रहने दो! BJP के बस की बात नहीं, बिहार में बना ले अकेले दम पर सरकार, जानें क्यों?

Bihar Assembly Election: बिहार की राजनीति में धर्मनिरपेक्षता और सामाजिक न्याय की भावना इतनी गहरी है कि बीजेपी आजादी के 78 साल बाद भी वहां हिंदुत्व का झंडा गाड़ने के लिए संघर्ष कर रही है. यही वजह है कि बिहार में हर संभव कोशिश के बाद भी बीजेपी इस बार भी अकेले दम पर सरकार बनाने की स्थिति में नहीं है.;

By :  धीरेंद्र कुमार मिश्रा
Updated On : 1 Aug 2025 7:00 PM IST

देश में बिहार का सियासी परिवेश एक अलग ही पहचान रखता है. मंडल कमंडल दौर के बाद भाजपा ने अपने हिंदुत्व के एजेंडे को हिंदी क्षेत्र के अधिकांश हिस्सों में चाहे वह उत्तर प्रदेश हो, मध्य प्रदेश हो या राजस्थान, सफलतापूर्वक लागू कर लिया, लेकिन दशकों में काफी प्रयास के बावजूद वह देश के पूर्वी राज्य में अपना प्रभुत्व स्थापित करने में असमर्थ रही है. बिहार विधानसभा चुनाव 2025 में होने वाले विधानसभा चुनाव में बीजेपी का प्रदर्शन काफी हद तक समाज में उसकी हिंदुत्व अपील की इसी गहराई पर निर्भर करेगा.

दरअसल, 1990 के दशक में भारत की राजनीति दो धाराओं में बंट गई. एक तरफ मंडल आयोग की सिफारिशों के जरिए पिछड़े वर्गों को आरक्षण और सामाजिक भागीदारी दी गई तो दूसरी ओर कमंडल आंदोलन के जरिए राम मंदिर जैसे मुद्दों से हिंदू एकता का भाव जगाया गया.

बिहार पूरे देश से अलग क्यों?

देश की राजनीति में मंडल आयोग की सिफारिशें लागू कराने का क्रेडिट लालू यादव को जाता है. उन्होंने सामाजिक न्याय, ओबीसी नेतृत्व और 'भूरा बाल साफ करो' जैसे नारों से ब्राह्मण-बनिया-राजपूत-कायस्थ प्रभुत्व को 1990 के दशक में चुनौती दी थी. बिहार की राजनीति में जातीय समीकरण बेहद मजबूत हैं. यहां वोट न हिंदू-मुस्लिम में बंटते हैं, न ही सीधे राष्ट्रवाद पर. बिहार में वोट यादव, कुर्मी, कोयरी, कुशवाहा, ब्राह्मण, राजपूत, कायस्थ, भूमिहार, पासवान, मुशहर, मल्लाह जैसे समुदाय राजनीतिक शक्ति के केंद्र बने हुए हैं.

शिक्षा और शहरीकरण का धीमा विकास

धार्मिक राष्ट्रवाद तब फलता है जब समाज शिक्षा, मीडिया और विचारधारा से उस दिशा में ढल चुका हो. बिहार में अभी भी रोजगार, आरक्षण, जातिगत हक और सरकारी योजनाएं मुद्दे बनते हैं.

यूपी और बाकी राज्यों में क्यों बदला ट्रेंड?

UP में हिंदुत्व की पकड़ योगी आदित्यनाथ जैसे चेहरे और राम मंदिर निर्माण जैसे मुद्दों ने वहां कमंडल को मजबूत किया. जातीय समीकरण को धार्मिक एकता में बदला गया. बीजेपी, बजरंग दल, वीएचपी, युवा वाहिनी और अन्य हिंदूवादी संगठनों ने "जात-पात छोड़ो, हिंदू बनो" का नारा दिया और चला भी. उस दौर में ओबीसी से कल्याण सिंह जैसे लोध नेता बीजेपी को मिले.

 

दूसरी तरफ सोशल मीडिया और टीवी ने धार्मिक एजेंडे को तेजी से फैलाया. जिसमें यूपी, एमपी महाराष्ट्र जैसे राज्य आसानी से बह गए, लेकिन बिहार में इंटरनेट की पहुंच और डिजिटल असर देर से हुआ.

बिहार क्यों लगता है अलग-थलग?

हकीकत यह है कि बिहार मंडल आंदोलन से बंधा हुआ राज्य है. आज भी आरजेडी, जेडीयू, हम जैसे दल मंडल की राजनीति को अपना मूल आधार मानते हैं. यही वजह है कि बीजेपी को भी यहां ओबीसी नेताओं (नीतीश, सम्राट चौधरी, गिरिराज सिंह) को आगे करना पड़ता है.

क्या कमंडल की एंट्री संभव है?

बिहार की राजनीति की एक सच्चाई और है कि धार्मिक मुद्दों पर यहां का मतदाता भावुक नहीं होता. इस मामले में यहां का मतदाता व्यावहारिक होता है. राम मंदिर, धारा 370, सीएए जैसे मुद्दों की गर्मी यहां ज्यादा नहीं चलती.

बदलाव की संभावना है, लेकिन उसमें अभी समय लगेगा.

'बिहार सामाजिक न्याय की आखिरी चौकी'

बीजेपी की कोशिश जारी है कि धार्मिक राष्ट्रवाद को OBC और दलित नारों में ढाला जाए. जैसे 'गरीबों का मंदिर', 'हर घर गंगाजल', 'अयोध्या दर्शन योजना'. लेकिन जब तक सामाजिक न्याय की भूख जिंदा है, मंडल हावी रहेगा. बेरोजगारी, आरक्षण, जातीय प्रतिनिधित्व और पिछड़ों की हिस्सेदारी जैसे मुद्दे बिहार को बाकी राज्यों से अलग बनाते रहेंगे. यही वजह है कि बिहार देश की ‘राजनीतिक प्रयोगशाला’ नहीं,बल्कि 'सामाजिक न्याय की आखिरी चौकी है.

जातीय आत्मगौरव प्रदेश की पहचान

बिहार का मतदाता अपनी जाति की सामाजिक, राजनीतिक हैसियत को पहले रखता है. चाहे वो यादव हो या पासवान, कुशवाहा हो या सवर्ण.

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