हिम युग देखा, रेगिस्तान और नदियों को जन्म लेते देखा- मैं आप सबकी मारी अरावली हूं!

अरावली खुद अपनी कहानी सुना रही है - हिम युग से लेकर आधुनिक सभ्यता तक सब कुछ देखने वाली दुनिया की सबसे प्राचीन पर्वतमालाओं में से एक, जो आज अपने अस्तित्व के संकट से जूझ रही है. अंधा विकास, खनन और नई कानूनी परिभाषाएं इसकी 90% पहाड़ियों को संरक्षण से बाहर कर सकती हैं. सुप्रीम कोर्ट के आदेश से नई बहस छिड़ी है - क्या प्रकृति को ऊंचाई से नापा जाएगा या इतिहास और जीवनदायिनी भूमिका से?;

Edited By :  प्रवीण सिंह
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मैं कोई साधारण पहाड़ी नहीं हूं. धरती की याददाश्त हूं. दुनिया की सबसे प्राचीन पर्वतमालाओं में से एक हूं- हिमालय से भी कहीं पहले का. जब हिमालय पैदा भी नहीं हुआ था, तब मैं बूढ़ा हो चुका था. मेरी उम्र करोड़ नहीं, अरबों साल में गिनी जाती है- करीब 300 करोड़ साल. मैं गुजरात से लेकर राजस्थान, हरियाणा और दिल्ली तक फैला हूं. मैंने हिम युग देखे हैं, रेगिस्तान बनते देखे हैं, नदियों को जन्म लेते देखा है और अब… अब मैं कंक्रीट को जंगल निगलते देख रहा हूं. मैं अरावली हूं.

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खनन है कि मुझे खाये जा रहा है. अंधे विकास और लालच की वजह से मैं छलनी हो रहा हूं. मेरा सीना जख्मी हो रहा है. मुझे गिराने, ढहाने और मिटाने के लिए सब एक हो रहे हैं. हर साल साफ हवा के लिए छटपटाने वाली दिल्‍ली को भी मेरी याद नहीं आती. यहां तक कि जब एक्‍यूआई 700 पहुंच रहा है और कहा जा रहा है कि एनसीआर में अगर आप तीन साल रह लें तो आपके फेफड़ों का जाना तय है. तब भी ऐसा लगता है मानो किसी को मेरी तकलीफ से कोई लेना-देना ही ना हो. वो तो भला हो सुप्रीम कोर्ट के उस आदेश का जिसकी वजह से आप लोग मुझे याद तो कर रहे हैं.

अगर आपने वो फैसला नहीं पढ़ा या सुना है तो मैं ही बता देता हूं. देश की सबसे बड़ी अदालत ने मेरी पूरी परिभाषा ही बदल दी है. अदालत का कहना है कि राजस्थान और गुजरात तक 700 किलोमीटर में फैली पहाड़ियां 100 मीटर से कम ऊंची हैं तो अरावली नहीं माना जाएगा. ये भी कोई बात हुई भला. अरे भाई, कभी किसी पहाड़ का हर हिस्‍सा एक बराबर हो, सुना है क्‍या आपने? सवाल ये है - क्या पहाड़ ऊंचाई से पहचाने जाते हैं या इतिहास से? कभी किसी ने पहाड़ को स्केल से नापा है क्या?

अदालत ने पर्यावरण मंत्रालय की सिफारिश को सही मानते हुए कहा है कि अब सिर्फ वही पहाड़ियां ‘अरावली’ मानी जाएंगी, जिनकी स्थानीय ऊंचाई 100 मीटर या उससे ज्यादा होगी. अगर 500 मीटर के दायरे में ऐसी दो या ज्यादा पहाड़ियां होंगी, तो उन्हें अरावली रेंज माना जाएगा. उनके आसपास के ढलान और इलाके भी संरक्षण में आएंगे. मेरे पक्ष में यह भी हुआ कि कोर्ट ने दिल्ली, हरियाणा, राजस्थान और गुजरात में नए खनन पट्टों पर रोक लगा दी. ICFRE यानी Indian Council of Forestry Research and Education को मेरे पूरे क्षेत्र के लिए वैज्ञानिक और टिकाऊ खनन प्रबंधन योजना तैयार करने का निर्देश भी दिया गया है. लेकिन मेरी चिंता यहीं खत्म नहीं होती. पर्यावरणविद कह रहे हैं कि इस नई परिभाषा से मेरी लगभग 90 प्रतिशत पहाड़ियां संरक्षण से बाहर हो सकती हैं, क्योंकि उनमें से बहुत कम 100 मीटर की ऊंचाई पूरी करती हैं. डर यह है कि इससे खनन, निर्माण और कंक्रीट का दबाव और बढ़ेगा.

अगर मैं न रहा, तो दिल्ली-एनसीआर में सांस लेना एक लग्ज़री बन जाएगा. थार का रेगिस्तान बिना रोक-टोक आगे बढ़ेगा. बारिश का पानी जमीन में उतरने की जगह सीवर में बहेगा. भूजल सूख जाएगा और टैंकर आपका भविष्य तय करेंगे. मैं रेगिस्तान और हरियाली के बीच आख़िरी दीवार हूं. मैं मानसून को थामता हूं, तापमान को संतुलित करता हूं और हवा को ज़हर बनने से रोकता हूं. मेरे जंगल कार्बन नहीं, आपका दम घुटना सोखते हैं और शहरों को जिंदा रखते हैं.

मेरी गोद में सभ्यताएं पली हैं. हड़प्पा से लेकर राजपूतों तक - मेरे पत्थरों ने इतिहास गढ़ा है. राजस्थान की कई नदियां मुझसे जन्म लेती हैं. मेरे सीने से निकले पत्थरों से किले बने, मंदिर बने, संस्कृति बनी. और आज? आज उन्हीं पत्थरों को विस्फोटकों से उड़ाया जा रहा है. जिस इतिहास ने मुझे पूजा, उसी वर्तमान ने मुझे बेच दिया.

आज मुझे नक्शों में टुकड़ों में बांट दिया गया है. कहीं मैं अरावली हूं, कहीं नॉन-फॉरेस्ट लैंड और कहीं वेस्टलैंड. मेरे जंगलों पर फार्महाउस उग आए हैं. मेरी छाती में खनन के गहरे जख्म हैं. गुरुग्राम, फरीदाबाद और दिल्ली के आसपास जो चमकती इमारतें दिखती हैं, उनके नीचे मेरी बर्बादी छिपी है. विकास के नाम पर मेरी पहचान मिटाई जा रही है. विकास ऊपर दिखता है, बर्बादी नीचे दबा दी जाती है.

पर्यावरण विशेषज्ञ साफ कहते हैं कि अगर अरावली खत्म हुई, तो एनसीआर रहने लायक नहीं बचेगा. वैज्ञानिक अध्ययनों के मुताबिक अरावली के कमजोर होने से हीटवेव बढ़ेगी, भूजल स्तर और नीचे जाएगा और बाढ़-सूखे की समस्या बढ़ेगी. कई विशेषज्ञ इसे सिर्फ पर्यावरण नहीं, बल्कि राष्ट्रीय सुरक्षा का मुद्दा मानते हैं, क्योंकि जल और हवा दोनों संकट में पड़ जाएंगे. क्योंकि जब पानी और हवा खत्म होती है, तब देश सिर्फ नक्शे में बचता है.

क्या विकास का मतलब सिर्फ कंक्रीट और सड़कें हैं? क्या किसी पहाड़ की पहचान उसकी ऊंचाई से तय होगी? क्या जंगल तभी जरूरी होते हैं जब आग लग जाए? और सबसे बड़ा सवाल - जब मैं पूरी तरह खत्म हो जाऊंगा, तब क्या आप अगली पीढ़ी को जवाब दे पाएंगे?

हालिया अदालत के आदेश ने मुझे चर्चा में जरूर ला दिया है, लेकिन साथ ही एक खतरनाक मिसाल भी कायम की है. अगर 100 मीटर से कम ऊंचाई वाली पहाड़ियों को अरावली नहीं माना जाएगा, तो कल जंगल, नदियां और पहाड़ सब कागज़ी परिभाषाओं में कैद हो जाएंगे. प्रकृति को नापने का पैमाना सिर्फ मीटर और नक्शे नहीं हो सकते.

मुझे बचाने के लिए आधे मन से नहीं, पूरे इरादे से कदम उठाने होंगे. मेरी भूवैज्ञानिक पहचान को कानून में साफ दर्ज करना होगा. खनन पर कागज़ी नहीं, ज़मीनी रोक लगानी होगी. देशी पेड़ों से जंगल वापस बसाने होंगे. मुझे राष्ट्रीय धरोहर घोषित करना होगा. और सबसे जरूरी - शहरों का विस्तार मेरी तरफ नहीं, मुझसे दूर करना होगा.

मैं अरावली हूं. मैं बोल नहीं सकता, इसलिए आपसे कह रहा हूं. अगर मैं बचा, तो आपकी सांसें बचेंगी. अगर मैं टूटा, तो ये शहर दम घुटने से मरेंगे. मुझे विकास से दिक्कत नहीं, मुझे अंधे विकास से डर लगता है. अब फैसला आपके हाथ में है - मुझे नक्शों से मिटाना है या आने वाली पीढ़ियों के लिए बचाना है. क्योंकि पहाड़ खुद नहीं मरते, उन्हें मारा जाता है.

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