बिहार में कमजोर पड़ गई 'जाति' की डोर! इससे परे जाकर कौन करेगा वोट?
बिहार की राजनीति में जातीय समीकरण अब पहले जैसे असरदार नहीं रहे. इसके संकेत भी मिलने लगे हैं. खासकर महिला और युवा मतदाता अब विकास, रोजगार, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे मुद्दों को तरजीह देने लगे हैं. ऐसे में यह सवाल है कि क्या बिहार विधानसभा चुनाव में जाति की डोर कमजोर पड़ने लगी हैं? अगर ऐसा है तो इसका चुनावी नतीजों पर असर भी देखने को मिल सकता है.;
बिहार की सियासत में 'जाति' सबसे बड़ी सच्चाई है. दशकों से वहां की राजनीति जातीय समीकरणों पर ही टिकी है. हर चुनाव में नेता 'जाति' के आधार पर अपनी रणनीति बनाते रहे हैं, लेकिन बदलते वक्त के साथ अब बिहार में हालात बदलने के संकेत मिलने लगे हैं. नई पीढ़ी का बड़ा तबका जातीय बंधनों से ऊपर उठकर अपने मुद्दों पर वोट करने संकेत दे रहे हैं. यह बदलाव आने वाले चुनावी नतीजों में बड़ा असर डाल सकता है. इसका मतलब यह नहीं है कि दशकों से चली आ रही व्यवस्था यानी 'जाति' का असर रातोंरात खत्म नहीं होगी. इसके बावजूद परिवर्तन के संकेत शुभ हैं. जातिवादी नेताओं के लिए भले ही न हों, लेकिन बिहार की जनता के लिए यह सही मायने में गौर करने की बात है.
बिहार में 'जाति व्यवस्था' कमजोर पड़ने का सबसे सबसे ठोस सबूत चुनाव में साल 2014 के बाद से महिला मतदाताओं की भागीदारी में बढ़ोतरी है. महिलाएं मतदाता पिछले एक दशक के दौरा हुए चुनावों में 59 से 60 प्रतिशत मतदान किया. वहीं पुरुष मदाताओं ने 53 से 55 प्रतिशत तक मतदान किया. सिर्फट वोटिंग में ही नहीं, चुनावी मुद्दों को तय करने में भी अब महिलाओं का असर देखने को मिल रहा है. महिलाओं की प्राथमिकताओं में नागरिक सुरक्षा, सामाजिक, कानून-व्यवस्था, ?रोजगार के नए साधन, शराबबंदी, और आर्थिक मुद्दे ज्यादा मायने रखते हैं.
वुमन वोटर्स ट्रेंडसेटर्स
पिछले कई चुनावों में बिहार की महिला मतदाता सबसे सुर्खियों में रही हैं. महिलाएं अक्सर घर और खेतों की देखभाल के लिए अपने-अपने घरों में रहती हैं. वहीं पुरुष गुजरात, महाराष्ट्र, दिल्ली आदि राज्यों में कमाई के लिए चले जाते हैं. इसका लाभ उठाकर बड़ी संख्या में महिलाएं मतदान करने लगी हैं. महिलाओं के इस रुा के बाद बिहार की बदहाल राजनीति में सबसे खूंखार बाहुबली भी अब अपने गुंडों पर लगाम लगाने को मजबूर हैं, कहीं ऐसा न हो कि इससे महिला मतदाता नाराज हो जाएं.
संख्या के लिहाज से बिहार में 7.64 करोड़ मतदाता हैं. इनमें 4 करोड़ पुरुष और 3.64 करोड़ महिलाएं हैं, लेकिन महिला मतदाताओं की संख्या बढ़ रही है. साल 2020 के विधानसभा चुनावों में कुल पंजीकृत पुरुष मतदाता 54.6 प्रतिशत थे. जबकि महिला मतदाता 59.7 प्रतिशत थीं. साल 2015 में भी पुरुषों ने 51.1 प्रतिशत और महिलाओं ने 60.4 प्रतिशत मतदान किया था. हालांकि, नीतीश के शराबबंदी के लाभ कम होते जा रहे हैं. अब शराब आसानी से उपलब्ध है और ज्यादातर नकली शराब के कारण लोगों को परेशानी हो रही है.
प्रत्याशी का क्रेडिट यूथ की नजर में अहम
बिहार में लगभग 9 से 10 लाख 18-19 आयु वर्ग के मतदाता हैं. इन युवाओं की नजर में जाति की कोई अहमियत नहीं है. हालांकि, इनमें से कई गर्व से अपने जातिगत इतिहास और ऐतिहासिक हस्तियों से जुड़ते हैं, लेकिन वे अपने क्षेत्र के बेहतर विकास, अपने घरों के पास रोजगार के अवसरों और एक उज्जवल भविष्य को लेकर चिंतित हैं. चुनाव आयोग का एक सर्वेक्षण बताता है कि केवल 4.2 प्रतिशत मतदाताओं ने उम्मीदवार की जातिगत पृष्ठभूमि के आधार पर मतदान किया. कम से कम 32.2 प्रतिशत ने दावा किया कि उनकी जाति या पार्टी का कोई निश्चित विकल्प नहीं था. उन्होंने केवल उम्मीदवार के आधार पर मतदान किया.
जाति निरपेक्ष चुनाव पर कौन दे रहा जोर?
चुनाव रणनीतिकार प्रशांत किशोर द्वारा स्थापित राजनीतिक दल, जन सुराज की प्राथमिकता भी जाति के बंधनों को तोड़कर मतदान पर जोर दे रहा है. जन सुराज पार्टी ने खुद को जाति-निरपेक्ष दिखाने की कोशिश की है. लोगों को जाति और समुदाय की वफादारी में फंसने के बजाय बुनियादी मानवीय सम्मान और नागरिक सुविधाओं की मांग करने के लिए प्रेरित किया है. हालांकि, उप चुनाव में पार्टी का चुनावी आगाज निराशाजनक रहा. उसे बमुश्किल 10 प्रतिशत वोट मिले. लेकिन जन सुराज की मुहिम ने जातिगत सीमाओं से परे एक बहस छेड़ दी है.
अहम सवाल: बदलाव ऊपर से आएगा या नीचे से
इसी तरह आरजेडी नेता तेजस्वी यादव पिछले कुछ सालों से अपनी पार्टी का नेतृत्व कर रहे हैं. वह पूर्व उप-मुख्यमंत्री रहे हैं. चिराग पासवान अपने पिता द्वारा स्थापित पार्टी की पूरी कमान संभाल रहे हैं. नीतीश कुमार के बेटे निशांत कुमार पिछले कुछ समय से सक्रिय हो गए हैं. इन तीनों के पास जाति-निष्ठ वोट बैंक है, जिस पर वे भरोसा कर सकते हैं. लेकिन क्या वे राज्य के मतदाताओं को एक उज्जवल भविष्य की ओर ले जाने का दमखम उनके पास है.
बिहार में जातिगत चुनाव का इतिहास
बिहार में बहुत कम चुनाव हुए जब मतदाता अपनी मजबूत जातिगत सांचों को स्पष्ट रूप से तोड़ पाए. जबकि अलग-अलग खेमों के बीच बदलाव साफ दिखाई दे रहे थे. लोकसभा चुनाव में 1977, 1984, 1989 और 2014 के चुनावों में मतदाताओं ने जातिगत प्राथमिकताओं को बदलते हुए देखा. लोकसभा चुनाव 2019 भी इसी रुझान को दर्शाते हैं. जब एनडीए (भाजपा-जेडीयू) ने 40 लोकसभा सीटों में से 39 पर जीत हासिल की. 1990 के दशक में जेपी के बाद के सामाजिक न्याय आंदोलन के तीन स्तंभ लालू प्रसाद, नीतीश कुमार और दिवंगत रामविलास पासवान एक ही खेमे का हिस्सा थे. केवल सुशील मोदी बीजेपी से जुड़े थे. हालांकि अब वो इस दुनिया में नहीं हैं. ये बात भी सच है कि इन्हीं लोगों के दौर में जातिवादी राजनीति चरम पर देखने को मिला.
पहला बड़ा बदलाव 2000 में आया जब नीतीश कुमार ने एनडीए सरकार बनाई. 2005 में उनका गठबंधन उस समय और ज्यादा मजबूत हुआ, जब तथाकथित ऊंची जातियों और गैर-यादव ओबीसी के एक बड़े हिस्से ने लालू-कांग्रेस गठबंधन का साथ छोड़ दिया. यह मतदाताओं के किसी खास फैसले से ज्यादा जाति तरजीह न देने वाला फैसला था. यही वजह है कि बिहार में जाति बंधन कमजोर होने को लेकर चर्चा सुर्खियों में है.
जाति बंधन कमजोर हुआ, लाभ किसे मिलेगा तय नहीं
वरिष्ठ पत्रकार और शिक्षाविद ने नाम न छापने की शर्त पर बताया कि बिहार में जाति सबसे बड़ी सच्चाई है, लेकिन ये भी उतना ही सच है कि महिलाओं और युवाओं को बड़ा तबका जाति से पहले की तरह इंटैक्ट नहीं है. जन सुराज पार्टी के प्रमुख प्रशांत किशोर के जाति निरपेक्ष अभियान का असर बिहार में दिखाई दे रहा है. इतना तय है कि पीके की पार्टी हर सीट पर कम से कम पांच हजार वोट हासिल करने में कामयाब होगी. उन्होंने चौंकाने वाली बात ये कहा कि प्रशांत की मुहिम का नुकसान बीजेपी को होगा. ऐसा इसलिए कि यादव और मुसलमान प्रशांत किशोर से सहमत तो लगते हैं, पर वही लोग जन सुराज को वोट नहीं डालने की भी बात करते हैं. साफ है कि जाति बंधन तो कमजोर हो रहा है, पर इसका लाभ किसी मिलेगा यह तय नहीं है.