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हर दिल में मौजूद हैं ‘ज़ुबीन दा’... गलियों और दुकानों में महसूस होती है कमी, एक महीना बीतने के बाद क्या बोले उनके करीबी?

Zubeen Garg: असम के महान लोक कलाकार ज़ुबीन गर्ग को गुज़रे एक महीना हो चुका है, लेकिन उनकी मौजूदगी अब भी हर दिल में जिंदा है. गुवाहाटी की गलियों से लेकर छोटे दुकानदारों तक, ज़ुबीन की सादगी, इंसानियत और लोगों से जुड़ाव ने उन्हें सिर्फ़ गायक नहीं, बल्कि असम की आत्मा बना दिया था. उनके चाहने वाले आज भी उनकी याद में दीये जलाते हैं और न्याय की उम्मीद करते हैं. जानिए कैसे ज़ुबीन का प्रेम, विनम्रता और लोकजीवन से रिश्ता आज भी लोगों के जीवन को रोशन कर रहा है.

हर दिल में मौजूद हैं ‘ज़ुबीन दा’... गलियों और दुकानों में महसूस होती है कमी, एक महीना बीतने के बाद क्या बोले उनके करीबी?
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( Image Source:  zubeen.garg )

Zubeen Garg: असम के मशहूर गायक, अभिनेता और लोकप्रेमी जुबिन गर्ग को गुज़रे एक महीना हो चुका है, लेकिन उनकी मौजूदगी अब भी हर दिल में जिंदा है. उनकी आवाज, सादगी और इंसानियत ने उन्हें सिर्फ़ कलाकार नहीं, बल्कि असम की आत्मा बना दिया था. चाहे गलियों की चाय की दुकानें हों या स्कूल के बच्चे हर कोई उन्हें अपने जैसा मानता था.

द असम ट्रिब्यून की रिपोर्ट के अनुसार, गुवाहाटी के काहिलीपारा के दुकानदार मनोज दास के लिए जुबिन सिर्फ़ एक ग्राहक नहीं, बल्कि परिवार थे. वह कहते हैं, “वो मुझे ‘डेका’ कहकर बुलाते थे, जैसे कोई बड़ा भाई अपने छोटे भाई को पुकारता है.” हर सुबह वह दुकान पर आकर बैठते, बात करते और आम लोगों के बीच घुल-मिल जाते.

असमिया खाना था पसंद

दास बताते हैं कि जुबिन को साधारण असमिया खाना बेहद पसंद था. दास की मां उनके लिए घर जैसा खाना बनाती थीं चावल, दाल, मछली करी, या साधारण ऑमलेट. जुबिन कहते थे, यह खाना मुझे अपने घर की याद दिलाता है.” उन्हें बड़े रेस्टोरेंट की चमक नहीं, लोगों के प्यार का स्वाद पसंद था.

दिल का था रिश्ता

मनोज याद करते हैं कि जब उनकी दुकान की मरम्मत की जरूरत होती थी, जुबिन चुपचाप मदद करते थे. उन्होंने एक बार कहा था, ‘डेका, यह दुकान हमारी है.’ वो कभी स्टार की तरह नहीं, बल्कि अपने जैसे लगते थे, मनोज की आंखें नम हो जाती हैं.

एक परिवार की यादों में बस गया कलाकार

मनोज की पत्नी कहती हैं, जुबिन दा हमारे लिए भगवान जैसे थे. हमारी बेटियों का ख्याल रखते, कुत्तों को खाना खिलाते, राहगीरों की मदद करते. उनकी आंखें भर आती हैं, अब सुबहें सूनी लगती हैं. बस इंसाफ की दुआ करते हैं, ताकि उनके जाने का दर्द कुछ कम हो.

‘कचारी होटल’ दिया नाम

जीएमसीएच के पास टुल्टुल सैकिया के छोटे होटल की कहानी भी जुबिन से जुड़ी है. एक रात उन्होंने मेरा नाम पूछा और बोले, ‘आज से मैं तुम्हें कचारी कहूंगा.’ तभी से होटल का नाम ‘कचारी होटल’ पड़ गया. सैकिया बताते हैं, “वो खुद खाना बनाते थे, सबको खिलाते थे और पैसे छोड़ जाते थे. एक बार 5,000 रुपये दिए, जिससे मैंने टीवी खरीदा आज वही टीवी उनकी यादों में जिंदा है.

अनजान लोगों तक पहुंची उनकी उदारता

जुबिन की दया केवल जानने वालों तक सीमित नहीं थी. जीएमसीएच गेट पर लोग बताते हैं कि वे मरीज़ों और परिजनों से बात करते, आर्थिक मदद करते और चुपचाप चले जाते. वो हमेशा कुछ न कुछ देकर जाते थे पैसे, खाना या मुस्कान, एक विक्रेता याद करता है.

अब भी गूंजती है आवाज

आज असम के हर कोने में मिट्टी के दीये जुबिन की याद में जल रहे हैं. लोग कहते हैं, वो सिर्फ गए नहीं, बदल गए हैं. अब वो हर सुबह की हवा में हैं. मनोज दास की बात में वो सच्चाई झलकती है, वो अब भी आते हैं, बस पहले जैसे नहीं.

असम न्‍यूज
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