बिखरते सपने, सिसकती सुप्रीम कोर्ट, भ्रष्ट नेता, खून सने वायदे और स्वाहा संसद! सब कुछ लुटाकर होश में आये तो क्या हुआ मेरे 'नेपाल'?
नेपाल में हालात भयावह हैं. युवा और मौजूदा पीढ़ी ने भ्रष्ट नेताओं और सत्ता की कुंठा में देश को अपने ही हाथों आग में झोंक दिया. राजशाही के बाद आए लोकतंत्र में भी जनता को लाभ नहीं मिला. अब नेपाल भारत, अमेरिका और चीन की मदद के भरोसे है, लेकिन अपनों ने देश को बर्बाद कर दिया. आने वाली पीढ़ियों को इसके गंभीर परिणाम भुगतने होंगे. इस रिपोर्ट में विस्तार से समझें नेपाल की राजनीतिक और सामाजिक तबाही और इसके पीछे की वास्तविक वजहें.;
नेपाल को तबाह करने के लिए किसी बाहरी ताकत की जरूरत नहीं रही. एक छोटे से भोले-भाले से समझे जाने वाले नेपाल ने खुद को तबाह करने का मौका मक्कार अमेरिका और चतुर चीन को भी नहीं दिया. ‘अपनों’ को ‘निपटाने’ और “अपनों” से निपटने की कुंठा कहिए या फिर कुंठित-जिद में नेपालियों ने “नेपाल और नेपालियों” दोनो को निपटा लिया. अपनों ने ही अपने हाथों से अपने खूबसूरत नेपाल को आग में झोंककर स्वाहा-बदसूरत कर डाला.
नेपाल की आने वाली पीढ़ियां अब सदियों तक अपनी इस शर्मनाक तबाही-बर्बादी के लिए, कभी किसी दूसरे को दोष नहीं दे सकेंगीं. विशेषकर उस भारत को जिसे यही नेपाल सैकड़ों साल तक अपना “बड़ा-भाई” गा-बजाकर इसे आर्थिक, सामाजिक, वैश्विक, कूटनीतिक, सामरिक रुप में नोच-खसोट कर अपनी हर मैली-कुचैली “मंशा” का पेट भरता रहा. वही नेपाल जो मतलब साधने के भारत भारत से मुंह मोड़कर, पाकिस्तान की तर्ज पर चंद कौड़ियों की मैली चाहत में मक्कार अमेरिका और चालबाज चीन की ‘गोद’ में जा सोया.
खुद के हाथों से जलाया अपना घर
ऐसे “कम-अक्ल” और मौकापरस्त नेपाल की सत्ता, नेता और नेपाली जनमानस की जब होश में आने पर आंख खुली तो पता चला कि, वे सब तो लुटे-पिटे बैठे हैं. अपने ही हाथों से अपना वह नेपाल स्वाहा करके, जिस नेपाल को सींचने और पालने-पोसने में भारत का भी खून-पसीना शामिल रहा था. दरअसल, जून साल 2001 में जिस रात नेपाली राजशाही को नजर लगी. एक ही रात में 9 लाशें नेपाल के राजा के महल से उठीं. तभी भारत को समझ लेना चाहिए था कि अब उसका पाला-पोसा नेपाल आइंदा कभी भी भारत का छोटा भाई तो नहीं बन सकता. क्योंकि उस लोमहर्षक कत्ल-ए-आम में कोई बाहरी ताकत नहीं, नेपाल के अपने ही अंदर के लोग तो शामिल थे. वे लोग जिनको किसी भी कीमत पर नेपाल में राजशाही फूटी आंख नहीं सुहा रही थी. जब राजशाही पूरी तरह से निपट गई तो, सत्ता के भूखे नेपाली नेताओं को “लोकतंत्र” की छाती पर बैठकर अपनी अपनी भूख मिटाने, अपनों के घर पेट और खजाने भरने के लालच ने जकड़ लिया.
राजशाही को खत्म कर लाए थे लोकतंत्र
लोकतंत्र के सीने पर चढ़कर बैठे नेताओं को सत्ता का सुख इस कदर भाया कि वे नेपाल और उसके जनमानस की भावनाओं को ही गिद्ध की मानिंद नोंच-नोचकर खाने-चबाने लगे. कई साल तक तो नेपाल के जनमानस को समझ ही नहीं आया कि देश में “राजशाही’ को कत्ल करने के बाद उसके खून से सनी नींव के ऊपर नेताओं द्वारा खड़ी की गई ‘लोकतंत्र’ की इमारतें भी तो आखिर खून सनी ही होंगी. तब फिर ऐसी खूनी इमारतों में भला देश के जनमानस की “खुशियों” की कौन और क्यों सोचेगा? वह भी देश के वे नेता भला कैसे नेपाली जनता का भला सोचेंगे जो खुद ही, अपना और अपनों का पेट अपने-अपने खजाने भरने की घिनौनी सोच के चलते ही, देश में राजशाही का खून करके “लोकतंत्र” लाए थे.
भष्मासुर साबित हुआ लोकतंत्र
नेपाल से राजशाही गई और खून सने रास्तों के ऊपर से बिलबिलाता हुआ जब लोकतंत्र आया, तो वह समझिए नेपाल और नेपालियों के लिए “भष्मासुर” साबित हुआ. भष्मासुर कैसे साबित हुआ यह दुनिया ने अपनी आंखों से देखा. सोचिए भला किसी देश का जनमानस देश से भ्रष्टाचार मिटाने, भ्रष्ट नेता-मंत्री-प्रधानमंत्री को निपटाने के लिए क्या अपने ही हाथों अपने देश में कहीं आग लगा बैठने जैसी मूर्खता भी करते हैं क्या? नेपाल को तो नेपाल के ही लोगों ने आग में झोंककर जला डाला है. अब जब जिस देश की जनता ही अपने देश को जलाकर स्वाहा करने पर आमादा हो तो सोचिए कि फिर ऐसे या उस देश को भला बचाने की कोई क्यों और कैसे सोचेगा? जब देशवासियों को ही अपने देश को आग में झोंकने की सनक सवार हो.
नेपाल को खड़ा होने में लगेगा समय
देश में व्याप्त भ्रष्टाचार को जड़ें खोदने पर आमाद नेपाल की युवा और मौजूदा पीढ़ी देश को आग में स्वाहा करके सोच रही है कि उसने शायद कोई दुश्मन देश जीत लिया है. नहीं ऐसा नहीं है यही तो नेपाली जनमानस, विशेषकर युवा पीढ़ी की बेवकूफी भरी सोच या समझ है. अपने ही देश को आग के हवाले करके बेशक भ्रष्ट नेताओं से कुछ समय के लिए नेपाल की युवा पीढ़ी ने अपने दिल में धधक रही आग शांत कर ली हो. मगर इसके दूरगामी परिणाम तो अब आगे धीरे धीरे इसी नेपाली युवा पीढ़ी के सामने आएंगे. जब नेपालियों द्वारा ही खुद के हाथों जला डाले गए नेपाल को दुबारा अपने पांवों पर खड़ा करने की नौबत आएगी.
कई पीढ़ी भुगतेगा खामियाजा
दो तीन दिन तक अपने ही देश में कोहराम, हिंसा, गोलीबारी, अग्निकांड में नेपाल को तबाह बर्बाद स्वाहा करने वाली कम-अक्ल युवा पीढ़ी को यह समझाने-बताने वाला तो कोई है ही नहीं, कि अपने आप अपना देश जलाकर तुमने कोई बहादुर नहीं सबसे बड़ी मूर्खता की है. जिसका खामियाजा तो नेपाल की आने वाली कई पीढ़ियों को भुगतना होगा. मगर बर्बाद नेपाल को अपनी बैसाखियां देने की आड़ में धूर्त अमेरिका और चालाक चीन, नेपाल से आइंदा क्या क्या और किस रूप में वसूलेगा? इसका अंदाजा नेपाल की उस युवा और गुस्सैल पीढ़ी को कतई नहीं है, जो आज अपने ही हाथों अपने देश को आग लगाकर, इसे अपनी जीत या बहादुरी की अविस्मरणीय यादगार समझ रही होगी.
इस खूनी हिंसात्मक आंदोलन में घी डालने वाली युवा पीढ़ी और उनके अंधे-बहरे-गूंगे मूर्ख मार्गदर्शकों ने एक बार भी यह तो सोचा होता कि, हम अपने ही हाथों अपने देश को आग में झोंककर क्यों तबाह करें? लोकतंत्र के नाम पर अपने अपने घर भर रहे भ्रष्ट नेताओं का नाम-ओ-निशां मिटा देने के और भी तो तमाम रास्ते हो सकते थे. सिर्फ और सिर्फ देश को आग में झोंककर, खुद को और अपने देश को कई दशक पीछे ले जाकर पटक देने में आज की गुस्सैल और कम-अक्ल युवा पीढ़ी ने कौन सी बहादुरी की मिसाल कायम कर दी. यह तो वही हुआ कि मानों जैसे “घर फूंक कर तमाशा” देखना.
कोई और रास्ता अपनाते
देश से भ्रष्ट नेताओं और भ्रष्टाचार को मिटाने के रास्ते अगर खोजे जाते तो जरूर मिल सकते थे. इससे न नेपाल जलता न उसका जनमानस इस आग में झुलसने को बेबस होता. जिस चीन और अमेरिका की दम पर अब तक भारत से मुंह मोड़कर नेपाल और उसके हुक्मरान मुस्करा रहे थे. कहां था वो अमेरिका और चीन जब उसका अपना प्यारा ‘नेपाल’ अपनों के ही हाथों आग में फूंका जा रहा था? क्यों नही आगे आया अपनों के ही द्वारा जलाए-फूंक जा रहे नेपाल को बचाने अमेरिका और चीन? और फिर इन दोनो मक्कार देशों के आगे न आने का शिकवा भी क्या? कोई उनका देश तो जल नहीं रहा था. जल तो वह नेपाल रहा था जिसके निकम्मे और भ्रष्ट नेता, चीन और अमेरिका की ओर हमेशा कटोरे में अरबों रुपए की सालाना “भीख” मिलने की उम्मीद में टकटकी बांधे देखते रहते थे. ताकि पूरे देश को गरीबी-भुखमरी-बेरोजगारी के तंदूर में झोंके रहकर, अमेरिका-चीन से मिलने वाली भीख को अपने और अपनों के खजानों में भर सकें.
जब अपने नेपाल को अपने ही हाथों से आग में झोंकने की बात नेपालियों को याद रही. तब फिर वे यह कैसे क्यों भूल गए कि अपने ही देश को आग में झोंकने से आखिर तबाही बर्बादी बदनामी दुनिया में किसकी होगी? न तो भारत की न अमेरिका या चीन की. लुटा-पिटा बर्बाद तो अपनों के हाथों खुद नेपाल ही हुआ न. फिर आखिर नेपालियों ने नेपाल को आग में झोंककर खुद ही क्यों उसे जला-फूंक डाला. यह कौन सी शाबासी देने वाली बात हुई. देश से भ्रष्ट नेताओं और भ्रष्टाचार को साफ करने के लिए ऐसा भी तो कोई रास्ता निकाल सकते थे ताकि, सांप भी मर जाता और लाठी भी टूटती नहीं.
भारत में इस वक्त है खामोश
बहरहाल, जो भी हो कुल जमा यह तय है कि बीते कुछ साल से जिस नेपाल को अपना सबसे बड़ा शुभचिंतक, मजबूत और ईमानदार हर सुख दुख का साथी भारत उसकी आंखों में करकने लगा था, वह भारत में इस वक्त खामोश है. शायद इस इंतजार में कि जिस चीन और अमेरिका का गुणगान करते जो नेपाल नहीं थकता था. अब आज का जल-फुंक चुका वही नेपाल देखें कैसे और क्या मदद हासिल कर पाता है चीन और अमेरिका से? और इस मदद के बदले में नेपाल को क्या कुछ बदले में चुकाना पड़ेगा अमेरिका और चीन को. कुल जमा अगर यह कहूं कि नेपाल की युवा पीढ़ी ने जमाने में सबसे बड़ी भूल की है, अपनी बेहूदा-बेसिर-पैर की “जिद” को अपनी “जीत” में बदलने की अंधी-गूंगी-बहरी मैली मंशा में, अपने देश को अपने ही हाथों से आग में फूंक डालने की. तो गलत नहीं होगा.
आज नेपाल को अपनों ने ही आग में झोंककर कई दशक पीछे धकेल दिया है. जो नेपाल कालांतर में लंबे समय से अपने पांवों पर कभी खड़ा ही नहीं हो पा रहा था. मदद के लिए वह हमेशा भारत की ओर ही कातर दृष्टि से देखता रहता. अब उस नेपाल को तो अपनों ने ही तबाह-बर्बाद कर डाला है. सवाल यह है कि जो नेपाल हमेशा से कौड़ी-कौड़ी के लिए मोहताज था. जो नेपाल बेरोजगारी, गरीबी-भुखमरी और भ्रष्टाचार की की कच्ची डोरी से बंधा झूल रहा था. अब इस हाल में बर्बाद हुए ऐसे नेपाल का उद्धार कौन क्यों और कैसे करेगा?