बिहार में नंबर वन कौन? इन मुद्दों पर BJP-JDU और RJD ने खेला दांव, चुनावी हार-जीत 'प्रतिष्ठा' का सवाल
बिहार की राजनीति में इस समय हर दल अपने-अपने वोट बैंक को साधने में जुटा है. किस पार्टी का दांव किस जातीय और सामाजिक समीकरण पर है. ऐसा क्यों हैं, यह हर मतदाता के लिए जानना जरूरी है. कौन किस पर भरोसा जता रहा है और इसका सियासी महत्व क्या है?
बिहार एक बार फिर नवंबर में विधानसभा चुनाव होने की वजह से निर्णायक मोड़ पर है. यही वजह है कि बिहार की सियासत में चुनाव से पहले ही राजनीतिक दलों ने अपने-अपने ‘टारगेट ग्रुप’ तय कर लिए हैं. इस बार सियासी दल जातीय समीकरण, क्षेत्रीय प्रभाव और मुद्दों के आधार पर दांव लगा रहे हैं. दलित से लेकर पिछड़ा वर्ग, अल्पसंख्यक से लेकर ऊपरी जातियों तक को साधने की कवायद चरम पर है. सवाल यह है कि किस पार्टी की रणनीति किस समूह को लुभाने में कामयाब होगी और इसका नतीजों पर कितना असर पड़ेगा?
दरअसल, 21वीं सदी में बिहार की राजनीति के सबसे स्थायी चेहरे नीतीश कुमार और प्रदेश के सदाबहार नेता लालू यादव और बीजेपी की सबसे ज्यादा प्रतिष्ठा दांव पर है. भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) अपनी खोई हुई जमीन वापस पाने की कोशिश में जुटी है. वहीं तेजस्वी यादव साल 2020 वाला गलती नहीं दोहराना चाहते हैं, जिसकी वजह से आरजेडी नेतृत्व वाली सरकार बनते-बनते रह गई थी. इस बार आरजेडी ने एमवाई (मुस्लिम यादव) फार्मूले पर जोर दिया है. इसी तरह भाकपा (माले), कांग्रेस और इंडी गठबंधन बनाने वाले क्षेत्रीय दलों सहित अन्य छोटे दल अपनी-अपनी क्षमता से ज्यादा प्रदर्शन करने के लिए विशिष्ट क्षेत्रों पर नजर गड़ाए हुए हैं.
नीतीश की लोकप्रियता हुई कम
जनता दल यूनाइटेड पिछले दो दशक से बिहार में नीतीश कुमार के नेतृत्व में गठबंधन सरकार का मूल आधार है. हालांकि,बार बार पलटी मारने से नीतीश कुमार की लोकप्रियता पहले से कम हुई है. इसके बावजूद नीतीश ब्रांड अभी भी मजबूती से प्रदेश की राजनीति में शीर्ष पर है. कुर्मी और चुनिंदा ईबीसी वर्गों के बीच अभी भी जेडीयू पकड़ एकतरफा मजबूत है. हालांकि, उनका बार-बार गठबंधन मिलकर सरकार बनाना की नीति ने कई सवाल उनके खिलाफ खड़े कर दिए हैं. लोग यह जानना चाहते हैं कि नीतीश कुमार की राजनीतिक निष्ठा वास्तव में कहां है. या फिर उनकी कोई वैचारिक आधार ही नहीं है.
बीजेपी के पास नहीं है प्रदेश स्तरीय नेता
भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) लंबे समय से बिहार के राजनीतिक में जेडीयू के एक कनिष्ठ सहयोगी के रूप में बड़ी ताकत है. भाजपा 2020 के बाद स्वतंत्र रूप से अपना प्रभुत्व स्थापित करने का लक्ष्य बना रही है. भाजपा का मूल आधार हिंदुत्व आधार, उच्च-जातियों का समर्थन (विशेषकर भूमिहार, राजपूत), शहरी समुदाय और पसमांदा मुसलमानों के प्रति बढ़ता रुझान, ये सभी बीजेपी की रणनीति का हिस्सा हैं. मोदी प्रभाव पर सवार और युवा नेतृत्व के बावजूद पार्टी के पास बिहार में प्रदेश स्तरीय नेता का अभाव है. यही वजह है कि भाजपा का शीर्ष नेतृत्व कोई बड़ा दांव नहीं खेल पा रहा है.
आरजेडी दलितों और पिछड़ों का हासिल कर पाएगी समर्थन!
राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) 2020 के विधानसभा चुनाव में सबसे ज्यादा वोट शेयर हासिल करने वाली पार्टी है. आरजेडी मुसलमानों और यादवों के संयुक्त समर्थन पर काफी हद तक निर्भर है. युवाओं और हाशिए पर पड़े समुदायों के बीच तेजस्वी यादव की लोकप्रियता ने रोजगार सृजन की वजह से अच्छी बनी हुई है. फिर भी, पार्टी के लिए चुनौती दलितों और अन्य पिछड़ी जातियों को अपने पक्ष में करने की है.
गठबंधन की राजनीति में कांग्रेस की भूमिका अहम
महागठबंधन में एक छोटी लेकिन महत्वपूर्ण सहयोगी कांग्रेस अभी भी गठबंधन के गणित में रणनीतिक महत्व रखती है. हालांकि, उच्च जाति के मुसलमानों और दलितों पर इसका पारंपरिक प्रभाव कम हो रहा है, लेकिन संगठनात्मक गहराई और स्थानीय नेटवर्क की बदौलत पार्टी किशनगंज, सुपौल और कटिहार जैसे जिलों में मजबूत बनी हुई है.
वाम पार्टियों की इन जिलों में पकड़ मजबूत
कम्युनिस्ट पार्टियां (सीपीआई, सीपीआईएम, सीपीआईएमएल) ने मध्य बिहार में खासकर भोजपुर और आरा बेल्ट में वापसी की है, जहां उसने 2020 में 12 सीटें जीती थीं. भूमिहीन दलितों, वंचित ईबीसी और कृषि समुदायों के बीच आधार के साथ, यह श्रम अधिकारों, भूमि सुधार और सामाजिक न्याय पर अभियान चलाती है. लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा) जैसी छोटी जाति-आधारित पार्टियां है. एलेजेपीआर कांटे के मुकाबलों को प्रभावित करन सकती है. सीमांचल क्षेत्र में एआईएमआईएम ने साल 2020 में पांच सीट जीतकर कांग्रेस और आरजेडी की चिंता बढ़ा दी है.
कहां पर किसका प्रभाव ज्यादा?
मगध और भोजपुर
पटना, आरा और गया को कवर करने वाले ये क्षेत्र उच्च-जातीय पुनरुत्थान और दलितों के दावे के लिए प्रतिष्ठित क्षेत्र हैं. जाति-आधारित राजनीतिक हिंसा की पृष्ठभूमि में भाकपा (माले) का यहां काफी प्रभाव है। इस बीच, भाजपा और जेडीयू मध्यम-जाति के शहरी लोगों और नौकरशाही नेटवर्क के बीच अपनी पकड़ बनाए हुए है.
सीमांचल पूर्वोत्तर बिहार
किशनगंज, कटिहार, अररिया और पूर्णिया सहित एक मुस्लिम बहुल क्षेत्र सीमांचल राजनीतिक रूप से अस्थिर बना हुआ है. साल 2020 में AIMIM की पांच सीटें जीतकर सफलता ने इस क्षेत्र की विशिष्ट पहचान को और मजबूत किया. आरजेडी में शामिल होने के बाद AIMIM ने केवल अमौर सीट ही बरकरार रख पाई. कांग्रेस और आरजेडी धर्मनिरपेक्षता के जरिए यहां मुस्लिम मतदाताओं को लुभाने की कोशिश करते रहे हैं.
मिथिलांचल
मैथिल ब्राह्मणों और भूमिहारों का सांस्कृतिक गढ़ है. मिथिलांचल भाजपा-जेडीयू का गढ़ है. फिर भी, यह क्षेत्र बाढ़, पलायन और बेरोजगारी से भी जूझता है. 100 से ज्यादा विधानसभा सीटों के साथ यह अपने संगठनात्मक अनुशासन और जातिगत निष्ठाओं के कारण एक निर्णायक चुनावी क्षेत्र बना हुआ है.
कोसी और अंग
सहरसा, मधेपुरा और भागलपुर को कवर करने वाले ये परिवर्तनशील क्षेत्र अप्रत्याशित जातिगत गतिशीलता को दर्शाने वाले क्षेत्र हैं. शरद यादव और पप्पू यादव जैसे नेताओं के बाद विकास और पहचान की राजनीति प्रमुखता के लिए संघर्ष करती है. इस क्षेत्र में आरजेडी का प्रभाव मजबूत है, लेकिन बीजेपी लगातार अपनी पकड़ बनाने में जुटी है.
सारण और चंपारण
यह क्षेत्र अपनी यादव आबादी के माध्यम से आरजेडी और जेडीयू के पारंपरिक प्रभुत्व वाला क्षेत्र है. मोतिहारी और बेतिया जैसे शहरी केंद्रों में भाजपा के लिए समर्थन इस क्षेत्र में बढ़ा है.
बिहार की राजनीति की रीढ़
बिहार आज भी जातिगत विभाजन से घिरा हुआ है. आबादी के लिहाज से लोग अत्यंत पिछड़ा वर्ग (ईबीसी) 36 प्रतिशत, अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) जिसमें यादव 14.26 प्रतिशत, कुशवाहा 4.21 प्रतिशत, कुर्मी 2.87 प्रतिशत, बनिया 2.31 प्रतिशत, अनुसूचित जाति 19.65 प्रतिशत, अनुसूचित जनजाति 1.68 प्रतिशत, उच्च जातियां जिनमें ब्राह्मण 3.65 प्रतिशत, राजपूत 3.45 प्रतिशत, भूमिहार 2.87 प्रतिशत, कायस्थ 0.60 प्रतिशत शामिल हैं. प्रमुख ईबीसी समूहों में मल्लाह 2.6 प्रतिशत, तेली 2.81 प्रतिशत, नाई 1.59 प्रतिशत और नोनिया 1.91 प्रतिशत शामिल हैं.





