चिराग vs तेजस्वी: दोनों युवा चेहरों का शक्ति प्रदर्शन, बिहार के चुनावी मैदान में कौन कितना बेहतर?
बिहार में विधानसभा चुनाव 2025 से पहले चिराग पासवान और तेजस्वी यादव ने रैलियों के ज़रिए अपनी-अपनी जातीय और सामाजिक पकड़ दिखाएंगे. चिराग ने दलितों को साधा, तो तेजस्वी ने वैश्य सम्मेलन से व्यापारी वर्ग को लुभाया. वहीं, वक्फ बिल और शिवाजी स्मारक पर विरोध ने चुनावी माहौल और गर्मा दिया है. हर मोर्चे पर सियासी तैयारी तेज हो गई है.;
बिहार की राजनीति में रविवार का दिन ‘सुपर संडे’ बनकर आया, जहां राज्य के दो प्रमुख नेता चिराग पासवान और तेजस्वी यादव अलग-अलग जिलों में विशाल जनसभाओं से विधानसभा चुनाव 2025 का बिगुल फूंकते नजर आएंगे. इन रैलियों का मकसद सिर्फ शक्ति प्रदर्शन नहीं, बल्कि एक साफ रणनीति के तहत जातीय और सामाजिक वर्गों को साधने की कोशिश है. जनता अब यह देखने को बेताब है कि इन रैलियों के बाद बिहार की सियासत किस करवट लेती है.
पटना के बापू सभागार में तेजस्वी यादव ने 'वैश्य प्रतिनिधि सम्मेलन' को संबोधित कर एक स्पष्ट संदेश देना चाहते हैं. आरजेडी अब पारंपरिक यादव-मुस्लिम समीकरण से आगे जातिगत विस्तार चाहती है. तेजस्वी लगातार बेरोजगारी, शिक्षा, पलायन और वोटर लिस्ट में गड़बड़ियों को लेकर नीतीश सरकार पर हमला बोलते आ रहे हैं. उनका फोकस सामाजिक न्याय के नाम पर व्यापारिक समुदाय तक पैठ बनाना है. यह RJD के भीतर जातिगत विविधता लाने की लंबी योजना का हिस्सा है.
चिराग पासवान की हुंकार
राजगीर में आयोजित ‘बहुजन भीम समागम’ में चिराग पासवान ने तीन लाख से अधिक कार्यकर्ताओं और समर्थकों के सामने खुद को दलितों के सबसे प्रासंगिक और प्रभावशाली नेता के रूप में पेश करने जा रहे हैं. 'बिहार फर्स्ट, बिहारी फर्स्ट' नारे के साथ वह अपने पिता रामविलास पासवान की विरासत को दोहराते नजर आएंगे. एनडीए में उनकी बढ़ती ताकत से जेडीयू में बेचैनी साफ झलक रही है.
एनडीए-महागठबंधन में गहराता असंतुलन
बिहार में एनडीए और महागठबंधन दोनों ही ध्रुव अपनी-अपनी अंदरूनी चुनौतियों से जूझ रहे हैं. चिराग की विधानसभा में दखल की तैयारी से एनडीए में हलचल मची है, तो वहीं तेजस्वी अपनी गठबंधन सरकार के विघटन के बाद नई सामाजिक धाराएं तैयार करने में जुटे हैं. वैश्य सम्मेलन और बहुजन रैली दोनों संकेत दे रहे हैं कि अगला चुनाव सिर्फ जातियों के गणित पर नहीं, बल्कि गठबंधन की स्थिरता पर भी निर्भर करेगा.
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भावनात्मक मुद्दों का सियासी इस्तेमाल
बिहार की राजनीति इन दिनों सिर्फ जातिगत लामबंदी तक सीमित नहीं है, बल्कि भावनात्मक और धार्मिक मुद्दों का इस्तेमाल भी जोरों पर है. एक तरफ पटना के गांधी मैदान में ‘वक्फ बचाओ, दस्तूर बचाओ’ रैली में हजारों मुसलमान वक्फ संशोधन अधिनियम का विरोध करते दिख रहे हैं, तो दूसरी ओर बेगूसराय में शिवाजी स्मारक को लेकर विरोध प्रदर्शन उग्र हो गया है. दोनों घटनाएं चुनावी ‘मोबिलाइज़ेशन’ का हिस्सा हैं जो सरकारों की नीतियों पर जनता के गुस्से को भुनाने का मंच बन रही हैं.
मैदान में उतरे मुद्दे: बेरोजगारी, पहचान और न्याय
तेजस्वी यादव के लिए बेरोजगारी और पलायन जैसे मुद्दे चुनावी हथियार बन चुके हैं, जबकि चिराग पासवान दलित पहचान और अधिकारों की राजनीति से अपनी जमीनी पकड़ मजबूत कर रहे हैं. साथ ही, वक्फ कानून और सांस्कृतिक स्मारकों पर मचे बवाल से यह साफ हो गया है कि जनता अब भावनात्मक और रोजमर्रा के मुद्दों पर एक साथ प्रतिक्रिया दे रही है. यह बदलाव बिहार के वोटिंग पैटर्न को प्रभावित कर सकता है.
चुनावी शतरंज की अगली चाल का इंतजार
बिहार विधानसभा चुनाव 2025 अभी दूर है, लेकिन आज का ‘सुपर संडे’ बताता है कि हर दल और नेता अपनी-अपनी बिसात बिछा चुके हैं. तेजस्वी यादव सामाजिक न्याय और धर्मनिरपेक्षता की बुनियाद पर आगे बढ़ना चाहते हैं, जबकि चिराग पासवान नई पीढ़ी के दलित नेतृत्व की आकांक्षा के साथ उभरे हैं. वहीं भावनात्मक मुद्दों की आंच भी धीरे-धीरे राजनीतिक रसोई को गरमा रही है. अब देखना है अगली चाल कौन चलता है और जनता किसे मात देती है.