1857 की बगावत की शेरनी, अंग्रेजों के दांत किए थे खट्टे, नाबालिग बेटे को बनाया था अवध का नवाब; पढ़ें बेगम हज़रत महल की कहानी
1820 में फैज़ाबाद में जन्मी महक परी, बेगम हज़रत महल बनकर 1857 की क्रांति की अग्रणी योद्धा बनीं. नवाब वाजिद अली शाह की बेगम से लेकर स्वतंत्रता संग्राम की शेरनी तक का उनका सफर साहस और स्वाभिमान की मिसाल है. लखनऊ की लड़ाई से लेकर नेपाल में निर्वासन तक, उनका हर कदम अंग्रेज़ों के खिलाफ बगावत का प्रतीक था. आप पढ़ रहे हैं 'आजादी के मुस्लिम परवाने' सीरीज की आठवीं पेशकश, जिसमें मुझे यानी बेगम हज़रत महल को जानने का मौका मिलेगा.;
लखनऊ की उस ठंडी रात में आसमान पर बादलों का काला चादर था. हवा में अजीब-सी बेचैनी घुली हुई थी, जैसे शहर को आने वाले तूफ़ान का अहसास हो. क़ैसरबाग़ महल के भीतर, ऊंची मेहराबों के साये में, एक औरत खड़ी थी- आंखों में ज्वाला, चेहरे पर दृढ़ता, और दिल में अपने शहर के लिए अटूट मोहब्बत. वो कोई आम औरत नहीं थी- वो मां थी, नेता थी, योद्धा थी. उसकी बाहों में उसका नन्हा बेटा बिरजिस क़द्र था, जो उम्र में सिर्फ़ चौदह साल का, लेकिन तक़दीर ने जिसे नवाब बना दिया था.
महल के चारों तरफ तोपों की गड़गड़ाहट सुनाई दे रही थी, ज़मीन कांप रही थी और दूर आसमान लाल हो उठा था. सलाहकार, सेनापति और वफ़ादार सैनिक सब उसकी ओर देख रहे थे. किसी की आंख में सवाल था, “बेगम, अब क्या करें?” उसने बिना पलक झपकाए जवाब दिया, “लखनऊ झुकेगा नहीं… जब तक मैं ज़िंदा हूं, ये शहर आख़िरी सांस तक लड़ेगा.” यही वो रात थी, जब एक तलाकशुदा बेगम, जो कभी नवाब की हरम में एक साधारण लड़की थी, अब अंग्रेज़ी हुकूमत के खिलाफ़ सबसे बड़े बग़ावत की नेता बन चुकी थी. नाम था बेगम हज़रत महल. आइए पढ़ते हैं बेगम हज़रत महल की कहानी उनकी ही जुबानी...
अवध की धरती हमेशा से वीरांगनाओं और साहसी शासकों की जन्मभूमि रही है. 1820 ईस्वी में, मैं फैज़ाबाद के एक छोटे से गांव में जन्मी. मेरा असली नाम था मुहम्मदी खानम. बचपन में ही मैंने कभी नहीं सोचा था कि मेरा जीवन साधारण नहीं रहेगा. मैं नृत्य और संगीत में निपुण थी, और इसी कला के कारण मुझे शाही हरम में जगह मिली. लोग मेरी सुंदरता को देखकर मुझे "महक परी" कहने लगे.
लेकिन मेरी किस्मत का सबसे बड़ा मोड़ तब आया जब अवध के नवाब वाजिद अली शाह ने मुझे देखा. वह मेरी सुंदरता और व्यक्तित्व से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने मुझे अपनी शाही बेगम बना लिया. समय बीता और 1840 के दशक में मेरे बेटे मिर्ज़ा बिरजिस खादिर का जन्म हुआ. इसी के बाद मुझे ‘हज़रत महल’ की उपाधि दी गई. कुछ साल तक शाही ज़िंदगी में हर सुख मिला. रेशमी कपड़े, इत्र की खुशबू, महलों के सोने-चांदी के झूमर… लेकिन ये सुख लंबा नहीं चला. 1850 में, नवाब से मेरा रिश्ता टूट गया. मैं अपने छोटे बेटे के साथ अकेली रह गई.
13 फरवरी 1856 का दिन मेरे जीवन की दिशा बदल देने वाला साबित हुआ. उस दिन अंग्रेज़ सैनिकों ने नवाब वाजि अली शाह को कैद कर लिया और हमारे प्यारे अवध राज्य पर अवैध कब्ज़ा कर लिया. नवाब को कलकत्ता भेज दिया गया और मैं अपने छोटे बेटे के साथ महल में अकेली रह गई. उसी क्षण मैंने ठान लिया कि चाहे कितनी भी मुश्किलें क्यों न आएं, मैं अंग्रेजों से अपना राज्य वापस लेकर रहूंगी.
1857 में पूरे उत्तर भारत में अंग्रेज़ी हुकूमत के खिलाफ आग भड़क चुकी थी. किसानों, सैनिकों और आम जनता में गुस्सा था. मैंने अपने बेटे बिरजिस खादिर को अवध का नवाब घोषित किया और खुद शासन की बागडोर संभाल ली. मैंने लगभग 1,80,000 सैनिक जुटाए और लखनऊ किले को युद्ध के लिए तैयार कराया. मेरे दरबार में मुम्मू खां, महाराजा बालकृष्ण, बाबू पूर्ण चंद, और मुंशी गुलाम हज़रत जैसे अनुभवी लोग शामिल थे.
मैंने हिंदू-मुस्लिम एकता को अपनी सबसे बड़ी ताकत बनाया. मेरे आदेश पर सेना में महिलाओं का भी एक विशेष दल बनाया गया, जो युद्ध में पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर लड़ता था. अवध के गोंडा, फैज़ाबाद, सलोन, सुल्तानपुर और बहराइच में हमने अंग्रेजों को कड़ी टक्कर दी. कई बार हमने उन्हें पीछे हटने पर मजबूर किया.
हमने अंग्रेज़ों के सबसे मजबूत किले रेज़ीडेंसी को घेर लिया. दिन में तोपें गरजतीं, रात में मशालें जलतीं. मैं खुद किले के पास जाकर सैनिकों का हौसला बढ़ाती. औरतें बारूद भरतीं, बच्चे पानी और खाना पहुंचाते. हमारे साथ मौलवी अहमदुल्लाह शाह जैसे जांबाज़ भी थे, लेकिन उनकी अपनी महत्वाकांक्षाएं थीं. मैंने समझ लिया- लड़ाई सिर्फ बाहर नहीं, अंदर भी है.
31 मई 1857 को लखनऊ में जनता और स्थानीय शासकों ने मेरे नेतृत्व में विद्रोह कर आज़ादी की घोषणा की. मैंने अपने बेटे के नाम से शासन चलाया, लेकिन फैसले मैं खुद लेती थी. राज्य में न्याय और व्यवस्था बनाए रखने के लिए मैंने एक उच्च स्तरीय समिति गठित की, जिससे लोग खुश थे और अंग्रेजों की नीतियों के खिलाफ खड़े होने को तैयार.
लेकिन अंग्रेज भी चुप नहीं बैठे. 1858 के अंत तक उन्होंने अपनी ताकत कई गुना बढ़ा ली. अंग्रेज़ों ने नेपाल के प्रधानमंत्री जंग बहादुर राणा से मदद मांगी. गोरखा सैनिक हमारी तरफ़ बढ़ रहे थे. मैंने उन्हें अपनी तरफ़ खींचने की कोशिश की, उपहार और पेशकश भेजी… लेकिन मेरे दूत रास्ते में मारे गए. गोरखों ने अंग्रेज़ों का साथ दिया और हमारी घेराबंदी कमजोर पड़ने लगी.
15 मार्च 1858, वो दिन मैं कभी नहीं भूल सकती. सुबह से ही शहर में धुआं और बारूद का बादल था. हमारे महल की दीवारें तोपों से हिल रही थीं. मेरे सैनिक, मेरे बेटे के सामने आखिरी दम तक लड़ रहे थे. जब मुझे यक़ीन हो गया कि अब महल टूट जाएगा, तो मैंने बेटे का हाथ पकड़ा और कहा, "आज हम पीछे हटेंगे, ताकि कल फिर लड़ सकें." अंग्रेजों ने पूरे लखनऊ को घेर लिया था.
हम क़ैसरबाग़ से निकलकर मूसा बाग़ पहुंचे. वहां आखिरी मोर्चा संभाला, लेकिन अंग्रेज़ों की ताक़त ज़्यादा थी. हार की आहट सुनते ही मैंने अपने बेटे और विश्वस्त साथियों के साथ नेपाल की ओर रुख किया. जनबी सरज़मीन थी, लेकिन वहां भी मैं लखनऊ के लिए दुआ करती रही. रात को अक्सर सपनों में चौक की रौनक, महलों की सीढ़ियां, इत्र की महक और रेज़ीडेंसी की तोपें लौट आतीं.
1879 में, नेपाल में मेरी मौत हुई. कोई शाही ताजिया, कोई तोपों की सलामी नहीं… बस चंद लोग, एक सादा जनाज़ा. लेकिन मेरे दिल में तसल्ली थी कि मैंने गुलामी से लड़ाई की और अपनी मिट्टी के लिए तलवार उठाई. मैं सिर्फ़ 1857 की विद्रोही रानी नहीं थीं. उस दौर की प्रतीक थी, जब महिलाओं ने भी सत्ता और स्वतंत्रता की लड़ाई में मोर्चा संभाला था. लखनऊ में आज भी मेरा नाम इज़्ज़त और साहस के साथ लिया जाता है.
- बेगम हज़रत महल