जिसने झारखंड को दिलाया हक, उसी पर लगा हत्या का आरोप; शिबू सोरेन की विरासत में संघर्ष भी, अदालतें भी और सवाल भी
झारखंड के ‘दिशोम गुरु’ शिबू सोरेन का राजनीतिक सफर जितना प्रेरणादायक रहा, उतना ही विवादों से भी घिरा रहा. चिरूडीह हत्याकांड से लेकर अपने सचिव शशिनाथ झा की हत्या के मामले तक, कई आपराधिक मामलों में उनका नाम आया. हालांकि, वर्षों की कानूनी लड़ाई के बाद वे अधिकतर मामलों में बरी हुए, लेकिन इन घटनाओं ने उनकी छवि को प्रभावित किया.

4 अगस्त 2025 को झारखंड की आत्मा कहे जाने वाले शिबू सोरेन ने दिल्ली के सर गंगाराम अस्पताल में अंतिम सांस ली. 81 वर्ष की उम्र में वह लंबे समय से किडनी संबंधी बीमारी से जूझ रहे थे. उनके निधन से न सिर्फ झारखंड, बल्कि पूरे देश के आदिवासी आंदोलन को गहरा आघात लगा.
बेटे और मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने उनके जाने को "जीवन की सबसे बड़ी रिक्तता" कहा. यह सिर्फ एक राजनेता की मौत नहीं थी, बल्कि एक विचारधारा, एक संघर्ष और एक आंदोलन का प्रतीक चिरनिद्रा में चला गया. आइए जानते हैं शिबू सोरेन से जुड़े विवाद और आरोप...
पिता की हत्या ने बनाया नेता
11 जनवरी 1944 को रामगढ़ जिले के नेमरा गांव (तब बिहार, अब झारखंड) में जन्मे शिबू सोरेन का बचपन संघर्षों से भरा था. जब वे केवल 13 वर्ष के थे, तब 1957 में उनके पिता शोबरन मांझी की हत्या साहूकारों ने कर दी. यह त्रासदी उनके जीवन का मोड़ बन गई. पिता की हत्या ने उनके भीतर अन्याय के खिलाफ क्रांति की ज्वाला भड़का दी. यही घटना उनके राजनैतिक और सामाजिक आंदोलन की नींव बनी.
धान काटो आंदोलन ने बनाया नायक
पिता की हत्या के बाद शिबू सोरेन ने महाजनी और सूदखोर प्रथा के खिलाफ "धान काटो" आंदोलन शुरू किया. इसमें महिलाएं खेतों से धान काटतीं और पुरुष तीर-धनुष से उनकी सुरक्षा करते. इस अभियान ने उन्हें ग्रामीण जनता के बीच नायक बना दिया. आदिवासियों की अस्मिता और अधिकारों की लड़ाई में यह आंदोलन मील का पत्थर साबित हुआ. इसी दौरान उन्हें ‘दिशोम गुरु’ यानी 'देश का मार्गदर्शक' की उपाधि मिली.
तीन लोगों के साथ की झामुमो की स्थापना
1973 में ए. के. राय और विनोद बिहारी महतो के साथ मिलकर उन्होंने झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) की स्थापना की. झामुमो केवल राजनीतिक दल नहीं, बल्कि एक जनजागृति थी. जल्द ही यह पार्टी झारखंड को बिहार से अलग करने की आवाज बन गई. छोटानागपुर और संथाल परगना में उन्हें अपार समर्थन मिला. सामंती शोषण और प्रशासनिक उपेक्षा के खिलाफ उन्होंने जनआंदोलनों की लहर चला दी.
चिरूडीह हत्याकांड के बने मुख्य आरोपी
23 जनवरी 1975 को झारखंड के जामताड़ा ज़िले के चिरूडीह गांव में एक जनसभा आयोजित की गई थी, जिसमें शिबू सोरेन मौजूद थे. यह सभा 'दिकू भगाओ' (बाहरी लोगों को भगाओ) आंदोलन का हिस्सा थी. लेकिन सभा के बाद हिंसा भड़क उठी और 11 कथित बाहरी लोगों की हत्या कर दी गई. इस मामले में शिबू सोरेन सहित 68 लोगों के खिलाफ हत्या का मुकदमा दर्ज हुआ. यह मामला तीन दशकों तक चला. अंततः मार्च 2008 में एक अदालत ने सबूतों के अभाव में शिबू सोरेन को बरी कर दिया.
निजी सचिव शशिनाथ झा हत्याकांड
यह मामला 1994 से जुड़ा है. आरोप था कि शिबू सोरेन के निजी सचिव शशिनाथ झा को दिल्ली से अगवा कर रांची के पास पिस्का नगरी में ले जाकर उनकी हत्या कर दी गई थी. सीबीआई ने अपनी जांच में कहा कि झा को झामुमो और कांग्रेस के बीच 1993 में हुए कथित ‘नोट के बदले वोट’ सौदे की जानकारी थी, जिसमें नरसिम्हा राव सरकार को बचाने के लिए झामुमो सांसदों ने समर्थन दिया था. झा कथित तौर पर इस सौदे के पैसों में हिस्सेदारी मांग रहे थे. इसके बाद उनकी हत्या कर दी गई.
आजीवन कारावास की सजा और इस्तीफा
28 नवंबर 2006 को दिल्ली की एक अदालत ने शिबू सोरेन को इस मामले में दोषी ठहराया और उन्हें उम्रकैद की सजा सुनाई गई. इसके बाद उन्होंने केंद्रीय कोयला मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया. भारत में यह पहला मामला था, जब किसी केंद्रीय मंत्री को हत्या जैसे गंभीर अपराध में दोषी ठहराया गया था. अदालत ने उनकी जमानत याचिका खारिज कर दी और उन्हें तिहाड़ जेल भेजा गया. इससे उनकी राजनीतिक छवि को गहरा आघात पहुँचा.
जानलेवा हमलों और बम विस्फोट से बचे
25 जून 2007 को चिरूडीह कांड में पेशी के बाद जब उन्हें दुमका जेल ले जाया जा रहा था, तब देवघर ज़िले में उनके काफिले पर बम से हमला किया गया. गनीमत रही कि वे बाल-बाल बच गए. इससे पहले 2006 में केंद्रीय मंत्री रहते हुए उन्हें अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा था. उनके राजनीतिक जीवन में बार-बार उतार-चढ़ाव आए, लेकिन वे कभी पीछे नहीं हटे.
बरी होने तक लंबा कानूनी संघर्ष
शिबू सोरेन ने दिल्ली हाईकोर्ट में फैसले के खिलाफ अपील की. 23 अगस्त 2007 को हाईकोर्ट ने ट्रायल कोर्ट के फैसले को खारिज कर दिया और कहा कि अभियोजन पक्ष ठोस सबूत पेश नहीं कर सका. बाद में यह मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा, जहाँ अप्रैल 2018 में सर्वोच्च न्यायालय ने भी हाईकोर्ट के फैसले को बरकरार रखा. इस तरह शिबू सोरेन इस मामले से पूरी तरह बरी हो गए. लेकिन इस लंबे मुकदमे ने उन्हें कई वर्षों तक कानूनी उलझनों में डाले रखा.
सांसद रिश्वतकांड का साया
1993 में जब पी.वी. नरसिम्हा राव की सरकार पर अविश्वास प्रस्ताव आया, तब झामुमो के चार सांसदों ने सरकार के पक्ष में वोट किया. बाद में आरोप लगा कि इन सांसदों को करोड़ों रुपये की रिश्वत दी गई थी. इस 'वोट फॉर कैश' मामले में शिबू सोरेन का नाम सीधे आरोपी के रूप में नहीं आया, लेकिन झामुमो की भूमिका के कारण वे लगातार जांच एजेंसियों और राजनीतिक आलोचना के घेरे में बने रहे. इस कांड ने भारतीय संसदीय राजनीति में भारी हलचल मचाई थी.
राजनीतिक जीवन में लगातार विवादों का सामना
शिबू सोरेन का राजनीतिक जीवन जितना संघर्षपूर्ण था, उतना ही विवादों से घिरा रहा. चिरूडीह और शशिनाथ झा हत्याकांड के अलावा उनके खिलाफ आय से अधिक संपत्ति के मामले में भी जांच हुई. हालांकि इनमें से अधिकांश मामलों में वे या तो बरी हो गए या सबूतों के अभाव में मामले बंद कर दिए गए. फिर भी इन सभी विवादों ने उनके सार्वजनिक जीवन और राजनीतिक विरासत को प्रभावित किया. बावजूद इसके, वे झारखंड में ‘दिशोम गुरु’ के रूप में लोकप्रिय बने रहे.