यूपी बीजेपी का अध्यक्ष चुनने में योगी आदित्यनाथ की कितनी चलेगी? ये 6 नाम हैं रेस में...
2027 विधानसभा चुनाव को ध्यान में रखते हुए बीजेपी यूपी में नया अध्यक्ष चुनने जा रही है. छह नामों की सूची तैयार की गई है, जिसमें ब्राह्मण, ओबीसी और दलित नेताओं को शामिल किया गया है. संघ से चर्चा के बाद अंतिम नाम पर फैसला होगा. क्षेत्रीय और जातीय संतुलन को देखते हुए संगठन में नई ऊर्जा भरने की तैयारी है.

उत्तर प्रदेश भारतीय जनता पार्टी का सबसे अहम राजनीतिक गढ़ है. 80 लोकसभा सीटों और 403 विधानसभा सीटों वाला यह राज्य केंद्र की सत्ता का रास्ता तय करता है. 2024 के लोकसभा चुनावों के बाद यूपी में बीजेपी को जितनी सीटों की उम्मीद थी, उतनी नहीं मिलीं. इस झटके के बाद पार्टी अब 2027 के विधानसभा चुनाव को केंद्र में रखकर संगठन की पूरी सर्जरी करने में जुटी है. राज्य अध्यक्ष पद पर बदलाव इसी रणनीति का हिस्सा है, जिससे पार्टी संगठन को जमीनी स्तर पर फिर से मजबूत कर सके.
राज्य में ब्राह्मण, पिछड़ा और दलित समुदायों की राजनीतिक हैसियत बेहद निर्णायक है. ब्राह्मणों की नाराज़गी बीते कुछ वर्षों से एक बड़ा मुद्दा बनी हुई है. वहीं ओबीसी, खासकर लोध, कुर्मी और अन्य अति पिछड़ी जातियां बीजेपी का परंपरागत वोटबैंक हैं. दलितों में पासी और अनुसूचित जातियों का एक बड़ा वर्ग भी अब भाजपा की ओर आकर्षित हुआ है. पार्टी ने जो छह नाम शॉर्टलिस्ट किए हैं उनमें से हर दो नाम एक जातीय वर्ग से हैं ताकि संतुलन बना रहे और हर वर्ग को यह संदेश मिले कि वह संगठन में भागीदार है.
क्या है योगी आदित्यनाथ की भूमिका?
उत्तर प्रदेश में भाजपा अध्यक्ष के चयन को लेकर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की भूमिका बेहद अहम मानी जा रही है. हालांकि सार्वजनिक रूप से वे संगठनात्मक नियुक्तियों में दखल नहीं देते, लेकिन यह भी सच है कि नया अध्यक्ष ऐसा होना चाहिए जो योगी के साथ तालमेल बिठा सके और सरकार-संगठन के बीच समन्वय बना सके. बीते वर्षों में यह देखा गया है कि पार्टी नेतृत्व उस व्यक्ति को प्राथमिकता देता है जो योगी के निर्णयों में अड़चन न बने, लेकिन संगठन की स्वायत्तता को भी बनाए रखे. योगी की पसंद का संकेत अप्रत्यक्ष रूप से राष्ट्रीय नेतृत्व को मिलता है, और यही संतुलन भविष्य के अध्यक्ष को तय करने में निर्णायक साबित हो सकता है.
क्यों ज़रूरी है क्षेत्रीय संतुलन?
पूर्वांचल में सपा और कांग्रेस के गठबंधन की चुनौती लगातार बढ़ रही है, जबकि पश्चिमी यूपी में किसानों, जाटों और दलितों के बीच नाराज़गी के संकेत लोकसभा में दिख चुके हैं. इस बार भाजपा पूर्वांचल से रामशंकर कठेरिया और विद्यासागर सोनकर जैसे नेताओं को आगे लाकर वहां की जातिगत और राजनीतिक धार को साधने की कोशिश कर रही है. वहीं पश्चिमी यूपी के बीएल वर्मा और धर्मपाल सिंह जैसे नामों से जाट और लोध वोट बैंक को पुनः सक्रिय करने का प्रयास किया जा रहा है. ऐसा लगता है कि पार्टी राज्य को सिर्फ जातीय नहीं, बल्कि भौगोलिक दृष्टिकोण से भी बैलेंस करना चाहती है.
कौन है ब्राह्मण चेहरा?
डॉ. दिनेश शर्मा न केवल पूर्व डिप्टी सीएम रह चुके हैं, बल्कि संघ की विचारधारा और शिक्षा जगत से गहरा जुड़ाव भी रखते हैं. उनकी छवि एक सौम्य और नीति-आधारित नेता की है, जो ब्राह्मण समाज में स्वीकार्य हैं. दूसरी ओर हरीश द्विवेदी युवा, ऊर्जावान और सांगठनिक राजनीति के माहिर खिलाड़ी हैं. वे बीजेपी के राष्ट्रीय सचिव रह चुके हैं और बस्ती से सांसद भी. इन दोनों में से किसे चुना जाएगा, यह इस बात पर निर्भर करेगा कि पार्टी रणनीति में अनुभव को तवज्जो देती है या ऊर्जा और सांगठनिक जुड़ाव को.
लोध वोटों की चाबी किसके पास?
लोध समुदाय के वोट यूपी की राजनीति में निर्णायक होते जा रहे हैं. धर्मपाल सिंह ने विधायक, मंत्री और विधानसभा में अनुभव की लंबी पारी खेली है. बीएल वर्मा संघ से जुड़े रहे हैं, एक कर्मठ, संगठन-प्रिय और कार्यकर्ता-आधारित नेता माने जाते हैं. उनके पास न केवल ओबीसी पहचान है, बल्कि संगठन के साथ स्थायी जुड़ाव भी है. यदि पार्टी 2027 तक संगठन को जमीनी स्तर पर एकजुट करना चाहती है, तो बीएल वर्मा एक व्यावहारिक विकल्प बन सकते हैं.
कठेरिया बनाम सोनकर: दलित नेतृत्व में संघर्ष
रामशंकर कठेरिया दलित राजनीति में आक्रामक हिंदुत्व की एक अनोखी मिसाल हैं. वे एससी कमीशन के चेयरमैन रह चुके हैं और केंद्र में मंत्री भी रहे. उनका रुख साफ है- "दलितों को भाजपा की विचारधारा से जोड़ो, न कि अलग करो". दूसरी तरफ, विद्यासागर सोनकर अपेक्षाकृत शांत, संगठनात्मक और पूर्वांचल पर केंद्रित नेता हैं. पार्टी यहां यह निर्णय ले सकती है कि दलितों के बीच भाजपा की आक्रामकता को बनाए रखा जाए या एक संतुलित, संवादात्मक नेतृत्व खड़ा किया जाए.
केंद्रीय नेतृत्व को फाइनल ग्रीन सिग्नल
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की राय को भाजपा नजरअंदाज नहीं करती. दिल्ली में हुई बैठक में जब छह नामों पर चर्चा हुई तो न सिर्फ अमित शाह और जेपी नड्डा मौजूद थे, बल्कि संघ के वरिष्ठ पदाधिकारी भी शामिल हुए. संघ के लिए यह पद सिर्फ संगठन नहीं, बल्कि विचारधारा और सामाजिक पकड़ का प्रतिनिधित्व करता है. इसीलिए अंतिम नाम उन्हीं का होगा जो ‘संघ के विचार’ को कार्यकर्ताओं तक ले जा सके और राजनीतिक रूप से उपयोगी भी हो.
किसका नाम होगा तय?
पार्टी के अंदरूनी सूत्रों की मानें तो अगला अध्यक्ष वह होगा जो 2027 तक पार्टी को बूथ स्तर तक दोबारा संजीवनी दे सके. निर्णय अब राष्ट्रीय नेतृत्व के पाले में है और जल्द ही संभवतः एक सप्ताह के भीतर नाम की घोषणा कर दी जाएगी. इस एक नाम से न केवल संगठन का चेहरा बदलेगा, बल्कि आने वाले वर्षों की रणनीति और गठबंधन समीकरणों की दिशा भी तय होगी.
शॉर्टलिस्ट किए गए छह संभावित नाम
- डॉ. दिनेश शर्मा- पूर्व उपमुख्यमंत्री, ब्राह्मण समाज से, स्वच्छ छवि और शैक्षणिक पृष्ठभूमि वाले नेता.
- हरीश द्विवेदी- बस्ती से पूर्व सांसद, ब्राह्मण, संगठन में काम कर चुके और राष्ट्रीय सचिव भी रह चुके हैं.
- धर्मपाल सिंह- वर्तमान यूपी सरकार में मंत्री, लोध (ओबीसी) समुदाय से, विधायी अनुभव के साथ.
- बी.एल. वर्मा- केंद्रीय राज्य मंत्री, ओबीसी समुदाय से, आरएसएस से गहरे जुड़ाव वाले और अनुशासित संगठनकर्ता.
- राम शंकर कठेरिया- पूर्व केंद्रीय मंत्री और अनुसूचित जाति आयोग के अध्यक्ष, दलित समाज से, तेजतर्रार और हिंदुत्व समर्थक नेता.
- विद्यासागर सोनकर- वर्तमान एमएलसी, दलित समाज से, पूर्वांचल में प्रभावशाली, संगठन के पुराने और भरोसेमंद चेहरे.