खुदा से बेहतर तो हमारे PM मोदी, कम से कम ख्याल...जावेद अख्तर के बयान पर सोशल मीडिया में हलचल- देखिए VIDEO

जावेद अख्तर के “खुदा से बेहतर तो हमारे पीएम मोदी हैं” वाले बयान ने सोशल मीडिया पर तीखी बहस छेड़ दी है. दिल्ली में हुई एक सार्वजनिक चर्चा के दौरान दिए गए इस बयान का वीडियो तेजी से वायरल हो रहा है. समर्थक इसे व्यंग्य और तर्क के रूप में देख रहे हैं, जबकि आलोचक इसे आस्था पर हमला बता रहे हैं. बयान के बाद राजनीतिक और वैचारिक प्रतिक्रियाएं तेज हो गई हैं.;

( Image Source:  Social Media )
By :  सागर द्विवेदी
Updated On : 21 Dec 2025 4:26 PM IST

नई दिल्ली के कांस्टीट्यूशन क्लब में शनिवार को हुए एक बौद्धिक संवाद ने आस्था और तर्क के बीच पुरानी बहस को एक बार फिर चर्चा के केंद्र में ला दिया. मशहूर शायर-गीतकार जावेद अख्तर और इस्लामी विद्वान मुफ़्ती शमाइल नदवी के बीच 'क्या खुदा का अस्तित्व है?” जैसे बुनियादी सवाल पर हुई इस चर्चा ने न सिर्फ सभागार को खचाखच भर दिया, बल्कि इसके बाद सोशल मीडिया पर भी तीखी प्रतिक्रियाओं की बाढ़ आ गई.

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क्या खुदा का अस्तित्व है 'द लल्लनटॉप' के एक कार्यक्रम जिसमें करीब दो घंटे तक चली इस बहस ने ईश्वर, विज्ञान, नैतिकता, हिंसा और इंसानी पीड़ा जैसे गहरे मुद्दों को छुआ. एक तरफ खुद को नास्तिक बताने वाले जावेद अख्तर थे, तो दूसरी ओर धार्मिक दृष्टिकोण का प्रतिनिधित्व कर रहे मुफ़्ती शमाइल नदवी. दोनों ने अपने-अपने तर्क तर्कशास्त्र, नैतिकता और व्यक्तिगत अनुभवों के आधार पर रखे, जिससे यह संवाद साधारण वैचारिक बहस से कहीं आगे निकल गया.

मंच पर आमने-सामने आए आस्था और तर्क

जावेद अख्तर ने अपनी बात की शुरुआत मानव पीड़ा और हिंसा के सवाल से की. उन्होंने ईश्वर की सर्वशक्तिमान और करुणामय छवि पर सवाल उठाते हुए ग़ाज़ा युद्ध का उदाहरण दिया, जहां हजारों निर्दोष लोगों की जान जा चुकी है. उन्होंने कहा कि अगर आप सर्वशक्तिमान और सर्वव्यापी हैं, तो आपको ग़ाज़ा में भी मौजूद होना चाहिए. आपने वहां बच्चों को टुकड़ों में बिखरते हुए देखा होगा और फिर भी आप मुझसे उम्मीद करते हैं कि मैं आप पर विश्वास करूं?” व्यंग्य के अंदाज़ में उन्होंने यह भी जोड़ा कि उसके मुकाबले तो हमारे प्रधानमंत्री बेहतर हैं, कम से कम कुछ तो ख़याल रखते हैं.”

‘धर्म के नाम पर हिंसा क्यों?’

पूरी बहस के दौरान जावेद अख्तर बार-बार धर्म के नाम पर होने वाली हिंसा की ओर लौटते रहे. उन्होंने सवाल उठाया कि आख़िर ईश्वर के विचार पर आकर हर सवाल क्यों रुक जाता है? हमें सवाल पूछना क्यों बंद कर देना चाहिए? और ऐसा कौन-सा ईश्वर है जो बच्चों को बमों से टुकड़ों में उड़ने देता है? अगर वह मौजूद है और यह सब होने देता है, तो उसका न होना ही बेहतर है.” उनका कहना था कि जहां सवाल पूछने पर रोक लग जाती है, वहीं सोच और विवेक खत्म होने लगते हैं.

मुफ़्ती शमाइल नदवी का पलटवार: इंसान ज़िम्मेदार है

जावेद अख्तर के तर्कों का जवाब देते हुए मुफ़्ती शमाइल नदवी ने मानव की स्वतंत्र इच्छा (Free Will) की अवधारणा सामने रखी. उन्होंने कहा कि 'सृष्टिकर्ता ने बुराई को बनाया है, लेकिन वह स्वयं बुरा नहीं है. जो लोग अपनी स्वतंत्र इच्छा का गलत इस्तेमाल करते हैं, उसी के लिए वे ज़िम्मेदार हैं.' उनका तर्क था कि हिंसा, बलात्कार या अत्याचार ईश्वर की मर्ज़ी नहीं, बल्कि इंसानी फैसलों का परिणाम हैं.

विज्ञान, धर्म और ईश्वर की बहस

बहस की शुरुआत में मुफ़्ती नदवी ने स्पष्ट किया कि ईश्वर के अस्तित्व पर चर्चा में न तो विज्ञान और न ही धर्मग्रंथ साझा पैमाना बन सकते हैं. उनके अनुसार, विज्ञान भौतिक संसार तक सीमित है, जबकि ईश्वर उससे परे की अवधारणा है. वहीं धर्मग्रंथ उन लोगों को नहीं मना सकते जो ‘वही’ को ज्ञान का स्रोत नहीं मानते. इसी क्रम में उन्होंने कहा कि “अगर आपको पता नहीं है, तो यह दावा भी मत कीजिए कि ईश्वर का अस्तित्व नहीं है.'

‘अज्ञान स्वीकार करना ही मेरा स्टैंड है’

इस पर प्रतिक्रिया देते हुए जावेद अख्तर ने कहा कि अज्ञान को स्वीकार करना ही उनका मूल दृष्टिकोण है. उनके मुताबिक कोई भी दार्शनिक या वैज्ञानिक पूर्ण ज्ञान का दावा नहीं करता. उन्होंने जोर देकर कहा कि इंसान को धार्मिक हो या गैर-धार्मिक, किसी भी तरह के अंतिम और निरपेक्ष उत्तरों से बचना चाहिए.

विश्वास बनाम आस्था पर टकराव

बहस का एक अहम मोड़ तब आया जब विश्वास (Belief) और आस्था (Faith) के फर्क पर चर्चा हुई. जावेद अख्तर ने कहा कि “जब न कोई प्रमाण हो, न तर्क हो और न ही कोई गवाह, फिर भी आपसे विश्वास करने को कहा जाए तो वही आस्था होती है.” उनका मानना था कि बिना सबूत विश्वास की मांग सवाल पूछने की प्रवृत्ति को कमजोर करती है.

नैतिकता पर तीखी नोक-झोंक

नैतिकता के सवाल पर जावेद अख्तर ने कहा कि यह प्रकृति का नहीं, बल्कि इंसानों द्वारा गढ़ा गया सिद्धांत है. उन्होंने नैतिकता की तुलना ट्रैफिक नियमों से की, जो समाज के लिए ज़रूरी हैं, लेकिन प्रकृति में मौजूद नहीं. “अगर बहुमत किसी अत्याचार को सही घोषित कर दे, तो क्या वह अत्याचार न्यायपूर्ण हो जाता है?”

सोशल मीडिया तक पहुंची बहस

यह संवाद मंच तक सीमित नहीं रहा. कार्यक्रम खत्म होते ही सोशल मीडिया पर तीखी प्रतिक्रियाएं देखने को मिलीं. कुछ लोगों ने इसे साहसी और ज़रूरी बौद्धिक पहल बताया, जबकि कुछ ने जावेद अख्तर के बयानों को लेकर कड़ी आलोचना की. साफ है कि ईश्वर, आस्था और तर्क पर यह बहस अभी थमी नहीं है.

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