राष्ट्रपति-राज्यपाल की शक्तियों पर सुप्रीम कोर्ट की बड़ी टिप्पणी, कहा- समय सीमा तय नहीं कर सकता कोर्ट
सुप्रीम कोर्ट ने ऐतिहासिक निर्णय में स्पष्ट किया कि बिलों को मंजूरी देने के लिए राष्ट्रपति और राज्यपाल को किसी तय टाइमलाइन में नहीं बांधा जा सकता. अदालत ने कहा कि उनकी संवैधानिक भूमिका “जस्टिसेबल” नहीं और न्यायिक समीक्षा केवल तब संभव है जब बिल कानून बन चुका हो. तमिलनाडु मामले पर राष्ट्रपति की ओर से मांगी गई राय पर यह महत्वपूर्ण फैसला आया है, जो केंद्र-राज्य संबंधों और बिल मंजूरी प्रक्रिया पर बड़ा प्रभाव डालेगा.;
भारत के संवैधानिक ढांचे में राष्ट्रपति और राज्यपाल की भूमिका हमेशा से गहन बहस का विषय रही है. विधायी प्रक्रिया में उनकी मंजूरी से जुड़ी देरी को लेकर अनेक राज्यों में विवाद उठते रहे हैं, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने अब इस बहस को नई दिशा दे दी है. अदालत ने साफ कर दिया है कि देश की सर्वोच्च संवैधानिक प्राधिकारियों पर किसी प्रकार की समय-सीमा थोपना संविधान की मूल आत्मा के विपरीत है.
कई राज्यों में लंबित पड़े बिलों पर समयसीमा तय करने को लेकर उभरे विवादों के बीच सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि राष्ट्रपति और राज्यपाल की यह संवैधानिक भूमिका न्यायिक दबाव या समय-बंधन के अधीन नहीं की जा सकती. अदालत ने यह भी स्पष्ट किया कि उनकी कार्रवाई तभी न्यायिक समीक्षा के दायरे में आती है, जब बिल कानून का रूप ले चुका हो.
सुप्रीम कोर्ट का स्पष्ट संकेत: कोई टाइमलाइन नहीं
पांच जजों की संविधान पीठ ने कहा कि राष्ट्रपति और राज्यपाल को बिल की मंजूरी, विचार या पुनर्विचार के लिए किसी तय अवधि में बांधना संविधान के दायरे में नहीं आता. कोर्ट ने इसे "संविधान के विपरीत" बताया और कहा कि विधानसभा द्वारा पारित बिल पर विचार करना कार्यपालिका का संवैधानिक दायित्व है, लेकिन उसकी समय-सीमा तय नहीं की जा सकती.
सवालों से शुरू हुई बहस: राष्ट्रपति ने मांगी संवैधानिक व्याख्या
यह महत्वपूर्ण फैसला तब आया जब राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने तमिलनाडु मामले में आए दो- जजों की टिप्पणी पर सर्वोच्च अदालत से विस्तृत राय मांगी. उन्होंने पूछा था कि क्या राज्यपाल मंत्रिपरिषद की सलाह पर चलने को बाध्य हैं, जब उनके सामने कोई विधेयक अनुच्छेद 200 के तहत भेजा जाता है. यह पहली बार था जब राष्ट्रपति ने इतनी स्पष्टता से सुप्रीम कोर्ट से संवैधानिक मत मांगा.
संवैधानिक सुरक्षा कवच: Article 361 का संदर्भ
राष्ट्रपति ने अपने सवाल में अनुच्छेद 361 का हवाला दिया, जो बताता है कि राष्ट्रपति और राज्यपाल अपनी संवैधानिक शक्तियों के प्रयोग के लिए किसी अदालत में उत्तरदायी नहीं हैं. अदालत ने इस संदर्भ को स्वीकार करते हुए कहा कि यह प्रावधान स्पष्ट रूप से बताता है कि उनकी भूमिका न्यायिक हस्तक्षेप से काफी हद तक संरक्षित है.
"जस्टिसेबल नहीं": CJI गवई की अध्यक्षता वाली पीठ का मत
मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ के स्थान पर मौजूद CJI बी.आर. गवई की अध्यक्षता वाली पीठ ने कहा कि राष्ट्रपति और राज्यपाल के निर्णयों को तभी चुनौती दी जा सकती है जब बिल कानून बन चुका हो और उसके प्रभाव किसी के अधिकारों से टकरा रहे हों. अन्यथा प्रक्रिया के मध्य चरण में न्यायपालिका दखल नहीं दे सकती.
तमिलनाडु विवाद से उठा मुद्दा
तमिलनाडु के मामले में राज्यपाल द्वारा लंबित बिलों पर देर से मंजूरी देने को लेकर विवाद उठा था. निचली अदालत ने समयसीमा का सुझाव दिया था, जिससे यह भ्रम पैदा हुआ कि संवैधानिक प्राधिकारियों को भी टाइमलाइन में बांधा जा सकता है. सुप्रीम कोर्ट ने इस भ्रम को अब पूरी तरह खत्म कर दिया है और स्पष्ट किया है कि राज्यपाल व राष्ट्रपति की भूमिका सीमित नहीं की जा सकती.
संवैधानिक संतुलन को बरकरार रखने का प्रयास
यह फैसला न केवल राष्ट्रपति और राज्यपाल की भूमिका की पुन: व्याख्या करता है, बल्कि केंद्र और राज्यों के बीच शक्तियों के संतुलन को भी मजबूत करता है. सुप्रीम कोर्ट ने संकेत दिया है कि संवैधानिक पदों की स्वतंत्रता को बनाए रखते हुए ही लोकतंत्र सुचारू रूप से चल सकता है. साथ ही अदालत ने यह साफ किया कि राजनीतिक विवादों को संवैधानिक अधिकार क्षेत्र में बदलने की प्रवृत्ति पर रोक लगना जरूरी है.