टैरिफ वॉर में US का डबल गेम! चीन के सामने बैकफुट पर ट्रंप, 90 दिनों के लिए फिर दी राहत; भारत पर 50% टैरिफ क्यों?

अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने एक बार फिर अपने दोहरे मानदंड उजागर कर दिए. चीन पर रिकॉर्ड टैरिफ को 90 दिन टाल दिया, जबकि भारत पर 50% शुल्क का झटका दे दिया. रूस से तेल खरीदने पर सख्ती, लेकिन चीन के मामले में नरमी ये है अमेरिकी नीति का असली चेहरा. सवाल स्ट्रेटेजिक पार्टनरशिप या दबाव की राजनीति?;

( Image Source:  sora ai )
Curated By :  नवनीत कुमार
Updated On : 12 Aug 2025 9:50 AM IST

अमेरिका एक बार फिर अपनी ‘डबल स्टैंडर्ड’ वाली नीति के लिए सुर्खियों में है. राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने चीन पर लगने वाले रिकॉर्ड टैरिफ को आखिरी समय में 90 दिन के लिए टाल दिया, जबकि भारत पर 50% तक का झटका दे दिया. यह वही ट्रंप हैं, जो चीन को अमेरिका की सबसे बड़ी दुश्मन अर्थव्यवस्था बताते हैं. अब सवाल उठता है कि जब मुकाबला असली चुनौती से हो, तो ट्रंप का साहस कहां चला जाता है?

व्हाइट हाउस के एक वरिष्ठ अधिकारी के मुताबिक, ट्रंप ने यह आदेश तब साइन किया जब चीन पर 145% तक के अमेरिकी टैरिफ लागू होने की डेडलाइन खत्म होने में बस कुछ घंटे बाकी थे. यह फैसला ऐसे समय लिया गया, जब भारत पर 27 अगस्त से 25% अतिरिक्त शुल्क लगाकर कुल 50% टैरिफ लगाने का ऐलान पहले ही हो चुका था. यानी भारत के मामले में “सख्ती”, और चीन के मामले में “राहत” यह अमेरिकी नीति का क्लासिक उदाहरण है.

चीन पर टैरिफ टालने का कारण

वॉशिंगटन के मुताबिक, जुलाई में स्टॉकहोम में हुई एक गुप्त व्यापार वार्ता है. लेकिन असलियत यह है कि अमेरिका की अपनी सप्लाई चेन, टेक्नोलॉजी और कंज्यूमर मार्केट चीन पर इस कदर निर्भर है कि वह बीजिंग के खिलाफ लंबे समय तक आक्रामक नीति अपना ही नहीं सकता. भारत पर दबाव डालना आसान है, क्योंकि अमेरिका जानता है कि भारत से उसका व्यापार असंतुलन अपेक्षाकृत छोटा है और वहां अमेरिकी कंपनियों के लिए राजनीतिक जोखिम कम है.

तो फिर होता टैरिफ वॉर

अगर यह टैरिफ स्थगन न होता तो अमेरिका और चीन के बीच अप्रैल जैसी स्थिति लौट आती, जब दोनों ने एक-दूसरे पर रिकॉर्ड टैरिफ लगाए थे. अमेरिका ने चीनी वस्तुओं पर 145% और चीन ने अमेरिकी उत्पादों पर 125% तक शुल्क लगा दिया था. उस समय अमेरिकी किसानों और मैन्युफैक्चरिंग कंपनियों पर इतना असर पड़ा कि खुद ट्रंप प्रशासन को बैकफुट पर आना पड़ा. यानी आर्थिक नुकसान होते ही “ट्रेड वॉर” की तलवार म्यान में रख दी गई.

बाजार में चीनी सामानों का दबदबा

मई में जिनेवा में हुई मीटिंग के बाद टैरिफ को घटाकर अमेरिका के लिए 30% और चीन के लिए 10% कर दिया गया था. यह भी एकतरफा रियायत थी, क्योंकि अमेरिकी बाजार में चीनी वस्तुओं का दबदबा इतना बड़ा है कि अमेरिकी रिटेल सेक्टर इन्हें हटाने का जोखिम नहीं उठा सकता. यही कारण है कि बीजिंग को एक और 90 दिन की मोहलत मिल गई.

इसके उलट भारत के मामले में ट्रंप ने सख्त से सख्त कदम उठाने में कोई हिचक नहीं दिखाई. पहले से लागू 25% टैरिफ में उन्होंने सीधे 25% और जोड़कर इसे 50% कर दिया. यह कदम रूसी तेल खरीद को निशाना बनाकर उठाया गया, जबकि अमेरिका अच्छी तरह जानता है कि भारत की ऊर्जा सुरक्षा और घरेलू ईंधन कीमतों के लिए यह खरीद बेहद जरूरी है.

भारत सीधे दे रहा चुनौती

भारत रूस से रियायती तेल खरीदकर अपने बाजार में पेट्रोल-डीज़ल की कीमतें स्थिर रख रहा है. 2021 में जहां भारत के तेल आयात में रूस का हिस्सा नगण्य था, वहीं 2024 में यह 37% तक पहुंच गया. इससे सऊदी अरब, इराक और नाइजीरिया जैसे पारंपरिक सप्लायर्स पर निर्भरता कम हुई और भारत ने वैश्विक ऊर्जा बाजार में अपनी सौदेबाज़ी की ताकत बढ़ाई. लेकिन अमेरिका को यह मंजूर नहीं, क्योंकि यह उसकी अपनी ऊर्जा डिप्लोमेसी और डॉलर-आधारित तेल व्यापार व्यवस्था को चुनौती देता है.

विदेश मंत्रालय ने क्या कहा?

विदेश मंत्रालय ने इस कदम को “अनुचित, अनुचित और अविवेकपूर्ण” बताया और साफ कहा कि भारत अपने राष्ट्रीय हितों की रक्षा के लिए हर कदम उठाएगा। असल में, यह केवल व्यापार का मामला नहीं है, यह भू-राजनीतिक दबाव की एक कोशिश है, जिसमें वॉशिंगटन भारत को रूस से दूरी बनाने पर मजबूर करना चाहता है। लेकिन सवाल यह है कि जब चीन रूस से तेल खरीदता है, तब अमेरिकी सख्ती कहां जाती है?

क्या कहते हैं एक्सपर्ट?

विश्लेषकों का मानना है कि यह फैसला भारत-अमेरिका रिश्तों में अनिश्चितता बढ़ाएगा और भारत को अपनी ऊर्जा सप्लाई चेन में और ज्यादा विविधता लाने के लिए प्रेरित करेगा. अगर अमेरिका चीन पर भी भारत जैसी 50% दर का टैरिफ लगाए, तो यह उसके इतिहास का सबसे आक्रामक कदम होगा. लेकिन पिछले रिकॉर्ड बताते हैं कि ऐसा होना लगभग नामुमकिन है क्योंकि अमेरिका को पता है कि बीजिंग से टकराना उसके खुद के बाजार और सप्लाई चेन को चोट पहुंचाएगा.

स्ट्रेटेजिक पार्टनर के नाम पर ढोंग

ट्रंप प्रशासन की यह नीति एक साफ संदेश देती है कि अमेरिका के “स्ट्रेटेजिक पार्टनर” का टैग केवल तब तक वैध है, जब तक वह वॉशिंगटन के हितों के मुताबिक चले. जैसे ही कोई देश स्वतंत्र नीति अपनाता है, उसे आर्थिक सज़ा देने में देर नहीं लगती. चीन पर नर्म रुख और भारत पर सख्त टैरिफ इसी दोहरे मानदंड का जीता-जागता उदाहरण है.

भारत को क्या करना चाहिए?

भारत के लिए अब यह समय है कि वह अपनी विदेश और ऊर्जा नीति को अमेरिकी दबाव से पूरी तरह मुक्त रखे. हमें यह समझना होगा कि अमेरिका की “ट्रेड वॉर” दरअसल ताकतवरों के सामने बैकफुट और अपने साझेदारों पर दबाव बनाने का खेल है. इस खेल में ट्रंप ने एक बार फिर खुद को दुनिया के सबसे अविश्वसनीय और असंगत ट्रेड पार्टनर के तौर पर साबित कर दिया है.

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