जाना था छत्तीसगढ़, चले गए इलाहाबाद... ट्रांसफर को लेकर चर्चा में रहने वाले जस्टिस अतुल श्रीधरन कौन?
सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस बी.आर. गवई ने माना कि कॉलेजियम ने सरकार के कहने पर अपना फैसला बदला. मामला मध्य प्रदेश हाईकोर्ट के जज जस्टिस अतुल श्रीधरन के ट्रांसफर से जुड़ा है. पहले उन्हें छत्तीसगढ़ भेजने का फैसला हुआ था, अब इलाहाबाद हाईकोर्ट में स्थानांतरण तय किया गया है. इस खुलासे ने न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर नई बहस छेड़ दी है.

भारत की न्यायपालिका में एक नई चीज सामने आई है. सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस बी.आर. गवई ने स्वीकार किया है कि कॉलेजियम ने केंद्र सरकार के आग्रह पर अपने एक निर्णय में संशोधन किया. यह खुलासा न केवल न्यायिक प्रक्रिया की पारदर्शिता पर बहस छेड़ रहा है, बल्कि न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच संतुलन की सीमाओं पर भी सवाल खड़ा कर रहा है. मामला मध्य प्रदेश हाईकोर्ट के न्यायमूर्ति अतुल श्रीधरन के ट्रांसफर से जुड़ा है.
25 अगस्त को सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम ने फैसला किया था कि जस्टिस अतुल श्रीधरन को मध्यप्रदेश हाईकोर्ट से छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट भेजा जाएगा. यह एक सामान्य प्रशासनिक प्रक्रिया लग रही थी. लेकिन कुछ ही हफ्तों बाद केंद्र सरकार ने कॉलेजियम से अनुरोध किया कि इस फैसले पर पुनर्विचार किया जाए. इसके बाद कॉलेजियम ने 14 अक्टूबर को अपना निर्णय बदल दिया और अब जस्टिस श्रीधरन को इलाहाबाद हाईकोर्ट ट्रांसफर करने की सिफारिश की.
सरकार के आग्रह पर पुनर्विचार
सुप्रीम कोर्ट की ओर से जारी आधिकारिक बयान में कहा गया कि 14 अक्टूबर की बैठक में कॉलेजियम ने केंद्र के अनुरोध पर पुनर्विचार करते हुए नया स्थानांतरण तय किया. बयान में यह भी जोड़ा गया कि “मध्य प्रदेश हाईकोर्ट के न्यायमूर्ति अतुल श्रीधरन को अब छत्तीसगढ़ के बजाय इलाहाबाद हाईकोर्ट भेजा जाएगा.” यह इसलिए ऐतिहासिक है क्योंकि आमतौर पर कॉलेजियम अपने निर्णयों में इतनी पारदर्शिता नहीं दिखाता और न ही केंद्र के आग्रह को सार्वजनिक रूप से दर्ज करता है.
कौन हैं जस्टिस अतुल श्रीधरन?
जस्टिस अतुल श्रीधरन ने वकालत की शुरुआत वरिष्ठ अधिवक्ता गोपाल सुब्रमण्यम के साथ की थी और बाद में इंदौर में स्वतंत्र रूप से प्रैक्टिस शुरू की. 2016 में वह मध्य प्रदेश हाईकोर्ट में न्यायाधीश नियुक्त हुए थे. 2023 में उन्होंने स्वेच्छा से ट्रांसफर की मांग की थी ताकि वे अपनी बेटी के इंदौर में वकालत शुरू करने के दौरान पास रह सकें. इसके बाद उन्हें जम्मू-कश्मीर और लद्दाख हाईकोर्ट भेजा गया और 2025 में वे वापस मध्य प्रदेश लौट आए.
कश्मीर में न्यायिक सक्रियता के लिए रहे चर्चा में
जम्मू-कश्मीर में कार्यरत रहते हुए जस्टिस श्रीधरन ने पब्लिक सेफ्टी एक्ट (PSA) के तहत की गई कई हिरासतों की समीक्षा की और कई मामलों में राहत दी. उनके कई आदेश नागरिक अधिकारों के समर्थन में रहे. इससे वे ‘न्यायिक स्वतंत्रता’ के पक्षधर न्यायाधीश के रूप में पहचाने गए.
कर्नल सोफिया कुरैशी केस के समय थे बेंच का हिस्सा
मध्य प्रदेश हाईकोर्ट में रहते हुए जस्टिस श्रीधरन उस डिवीजन बेंच का हिस्सा थे जिसने मंत्री विजय शाह के भारतीय सेना की अधिकारी कर्नल सोफिया कुरैशी पर दिए बयान पर स्वतः संज्ञान लिया था. अदालत ने बयान को “अभद्र और अस्वीकार्य” बताया और एफआईआर दर्ज करने का आदेश दिया. यह कदम न्यायपालिका की संवेदनशीलता और सामाजिक जिम्मेदारी दोनों का उदाहरण बना.
क्यों है यह फैसला असामान्य?
न्यायिक इतिहास में बहुत कम बार ऐसा हुआ है जब कॉलेजियम ने अपने निर्णय को सरकार के सुझाव पर बदला हो. यह नजीर इसलिए भी विशेष है क्योंकि कॉलेजियम और केंद्र के बीच पहले से ही न्यायाधीशों की नियुक्ति और तबादले को लेकर मतभेद रहे हैं. इस बार कॉलेजियम ने न केवल पुनर्विचार किया, बल्कि खुलकर यह भी स्वीकार किया कि यह सरकार के अनुरोध पर किया गया है.
सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम का यह कदम न्यायपालिका और कार्यपालिका के रिश्तों पर नई बहस छेड़ रहा है. आलोचकों का कहना है कि इससे न्यायिक स्वतंत्रता की धारणा कमजोर पड़ सकती है, जबकि समर्थकों का तर्क है कि यह पारदर्शिता की दिशा में एक सकारात्मक पहल है.