सुप्रीम कोर्ट ने देशभर के थानों में बंद पड़े CCTV कैमरों पर लिया स्वतः संज्ञान, हिरासत में मौतों पर जताई नाराजगी

सुप्रीम कोर्ट ने देशभर के थानों में बंद पड़े और खराब हालत में पड़े CCTV कैमरों के मुद्दे पर खुद संज्ञान लिया है. अदालत ने साफ किया कि थानों में लगे कैमरे सिर्फ औपचारिकता के लिए नहीं, बल्कि नागरिकों के अधिकारों और पुलिस की जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिए हैं. कोर्ट ने राज्यों और केंद्र से जवाब तलब करते हुए कहा है कि कानून-व्यवस्था की पारदर्शिता के लिए इन कैमरों का चालू रहना बेहद जरूरी.;

( Image Source:  Canva )
Edited By :  हेमा पंत
Updated On : 4 Sept 2025 12:36 PM IST

4 सितंबर 2025 की सुबह देश की सर्वोच्च अदालत ने एक अख़बार में छपी रिपोर्ट पढ़ते ही ऐसा कदम उठाया जिसने पूरे पुलिस तंत्र पर सवालिया निशान उठा दिया है. खबर में बताया गया कि देशभर के ज्यादातर थानों में अब भी सीसीटीवी कैमरे ठीक से काम नहीं कर रहे हैं.

उसी रिपोर्ट में एक और भयावह सच्चाई भी सामने आई. राजस्थान में पिछले 7–8 महीनों के दौरान पुलिस हिरासत में 11 लोग अपनी जान गंवा चुके हैं. यह आंकड़ा सुप्रीम कोर्ट के लिए चिंता का गंभीर विषय बन गया और अदालत ने तुरंत सुओ मोटू जनहित याचिका दायर कर मामले की जांच का आदेश दे दिया.

2020 का ऐतिहासिक आदेश 

दरअसल, सुप्रीम कोर्ट ने पहले ही 2020 में साफ आदेश दिया था कि देश के हर पुलिस स्टेशन में सीसीटीवी कैमरे लगने चाहिए. यह कैमरे नाइट विज़न और ऑडियो रिकॉर्डिंग की सुविधा से लैस होने चाहिए. साथ ही, अदालत ने यह भी तय किया था कि फुटेज कम से कम 18 महीने तक सुरक्षित रखा जाएगा, ताकि हिरासत में हुई यातना या मौत की जांच में किसी तरह की बाधा न आए.

क्या है आदेश की हकीकत

लेकिन पांच साल बाद भी ज़मीनी सच्चाई यह है कि कई थानों में कैमरे या तो लगे ही नहीं हैं या फिर बंद पड़े रहते हैं. कई मामलों में पुलिस “तकनीकी खराबी” या “फुटेज उपलब्ध नहीं” कहकर पल्ला झाड़ लेती है. यही ढिलाई अदालत की नज़र में अब असहनीय हो गई है.

हिरासत में मौतें और न्याय की पुकार

हिरासत में मौतें भारतीय न्याय व्यवस्था पर एक बड़ा सवाल हैं. जब कोई आरोपी पुलिस की पकड़ में होता है, तो उसकी सुरक्षा की जिम्मेदारी भी पुलिस पर ही होती है. लेकिन पिछले महीनों में बार-बार ऐसी घटनाएं सामने आईं जहां आरोपी थाने से जिंदा बाहर नहीं निकल पाए. राजस्थान के आंकड़े तो महज़ एक उदाहरण हैं, बाकी राज्यों की स्थिति भी चिंताजनक मानी जा रही है. अदालत ने साफ कहा कि निगरानी की कमी ही इन मौतों की जांच को कमजोर बना रही है और जिम्मेदारों को बच निकलने का मौका देती है.

निगरानी समितियों का रोल 

सुप्रीम कोर्ट ने 2020 में ही राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को निर्देश दिया था कि वे इस काम की निगरानी के लिए ओवरसाइट कमेटियां बनाएं. इन समितियों का काम कैमरों की खरीद, उनकी इंस्टॉलेशन और समय-समय पर उनकी कार्यप्रणाली की जांच करवा है. लेकिन हालात बताते हैं कि या तो ये समितियां एक्टिव नहीं हैं या फिर रिपोर्टों पर कार्रवाई नहीं हो रही. अदालत ने साफ कहा कि अब इन समितियों को कठोरता से काम करना होगा और हर मामले में जवाबदेही तय करनी होगी.

पीड़ित परिवारों के लिए उम्मीद की किरण

अदालत ने यह भी दोहराया कि जिन मामलों में गंभीर चोटें या हिरासत में मौत होती है, वहां पीड़ित या उनके परिवारजन सीधे मानवाधिकार आयोग या अदालत का दरवाज़ा खटखटा सकते हैं और इन संस्थाओं के पास पूरा अधिकार होगा कि वे संबंधित थाने से सीसीटीवी फुटेज मांग सकें. इससे जांच निष्पक्ष बनेगी और पुलिस पर निगरानी भी मजबूत होगी.

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