ऐसे पढ़कर बढ़ेगा समाज? 6 लाख बच्चों के लिए सिर्फ एक टीचर, 81 स्कूलों में कोई बच्चा नहीं; यूपी में खुली शिक्षा व्यवस्था की पोल
यूपी में स्कूलों की हालात बेहाल है. इतने बड़े राज्य में 6 लाख से ज्यादा बच्चे आज भी सिर्फ एक-एक शिक्षक के भरोसे पढ़ाई कर रहे हैं. वहीं, 81 स्कूल ऐसे भी हैं जहां एक भी बच्चा नहीं है. हालिया रिपोर्ट ने साफ कर दिया है कि शिक्षा व्यवस्था कागजों पर तो चमकदार दिखती है, लेकिन जमीनी हकीकत बच्चों के भविष्य के साथ बड़ा मज़ाक करती नज़र आती है.;
कल्पना कीजिए एक क्लास है और उसमें सौ से ज्यादा बच्चे बैठे हैं. किसी की आंखों में डॉक्टर बनने का सपना है. कोई इंजीनियर बनना चाहता है. कोई बस इतना चाहता है कि ठीक से लिखना-पढ़ना सीख जाए. लेकिन सामने ब्लैकबोर्ड पर खड़ा है सिर्फ एक टीचर. वही गणित भी पढ़ा रहा है. वही हिंदी भी. वही बच्चों की कॉपी भी चेक कर रहा है और वही हाजिरी भी ले रहा है.
यही है उत्तर प्रदेश के स्कूलों की हकीकत. यूनिफाइड डिस्ट्रिक्ट इन्फॉर्मेशन सिस्टम फॉर एजुकेशन प्लस (UDISE+) 2024-25 की रिपोर्ट बताती है कि यूपी में 9,508 स्कूल ऐसे हैं, जहां पूरा का पूरा स्कूल सिर्फ एक शिक्षक के भरोसे चल रहा है. और यह शिक्षक अकेला 6.2 लाख बच्चों की जिम्मेदारी उठा रहा है. यह आंकड़े और भी डराने वाले हैं. कई स्कूलों की हालात ऐसी है, जहां टीचर तो है, लेकिन बच्चे नहीं.
अकेले शिक्षक की जंग
देशभर में करीब 1 लाख स्कूल सिर्फ एक शिक्षक के सहारे चल रहे हैं. इनमें यूपी अकेले 9% स्कूल और 18% छात्रों का बोझ उठा रहा है. यानी यूपी इस संकट का सबसे बड़ा चेहरा बन चुका है. जबकि पड़ोसी दिल्ली और हरियाणा की तस्वीर इससे बिल्कुल अलग है. दिल्ली के 5,556 स्कूलों में सिर्फ 62 ही ऐसे हैं, जहां एक शिक्षक है. हरियाणा में 23,494 स्कूल हैं, लेकिन इनमें सिर्फ 1,066 में ही सिंगल-टीचर व्यवस्था है. यह तुलना साफ करती है कि यूपी की शिक्षा व्यवस्था कितनी बड़ी चुनौती का सामना कर रही है.
81 स्कूल में कोई छात्र नहीं, लेकिन 56 टीचर
रिपोर्ट कहती है कि यूपी में कुल 2.6 लाख स्कूल, 4.3 करोड़ छात्र और 16.2 लाख शिक्षक हैं. कागज पर तो औसतन हर स्कूल में छह शिक्षक और 163 छात्र आते हैं. लेकिन असल तस्वीर इससे बिल्कुल उलट है. कहीं सिर्फ एक शिक्षक है तो कहीं पूरे स्कूल में कोई छात्र ही नहीं. जी हां, रिपोर्ट के मुताबिक यूपी के 81 स्कूल ऐसे हैं जिनमें एक भी छात्र दर्ज नहीं है, लेकिन वहां 56 शिक्षक अब भी तैनात हैं. सवाल उठता है कि इन शिक्षकों का काम क्या है और इन स्कूलों को चालू रखने का औचित्य क्या है.
धीमी भर्ती है कारण
गाजियाबाद शिक्षक संघ के सदस्य लैइक अहमद बताते हैं कि लगातार रिटायरमेंट और धीमी भर्ती की वजह से यह स्थिति और भी खराब होती जा रही है. यूपी सरकार ने आखिरी बार 2011 की टीईटी परीक्षा के आधार पर करीब 70 हजार सहायक अध्यापक नियुक्त किए थे. उसके बाद से भर्ती की रफ्तार लगभग थम गई. मार्च में आई एक रिपोर्ट ने गाजियाबाद की स्थिति उजागर की थी कि यहां 30 प्राथमिक स्कूल बिना प्रिंसिपल के चल रहे हैं और 25 स्कूलों में सिर्फ एक शिक्षक है. अप्रैल में और 10 शिक्षकों के रिटायर होने की संभावना ने संकट को और गहरा कर दिया.
लड़कियों की शिक्षा और टॉयलेट की चुनौती
रिपोर्ट का दूसरा बड़ा पहलू लड़कियों की शिक्षा से जुड़ा है. यूपी के 7,087 स्कूल (5.2%) में आज भी लड़कियों के लिए टॉयलेट नहीं हैं. और जहां हैं भी, उनमें से हजारों बंद पड़े हैं. आंकड़े बताते हैं कि 1,36,979 सरकारी या को-एड स्कूलों में लड़कियां पढ़ती हैं. इनमें से 97.3% में टॉयलेट बने जरूर हैं लेकिन सिर्फ 94.8% ही काम कर रहे हैं. यानी 3,668 स्कूलों में टॉयलेट बने ही नहीं और 3,419 स्कूलों में बने तो हैं लेकिन काम के नहीं. किशोरावस्था की लड़कियों के लिए यह समस्या सीधे-सीधे स्कूल छोड़ने का कारण बन रही है.
डिजिटल इंडिया का अधूरा सपना
आज जब देश डिजिटल एजुकेशन की बात कर रहा है, यूपी के स्कूलों की हालत इस सपने से कोसों दूर है. राज्य में 1.37 लाख सरकारी स्कूल हैं लेकिन इनमें से सिर्फ 4,729 यानी 3.4% के पास कंप्यूटर हैं. सरकारी सहायताप्राप्त स्कूलों में यह आंकड़ा 37.7% और प्राइवेट स्कूलों में करीब 40% है. यानी डिजिटल शिक्षा का बोझ निजी स्कूलों के कंधों पर है. लैपटॉप और टैबलेट की स्थिति और भी निराशाजनक है. पूरे यूपी के सिर्फ 0.8% सरकारी स्कूलों के पास लैपटॉप हैं. टैबलेट जरूर 44.8% तक पहुंचाए गए हैं लेकिन शिक्षक खुद इन्हें इस्तेमाल करने में झिझकते हैं. नतीजा यह है कि लाखों रुपये खर्च करने के बावजूद बच्चे तकनीक से वंचित रह जाते हैं.
टीचर टैबलेट चलाने से अनजान
डंकोर के एक सरकारी शिक्षक ने बताया कि 'टैबलेट बंटे तो हैं लेकिन ज्यादातर अध्यापकों को इन्हें इस्तेमाल करना ही नहीं आता. हमें पहले खुद सीखने की जरूरत है तभी हम बच्चों को सिखा पाएंगे. गांवों में तो इंटरनेट की समस्या अलग है. ऐसे में डिजिटल इंडिया का सपना बच्चों तक कैसे पहुंचेगा.'
स्मार्ट क्लासरूम का ख्वाब
1.4 लाख सरकारी स्कूलों में सिर्फ 28,558 के पास ही स्मार्ट क्लासरूम हैं. यानी 79% स्कूल आज भी चॉक और डस्टर से ही ज्ञान की रोशनी बांट रहे हैं. जबकि नई शिक्षा नीति डिजिटल लर्निंग पर जोर देती है. ज्यादातर जगहों पर CSR फंडिंग से कंप्यूटर खरीदे जाते हैं लेकिन शिक्षक-प्रशिक्षण के बिना ये महज शोपीस बनकर रह जाते हैं.
शिक्षा का भविष्य किसके भरोसे?
यूपी के स्कूलों की यह तस्वीर चेतावनी है. अगर समय रहते शिक्षक भर्ती, डिजिटल इंफ्रास्ट्रक्चर और आधारभूत सुविधाओं पर निवेश नहीं हुआ तो आने वाली पीढ़ी का भविष्य अंधेरे में डूब सकता है. शिक्षा सिर्फ आंकड़ों से नहीं चलती. इसे जीने और सिखाने वाले शिक्षक चाहिए. अगर एक-एक शिक्षक से सैकड़ों बच्चों का भविष्य बंधा रहेगा तो शिक्षा का स्तर गिरना तय है. सवाल यही है कि 21वीं सदी में भी क्या हम अपने बच्चों को एक शिक्षक और टूटी-फूटी दीवारों वाले स्कूलों के भरोसे छोड़ देंगे.