नाई की दुकान तक पहुंचने में लगे 78 साल, यहां पहली बार दलित ने कटवाए बाल
भारत को आजाद हुए 78 साल हो गए हैं, लेकिन आज भी हम अपनी रूढ़िवादी सोच से आजाद नहीं हो पाए हैं, क्योंकि चांद पर पहुंचने के बाद भी आज भी दलितों के साथ जानवरों से भी बुरा बर्ताव किया जाता है. गुजरात के एक गांव में पहली बार एक दलित शख्स ने अपने गांव में नाई से बाल कटवाए हैं.;
हम 21वीं सदी में जी रहे हैं, जहां भारत चांद और मंगल पर पहुंच गया है. वहीं, दूसरी ओर आज भी लोग जाति के नाम पर भेदभाव करते हैं. खासतौर पर दलितों के साथ आजादी के 78 साल बाद भी जो सितम किए जाते हैं. उन्हें सुनकर हैरानी होती है और दिमाग में बस एक ही सवाल आता है कि क्या एक इंसान से बढ़कर कोई चीज है?
ऐसा ही कुछ गुजरात के बनासकांठा ज़िले के अलवाड़ा गांव में हुआ, जहां आजादी के इतने सालों बाद कीर्ति चौहान नाम के एक शख्स ने नाई से जाकर बाल कटवाए, जो दलित हैं. दरअसल, यह सदियों पुराने सामाजिक अन्याय के खिलाफ़ एक प्रतिरोध था.
पहली बार दलित ने कटवाए बाल
कीर्ति चौहान की उम्र 24 साल है, जो एक खेतिहर मज़दूर हैं. जब वह पहली बार नाई की कुर्सी पर बैठे, तो गांव की हवा में कुछ बदल गया. यह वह पहली बार था जब किसी दलित ने गांव की नाई की दुकान में बाल कटवाए. कुछ ही मिनटों में वह चुप बैठी पीढ़ियों की आवाज़ बन गई.
नाई नहीं काटते थे दलितों के बाल
अलवाड़ा गांव में 6,500 लोग रहते हैं. उनमें करीब 250 दलित हैं. सालों से गांव के सभी नाई दलितों के बाल काटने से इनकार करते थे. नतीजा ये था कि दलितों को बाल कटवाने के लिए दूसरे गांवों का रुख करना पड़ता. इस पर 58 साल के छोगाजी चौहान ने कहा कि 'मेरे बच्चों ने वही झेला जो मेरे बाप-दादा ने आज़ादी से पहले झेला था. क्या ये सच में आज़ादी है?'
जब एक युवक ने बदली परंपरा
अपने इस कदम पर कीर्ति ने कहा कि '24 साल में पहली बार मैं अपने ही गांव की नाई की दुकान पर बैठा. उस दिन मुझे लगा जैसे मुझे अपने ही गांव में आज़ादी मिल गई हो. 'यह सिर्फ़ बाल कटवाने की बात नहीं थी, बल्कि एक पुरानी चुप्पी को तोड़ने की शुरुआत थी. एक ऐसी परंपरा के खिलाफ़ कदम, जो इस समुदाय पर कई पीढ़ियों से थोप दी गई थी. कीर्ति अकेले नहीं थे. सामाजिक कार्यकर्ता चेतन डाभी ने गांव के नाइयों और ऊंची जातियों के लोगों को समझाया कि किसी को बाल कटवाने से रोकना गलत है और संविधान के खिलाफ़ है.जब समझाने से बात नहीं बनी, तो पुलिस और ज़िला प्रशासन को भी आगे आकर दखल देना पड़ा.
नए दौर की शुरुआत
अब गांव की सभी पांच नाई की दुकानें दलितों के लिए खुल गई हैं. 21 साल के नाई पिंटू ने कीर्ति के बाल काटे हैं. उन्होंने इस पर कहा कि पहले हम परंपरा निभा रहे थे, अब बदलाव अपना रहे हैं. बिजनेस भी बढ़ रहे हैं. यह बदलाव सिर्फ़ दलितों के लिए नहीं, पूरे गांव के लिए फायदेमंद है. पाटीदार समुदाय के प्रकाश पटेल ने कहा, "अगर मेरी किराना दुकान सभी के लिए खुली है, तो नाई की दुकान क्यों नहीं?"
क्या हम वाकई बराबरी की ओर बढ़ रहे हैं?
इस जीत के बावजूद दलित समुदाय को लगता है कि रास्ता लंबा है. किसान ईश्वर चौहान कहते हैं, "आज हम नाई की दुकान पर बैठ सकते हैं, लेकिन सामुदायिक भोज में हमें अब भी अलग बैठाया जाता है. यह सवाल अभी भी हवा में तैर रहा है: क्या एक दुकान में बैठना ही समानता है? क्या असली बराबरी तब होगी जब हर अवसर पर दलितों को बराबरी का दर्जा मिलेगा? अलवाड़ा में जो हुआ, वह इतिहास का एक छोटा मगर महत्वपूर्ण पन्ना बन गया. यह घटना सिर्फ़ बाल कटवाने तक सीमित नहीं है. यह प्रतीक है उस आज़ादी का, जिसकी तलाश में भारत के करोड़ों दलित आज भी जूझ रहे हैं. और सबसे अहम सवाल क्या अब समय नहीं आ गया कि हम इन खोखली परंपराओं से पूरी तरह आज़ाद हो जाएं?