मैंने जैसे ही बताया मेरा नाम गोपाल नहीं तजम्मुल है, उन्होंने मेरी पैंट उतारी और... ढाबा कर्मचारी ने क्या- क्या बताया
28 जून की शाम मुजफ्फरनगर के ढाबे में कुछ ऐसा हुआ जिसने देशभर में सवालों की एक लहर उठा दी. यहां एक शख्स की जमकर पिटाई की गई. क्योंकि उसने अपनी असली पहचान छुपाई. वह तजम्मुल था, जिसने खुद को गोपाल बताया था. इतना ही नहीं, व्यक्ति की पैंट तक उतरवाई गई.

उत्तर प्रदेश सरकार का निर्देश है कि कांवड़ यात्रा मार्ग पर सभी ढाबों और दुकानों को मालिक की पहचान और लाइसेंस की जानकारी दिखानी होगी, जिसमें धार्मिक पहचान भी जहां लागू हो. उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर में राष्ट्रीय राजमार्ग 58 पर एक आम से पंडित जी वैष्णो ढाबे पर हर दिन सैकड़ों कांवड़ यात्री रुकते हैं, खाना खाते हैं और फिर अपनी यात्रा पर निकल जाते हैं.
लेकिन 28 जून की शाम को इस ढाबे की रसोई में कुछ ऐसा हुआ जिसने देशभर में सवालों की एक लहर उठा दी. यहां एक शख्स की जमकर पिटाई की गई. क्योंकि उसने अपनी असली पहचान छुपाई. वह तजम्मुल था, जिसने खुद को गोपाल बताया था. इतना ही नहीं, व्यक्ति की पैंट तक उतरवाई गई.
पहचान छुपाने की मजबूरी
तजम्मुल ने एनडीटीवी से बात करते हुए कहा कि 'ढाबे के मालिक शर्मा जी ने उसे गोपाल नाम दिया, ताकि मैं बिना किसी परेशानी के काम कर सकूं. इतना ही नहीं, पहचान से पर्दा न उठे, इसके लिए तजम्मुल ने तीन महीनों तक कड़ा पहना, अपनी मुस्लिम पहचान छुपाई और हर दिन इसी डर में जिया कि कहीं कोई उसकी सच्चाई उजागर न कर दे. क्या यह हमारे समाज की वो तस्वीर है, जहां आज़ादी से जीने का हक नाम और धर्म के आधार पर बंट चुका है?
पहचान अभियान और वो काली शाम
28 जून को स्वामी यशवीर जी महाराज और उनके सहयोगी "पहचान अभियान" के तहत ढाबे पर पहुंचे. उनका मकसद यह सुनिश्चित करना कि कांवड़ यात्री केवल हिंदू ढाबे वाली जगह से ही खाना खाएं. इसके बाद तजम्मुल ने जैसे पहले उसे सिखाया गया था, खुद को गोपाल बताया, लेकिन जब पहचान पत्र मांगा गया, उसने कहा कि आधार कार्ड खो गया है और फोन टूटा हुआ है.
पैंट उतारकर की पिटाई
इसके बाद उन लोगों ने तज्जमुल को पैंट उतारने के लिए कहा. इतना ही नहीं शख्स की जमकर पिटाई की. मुजफ्फरनगर पुलिस ने इस मामले में छह लोगों को तलब किया है. सभी एक धार्मिक आश्रम से जुड़े हैं. मामला तूल पकड़ चुका है, लेकिन सवाल अपनी जगह खड़े हैं: क्या रोजगार की तलाश में धर्म बदलने की मजबूरी नई सामाजिक गुलामी नहीं है?