13 साल की उम्र में पिता को खोया, हाशिए पर पड़े आदिवासी समाज को दी आवाज, कहानी दिशोम गुरु शिबू सोरेन की...
4 अगस्त 2025 को झारखंड के पूर्व सीएम शिबू सोरेन का निधन हुआ. 'दिशोम गुरु' ने किडनी की लंबी बीमारी के बाद अंतिम सांस ली. उन्होंने महाजनी शोषण के विरुद्ध आवाज उठाई और झारखंड को राज्य का दर्जा दिलवाया. तीन बार मुख्यमंत्री और कोयला मंत्री रहे शिबू सोरेन का जीवन आदिवासी समाज को न्याय दिलाने की मिसाल बना रहेगा.

4 अगस्त 2025, यह तारीख झारखंड के इतिहास में एक शोक दिवस बनकर रह गई. झारखंड की आत्मा और संघर्ष की आवाज माने जाने वाले शिबू सोरेन ने दिल्ली के सर गंगा राम अस्पताल में अंतिम सांस ली. वे पिछले कई दिनों से किडनी संबंधी समस्याओं से जूझ रहे थे. 81 वर्ष की उम्र में दुनिया को अलविदा कहने वाले दिशोम गुरु ने सिर्फ एक राजनीतिक जीवन नहीं जिया, बल्कि झारखंड के आदिवासी समाज को उसका हक दिलाने की जिद में अपना पूरा जीवन झोंक दिया.
अपने पिता की मौत पर झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन का पोस्ट हर किसी की आंखें नम कर गया. उन्होंने लिखा, "आज मैं शून्य हो गया हूं, गुरुजी हम सबको छोड़ गए." हेमंत के लिए यह सिर्फ एक पिता का जाना नहीं था, बल्कि एक विचारधारा, एक आंदोलन, और एक रास्ता खो जाने जैसा था. शिबू सोरेन केवल एक राजनेता नहीं थे, वे एक चलती-फिरती पाठशाला थे जिन्होंने आदिवासी अधिकारों की नई परिभाषा गढ़ी.
13 साल की उम्र में हो गई थी पिता की हत्या
शिबू सोरेन का जन्म 11 जनवरी 1944 को तत्कालीन बिहार (अब झारखंड) के रामगढ़ जिले के नेमरा गांव में हुआ. उनके पिता सोबरन मांझी, इलाके के सबसे पढ़े-लिखे और जागरूक व्यक्तियों में माने जाते थे. वे शिक्षक थे, लेकिन महाजनों और सूदखोरों के खिलाफ बोलने की कीमत उन्हें अपनी जान देकर चुकानी पड़ी. 1957 में जब शिबू महज 13 साल के थे, तब उनके पिता की हत्या कर दी गई. उस दिन शिबू सोरेन ने एक प्रण लिया कि वो इस अन्याय का अंत करेंगे. एक बच्चे के भीतर, तब एक योद्धा ने जन्म लिया था.
जब खेत बना क्रांति का मैदान
पिता की मौत के बाद शिबू सोरेन ने गांव-गांव जाकर आदिवासियों को संगठित करना शुरू किया. उन्होंने महसूस किया कि महाजनों और सूदखोरों के जाल से आदिवासी खुद को नहीं निकाल पा रहे. उन्होंने "जमीनों धान काटो" नाम का एक आंदोलन छेड़ा. इसमें महिलाएं खेतों से धान काटती थीं, और पुरुष तीर-कमान लेकर उनकी रक्षा करते. यह आंदोलन केवल आर्थिक शोषण के खिलाफ नहीं था, यह अस्मिता की लड़ाई थी. धीरे-धीरे यह आंदोलन पूरे झारखंड में फैल गया. लोगों ने उन्हें गुरु मानना शुरू कर दिया और यहीं से "दिशोम गुरु" की उपाधि जन्मी.
'दिशोम गुरु' नाम क्यों पड़ा?
संथाली भाषा में "दिशोम" का अर्थ होता है 'देश' और "गुरु" का अर्थ होता है 'मार्गदर्शक'. 1970 के दशक में जब झारखंड अलग राज्य की मांग तेज होने लगी, तब शिबू सोरेन इस आंदोलन के केंद्र में थे. उन्होंने आदिवासियों को न केवल नेतृत्व दिया, बल्कि उन्हें उनकी आवाज भी लौटाई. उनके साहस, संगठन क्षमता और दूरदृष्टि के कारण उन्हें यह उपाधि दी गई. यह सिर्फ सम्मान नहीं था, यह उनके संघर्ष और आदिवासी चेतना की स्वीकारोक्ति थी.
1972 में बनाई झामुमो
1972 में उन्होंने "झारखंड मुक्ति मोर्चा" की स्थापना की. यह केवल एक राजनीतिक पार्टी नहीं, बल्कि आदिवासियों के अधिकार की आवाज बनकर उभरी. 1977 में उन्होंने पहली बार लोकसभा और विधानसभा चुनाव लड़ा, लेकिन हार गए. यह हार उन्हें तोड़ नहीं सकी. उन्होंने गांवों में फिर से दौरे शुरू किए, आदिवासियों से जुड़ाव और मजबूत किया. 1980 में वे पहली बार दुमका से लोकसभा पहुंचे और झारखंड मुक्ति मोर्चा के पहले सांसद बने. यह जीत केवल एक चुनाव नहीं था, यह एक आंदोलन की राजनीतिक वैधता थी.
बिहार से अलग कर बनाया झारखंड राज्य
शिबू सोरेन के जीवन का सबसे बड़ा सपना था झारखंड को एक अलग राज्य के रूप में देखना. यह सिर्फ भूगोल की लड़ाई नहीं थी, यह भाषाई, सांस्कृतिक और ऐतिहासिक न्याय की मांग थी. 1980 के दशक में यह आंदोलन जोर पकड़ने लगा. आदिवासी युवाओं में चेतना जगी. 15 नवंबर 2000 को जब झारखंड को अलग राज्य का दर्जा मिला, तो सबसे आगे वही खड़े थे दिशोम गुरु शिबू सोरेन. उस दिन उन्होंने न केवल राज्य का गठन देखा, बल्कि अपने संघर्ष की जीत को साकार होते देखा.
सत्ता में आए, लेकिन संघर्ष नहीं भूले
2005 में वह पहली बार झारखंड के मुख्यमंत्री बने, लेकिन केवल 9 दिन तक. 2008 में दूसरी बार मुख्यमंत्री बने, इस बार एक साल तक पद पर रहे. फिर 2009 में तीसरी बार पदभार संभाला, लेकिन कार्यकाल छोटा ही रहा. तीन बार मुख्यमंत्री बनने के बावजूद, वह एक बार भी कार्यकाल पूरा नहीं कर सके. मगर यह उनका उद्देश्य भी नहीं था. उनके लिए कुर्सी साध्य नहीं थी, बल्कि माध्यम थी- आदिवासियों के हक और राज्य की उन्नति के लिए.
संसद में भी बुलंद रही आवाज
शिबू सोरेन आठ बार लोकसभा और दो बार राज्यसभा के सदस्य रहे. केंद्र सरकार में उन्होंने तीन बार कोयला मंत्री का पद संभाला. 2004, 2004-05 और 2006 में उन्होंने कोयला मंत्रालय की जिम्मेदारी निभाई. झारखंड के प्राकृतिक संसाधनों को बचाने और स्थानीय लोगों को उसका लाभ दिलाने की उन्होंने लगातार कोशिश की. जब दिल्ली के दरबार में झारखंड की बात आती थी, तो शिबू सोरेन की आवाज सबसे बुलंद होती थी.
विरासत संभाल रहे हेमंत
शिबू सोरेन अब हमारे बीच नहीं हैं. लेकिन उनके विचार, उनके आंदोलन, और उनके आदर्श जीवित रहेंगे. उन्होंने हमें सिखाया कि जब कोई समाज चुप कर दिया जाए, तो कोई एक आवाज उठे और वह आवाज पूरे आंदोलन में बदल सकती है. झारखंड के हर गांव में, हर आदिवासी की आंखों में, उनकी प्रेरणा चमकती रहेगी. दिशोम गुरु चले गए, लेकिन वे आदिवासी अस्मिता, आत्मनिर्भरता और सामाजिक न्याय का वह दीपक जलाकर गए हैं, जो अब कभी बुझने वाला नहीं. अपने पीछे वे एक मजबूत राजनीतिक विरासत छोड़ गए हैं, जिसे अब उनका बेटा हेमंत सोरेन संभाल रहे हैं. पर शिबू सोरेन की जगह भरना शायद ही किसी के लिए संभव हो पाए.