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55 साल, तीन पीढ़ियां और दो करोड़ की कुर्बानी… 9 धुर जमीन ने बदल दिया पूरा गांव!

बेगूसराय के भेलवा गांव में 9 धुर (2 डिसमिल) जमीन को लेकर 1971 से चल रहा विवाद 55 साल बाद खत्म हुआ. जगदीश यादव ने दस्तावेजों के दम पर केस जीता, जबकि मौखिक सौदे का दावा करने वाले यदु पक्ष हार गया. अदालती तारीखों में दोनों पक्षों ने कुल 10 बीघा उपजाऊ खेत बेच डाले, पर अंततः पूर्वजों का हक साबित हुआ, लेकिन न्यायिक यात्रा महंगी रही.

55 साल, तीन पीढ़ियां और दो करोड़ की कुर्बानी… 9 धुर जमीन ने बदल दिया पूरा गांव!
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नवनीत कुमार
Curated By: नवनीत कुमार

Updated on: 29 May 2025 3:18 PM IST

बिहार में एक कहावत है कि अगर इंसान दो मिनट का गुस्सा बर्दाश्त कर ले तो वह पूरे साल भर की खर्ची (राशन या पैसा) बचा सकता है. अब गुस्से से शुरू हुई लड़ाई बेगूसराय जिले के दो पक्षों को बहुत भारी पड़ा. दरअसल, बेगूसराय जिले के चेरिया बरियारपुर स्थित भेलवा गांव में शुरू हुआ 9 धुर यानी 2 डिसमिल जमीन का एक मामूली विवाद 55 साल में ऐसा गंभीर बन गया कि दोनों पक्षों को अपने-अपने हिस्से की कुल 10 बीघा जमीन बेचनी पड़ी. अदालत में तारीखों की लकीरों के बीच वो खेत बिकते रहे, जिनमें कभी परिवारों की फसलें लहलहाती थीं. जो बचा, वह था इंसाफ की उम्मीद और पीढ़ियों की जिद.

1971 में शुरू हुआ यह विवाद सिर्फ जमीन का नहीं था, बल्कि उत्तराधिकार, भावनाओं और अधिकार की लड़ाई बन गया. जगदीश यादव और यदु यादव, रिश्तेदार होने के बावजूद अदालत की दो विपरीत मेजों पर खड़े रहे. केस के दौरान दोनों की मौत हो गई और फिर उनके बेटे और अब पोते कोर्ट कचहरी के चक्कर काटते रहे.

कागजों ने तय किया फैसला

यदु यादव का दावा था कि उन्होंने 9 धुर जमीन मौखिक रूप से खरीदी थी, लेकिन कागजात और उत्तराधिकार कानून ने जगदीश यादव के पक्ष में फैसला सुनाया. अदालत ने यह साफ किया कि बिना वैध दस्तावेज और कब्जे के दावे न्यायिक दृष्टि से कमजोर हैं. मौखिक सौदा, लिखित हक के सामने टिक नहीं सका.

ज़मीन के मोल में मिला न्याय का तोल

55 साल की इस लड़ाई में जहां कोर्ट ने फैसला सुनाया, वहीं आर्थिक नुकसान भी गहरा था. दोनों पक्षों ने मिलाकर लगभग 10 बीघा जमीन बेच दी जिनकी आज की कीमत करीब दो करोड़ रुपये आंकी जाती है. लेकिन जिसके हिस्से जमीन आई, उसके हिस्से भावनात्मक संतोष भी है कि उसके पूर्वजों का दावा सही साबित हुआ.

वक्त ने छीन लिए लोग

इस केस की सबसे मार्मिक सच्चाई यह रही कि जिन लोगों ने केस शुरू किया, वे अब दुनिया में नहीं हैं. केस के दौरान तीन अधिवक्ता, कई न्यायाधीश और खुद वादी-प्रतिवादी चल बसे. कोर्ट में अब पोते अपनी दादी और दादा की लड़ाई लड़ते रहे. ये कहानी बताती है कि भारत में न्याय सिर्फ कानूनी नहीं, पारिवारिक विरासत भी बन जाती है.

केस का बोझ, इंसाफ की देरी

वकील प्रभात कुमार के अनुसार, केस की देरी का एक बड़ा कारण कोर्ट का बोझ और कानूनी उत्तराधिकारियों की पहचान रही. अलग-अलग अदालतों से गुजरते हुए मामला मंझौल अनुमंडल के ADJ कोर्ट तक पहुंचा. यह केस भारतीय न्याय प्रणाली की उस गुत्थी को उजागर करता है जहां एक फैसले के लिए तीन पीढ़ियों को इंतजार करना पड़ा.

...क्योंकि बहुत कुछ खो चुका था

जगदीश यादव के पोते ने फैसला मिलने पर कहा, “दादा की जमीन हमें वापस मिली, पर दादा नहीं हैं, पिता नहीं हैं और खेत भी नहीं बचे.” यह जीत किसी विजयी जयकार की नहीं, बल्कि एक धीमी आह की तरह है जिसमें सत्य की विजय हुई है, पर संघर्ष ने सब कुछ चुकवा लिया है.

क्या यही है न्याय का चेहरा?

यह केस भारत की न्यायिक प्रक्रिया पर एक बड़ा सवाल छोड़ता है. क्या आम नागरिक के लिए इंसाफ की कीमत इतनी भारी होनी चाहिए? क्या 9 धुर जमीन के लिए 55 साल लगना व्यवस्था की विफलता नहीं है? यह कहानी सिर्फ एक गांव की नहीं, पूरे देश के उन लाखों लोगों की है जो अपने अधिकार के लिए लड़ते-लड़ते सब कुछ हार जाते हैं सिवाय उम्मीद के.

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