीं खड़ा होता, लेकिन उसके रुख़ में झुकाव ईरान या फिलिस्तीन की ओर होता है. पाकिस्तान पारंपरिक रूप से फिलिस्तीन समर्थक है और इज़रायल को मान्यता नहीं देता. जब भी इज़रायल और किसी मुस्लिम देश (जैसे ईरान या फिलिस्तीन) के बीच तनाव होता है, पाकिस्तान राजनयिक तौर पर मुस्लिम पक्ष का समर्थन करता है. हालांकि, पाकिस्तान और ईरान के संबंध भी कई बार तनावपूर्ण रहे हैं, खासकर बलूचिस्तान के मुद्दे पर. कुल मिलाकर देखा जाए तो अमेरिका इज़रायल के साथ खड़ा रहता है जबकि पाकिस्तान का ईरान/फिलिस्तीन की ओर झुकाव होता है, लेकिन सावधानीपूर्वक कूटनीतिक दूरी बनाए रखता है.
आतंक को लेकर अमेरिका का दोहरा रवैया
जी हां, अमेरिका की रणनीति का सच यही है. ईरान से डर, पाकिस्तान से दोस्ती और भारत को बस सलाह!
ऐसे में कई सवाल उठते हैं...
- अमेरिका ईरान से डरता है, लेकिन पाकिस्तान को क्यों बचाता है?
- अमेरिका ईरान को खुलेआम धमकाता है, लेकिन पाकिस्तान से इतने नरम क्यों रहता है?
- क्या ये दोहरा मापदंड है? या फिर इसके पीछे कोई बड़ी साजिश है?
ईरान अमेरिका का दुश्मन क्यों है?
- साल 1979 में जब ईरान में इस्लामिक क्रांति हुई, तब से अमेरिका और ईरान के रिश्ते दुश्मनी में बदल गए.
- अमेरिकी दूतावास पर हमला, बंधक संकट और उसके बाद ईरान का परमाणु कार्यक्रम - ये सब अमेरिका को खटकते हैं.
- और सबसे बड़ी बात - ईरान इज़रायल को मिटाने की बात करता है और इज़रायल अमेरिका का सबसे करीबी दोस्त है.
मतलब ईरान सिर्फ अमेरिका का नहीं, बल्कि अमेरिका के "दोस्तों" का भी दुश्मन है. और अमेरिका वहां वह कोई समझौता नहीं करता, जहां उसके हितों को खतरा होता है.
तो फिर पाकिस्तान को क्यों माफ करता है अमेरिका? जबकि पाकिस्तान ने क्या नहीं किया?
- ओसामा बिन लादेन को पनाह दी, जिसने 9/11 की साजिश रची
- हक्कानी नेटवर्क और तालिबान जैसे आतंकी संगठनों को समर्थन दिया
- भारत में हुए आतंकी हमलों में लगातार शामिल रहा
लेकिन फिर भी अमेरिका कहता है, "पाकिस्तान हमारा स्ट्रैटेजिक पार्टनर है.." क्यों?
- क्योंकि अमेरिका को पाकिस्तान की जमीन की जरूरत थी - अफगानिस्तान युद्ध के समय.
- क्योंकि अमेरिका नहीं चाहता कि पाकिस्तान पूरी तरह चीन के साथ चला जाए.
- और क्योंकि पाकिस्तान को नाराज़ करने का मतलब है - उसे और खतरनाक बनाना.
अमेरिका की पॉलिसी - सिद्धांत नहीं, स्वार्थ
अमेरिका आतंकवाद के खिलाफ खड़ा होता है, लेकिन वहां जहां उसका सीधा नुकसान हो. पाकिस्तान की आतंकी हरकतें भारत को नुकसान पहुंचाती हैं - अमेरिका को नहीं. इसलिए वह सिर्फ बयान देता है, लेकिन कार्रवाई नहीं करता. वहीं ईरान का न्यूक्लियर प्रोग्राम, इज़रायल पर खतरा - ये अमेरिका की सीधी चिंता है.
ऐसे में भारत क्या करे?
भारत को किसी और देश की नीति पर निर्भर नहीं रहना चाहिए. हमें अपनी बोल्ड फॉरेन पॉलिसी और स्वदेशी डिफेंस ताकत पर भरोसा करना होगा. हमारे दुश्मन कौन हैं, ये हमें खुद तय करना होगा, न कि कोई वॉशिंगटन या ब्रसेल्स से आकर बताए.
अब सवाल है कि क्या अमेरिका को पाकिस्तान पर भी वही सख्ती दिखानी चाहिए जो वो ईरान पर करता है?
तो इसका जवाब है ...हां - अमेरिका का ईरान के साथ तनाव सिर्फ वैचारिक या राजनीतिक नहीं है, बल्कि भू-राजनीतिक और आर्थिक लालच से भी जुड़ा हुआ है.
इसे 3 पॉइंट्स में समझते हैं:
1. ईरान का खजाना - तेल और गैस का समंदर
ईरान के पास दुनिया का चौथा सबसे बड़ा तेल भंडार और दूसरा सबसे बड़ा प्राकृतिक गैस भंडार है. ये इतना विशाल है कि अगर अमेरिका या उसके सहयोगी देशों को इस पर सीधा या अप्रत्यक्ष कंट्रोल मिल जाए तो उनकी ऊर्जा जरूरतें दशकों तक पूरी हो सकती हैं. इसलिए अमेरिका नहीं चाहता कि ईरान रूस, चीन या भारत जैसे देशों के साथ स्वतंत्र रूप से व्यापार करे.
2. पाकिस्तान - रणनीतिक लेकिन ‘खनिज’ रूप से गरीब
पाकिस्तान में ना तो इतना तेल है, ना ही उतनी गैस, और ना ही कोई विशेष दुर्लभ खनिज भंडार. लेकिन उसकी भौगोलिक स्थिति अफगानिस्तान, चीन और भारत के बीच उसे एक रणनीतिक मजबूरी बनाती है. इसलिए अमेरिका उसे एक ज़रूरी मोहरा तो मानता है, लेकिन लालच का स्रोत नहीं.
3. ईरान की संपदा पर पश्चिमी कंपनियों की नजर
अमेरिका की कई बड़ी तेल कंपनियां, जैसे एक्सॉन मोबिल या शेवरॉन, ईरान में निवेश करना चाहती थीं, लेकिन ईरान की स्वतंत्र विदेश नीति और अमेरिका विरोधी रवैये के कारण ऐसा नहीं हो सका. यही कारण है कि अमेरिका ने ईरान पर कड़े प्रतिबंध लगाए ताकि वहां की आर्थिक स्थिति कमजोर हो जाए और एक पश्चिम-समर्थक सत्ता स्थापित की जा सके.
ईरान का खनिज खजाना एक बहुत बड़ा कारण है कि अमेरिका उससे टकराता है. पाकिस्तान सिर्फ एक जियो-स्ट्रैटेजिक उपयोगिता वाला देश है, न कि संसाधन संपन्न. इसलिए अमेरिका उसे झाड़-पोंछ कर रखता है, लेकिन उस पर कब्जा करने या धमकाने की ज़रूरत महसूस नहीं करता.
ईरान से दुश्मनी, लेकिन पाकिस्तान से नरमी क्यों?
जब दुनिया आतंक के खिलाफ एकजुट होने की बात करती है... तो एक नाम बार-बार सामने आता है - अमेरिका. लेकिन सवाल ये है - जिसने ईरान को दुश्मन घोषित किया, क्या वही अमेरिका पाकिस्तान को दोस्त कह सकता है...जहां ओसामा बिन लादेन छिपा बैठा था?"
अमेरिका और ईरान - टकराव की जड़ें
1953... ईरान की धरती पर CIA का पहला बड़ा ऑपरेशन, तत्कालीन प्रधानमंत्री मोहम्मद मोसद्देक को हटाया गया क्योंकि वो अपने देश का तेल अपने हाथ में लेना चाहता था. इसके बाद आया शाह रजा पहलवी का राज, अमेरिका का पिट्ठू, पर 1979 की इस्लामिक क्रांति ने सब कुछ बदल दिया. ईरान बन गया अमेरिका का दुश्मन नंबर 1, क्योंकि ईरान अब खुदमुख्तार था, किसी के इशारे पर नहीं चलने वाला.
अमेरिका की ईरान से नफरत - सिर्फ आतंकवाद नहीं, खनिज भी वजह
तेल और गैस का सबसे बड़ा भंडार - ईरान के पास है. खाड़ी में अमेरिका की मौजूदगी का मकसद सिर्फ सुरक्षा नहीं, खनिज संपदा और भू-रणनीतिक दबदबा भी है. ईरान न झुका, न बिका और यही बात अमेरिका को चुभती है.
पाकिस्तान की चालाकी और अमेरिका की मजबूरी
अब आते हैं पाकिस्तान पर..
- 1980 के अफगान युद्ध से लेकर 2000 के दशक तक पाकिस्तान बना रहा अमेरिका का ‘Non-NATO Ally’
- जब अमेरिका कहता था 'War on Terror', तब पाकिस्तान देता था आतंकियों को पनाह.
- 2001 में अफगानिस्तान पर हमले के बाद पाकिस्तान को अरबों डॉलर की मदद मिली, और उसी दौरान ओसामा बिन लादेन पाकिस्तान के एबटाबाद में छिपा बैठा था.
तो फिर फर्क क्यों? सवाल यही है कि ईरान जो आतंकियों से लड़ता है वो दुश्मन और पाकिस्तान जो आतंकियों को पालता है वो सहयोगी, क्यों? क्योंकि ईरान अमेरिका के सामने नहीं झुकता और पाकिस्तान अमेरिका की जरूरत बनकर जिंदा रहता है, कभी अफगानिस्तान के लिए, तो कभी चीन पर नजर रखने के लिए.
कुल मिलाकर देखा जाए तो राजनीति में कोई स्थायी दोस्त नहीं होता, नहीं कोई स्थायी दुश्मन. लेकिन अमेरिका की दोस्ती हमेशा उस पर मेहरबान होती है जो उसके इशारों पर चलता है. ईरान नहीं चला - दुश्मन बन गया. पाकिस्तान चला - इसलिए ‘जिम्मेदारी’ कम गिनाई गई.