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मंदिर में धर्म ध्वज की परंपरा: क्या है महत्व और क्यों माना जाता है शुभ? जानें इसके नियम

Shri Ram Mandir Dharma Dhwaja: भारत में धर्म ध्वज का इतिहास बहुत पुराना है. मंदिर में धर्म ध्वज की परंपरा केवल धार्मिक रस्म नहीं बल्कि यह भारतीय सभ्यता, ऊर्जा, इतिहास, आस्था और विजय का शाश्वत प्रतीक है. वेदों से लेकर पुराणों, रामायण, महाभारत और आधुनिक मंदिरों तक ध्वज सदैव धर्म और सत्य की जीत का संदेश देता आया है.

मंदिर में धर्म ध्वज की परंपरा: क्या है महत्व और क्यों माना जाता है शुभ? जानें इसके नियम
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( Image Source:  ANI )

Shri Ram Mandir Dharma Dhwaja: श्री राम मंदिर में लगने वाली धर्म ध्वजा को हिंदू परंपरा में काफी अहम और पवित्र माना गया है. यह केवल धार्मिक प्रतीक ही नहीं, बल्कि देव उपस्थिति, ऊर्जा शुद्धि और धर्म की विजय का संकेत है. शास्त्रों में इसे मंदिर पर लगाना अनिवार्य बताया गया है. ध्वजा लगाने से वातावरण में सकारात्मक ऊर्जा बढ़ती है, नकारात्मक शक्तियां दूर होती हैं और मंदिर परिसर में दिव्यता को बढ़ावा मिलता है.

धर्म ध्वज मंदिर की देव उपस्थिति का प्रतीक है. बताती है कि यह स्थान पवित्र और दैवीय शक्ति से युक्त है. धर्म ध्वज को सत्य और विजय का प्रतीक माना जाता है. राम मंदिर रामराज्य के आदर्शों का संदेश देता है. यह नकारात्मक ऊर्जा को दूर करके वातावरण को पवित्र और सकारात्मक बनाती है.

प्राचीन ग्रंथों में कहा गया है कि ध्वजा रहित मंदिर अधूरा होता है. मंदिर ध्वज भक्तों के लिए दिशा-सूचक और सुरक्षा का संकेत होती है. ध्वजा हवा में लहराकर परिसर में प्राण शक्ति (life force) बढ़ाती है. इसे देवता के सम्मान और प्रतिष्ठा के रूप में भी देखा जाता है.

धर्म ध्वज लगाने के नियम

हिंदू मंदिरों में ध्वज लगाने के नियम निर्धारित हैं. यह देवालय के सर्वोच्च बिंदु पर लगाई जाती है. इसका कपड़ा स्वच्छ और पवित्र होना चाहिए. इसमें भगवान से जुड़ा चिन्ह होना आवश्यक है. इसे शुभ मुहूर्त में ही बदला जाता है.

ध्वज का महत्व

धर्म ध्वज किसी भी हिंदू मंदिर का अत्यंत पवित्र और अनिवार्य प्रतीक माना गया है. यह केवल एक कपड़े का झंडा नहीं होता, बल्कि यह धर्म की विजय, ऊर्जाओं की शुद्धि और देवता की आध्यात्मिक उपस्थिति का संकेत माना जाता है. विशेष रूप से भगवान श्रीराम के मंदिर में लगी ध्वजा मर्यादा, धर्म, सत्य और समर्पण का प्रतीक होती है. शास्त्रों के अनुसार मंदिर में ध्वज यह संकेत देती है कि यह स्थान देवताओं का है, यहां दिव्य शक्ति का वास है.

धर्म ध्वज हवा में लहरा कर लगाने से वातावरण में सकारात्मक ऊर्जा (life force) का संचार होता है. इसका सीधा असर इंसान पर होता है. इससे नकारात्मक ऊर्जा हटती है. परिसर में पवित्रता और दिव्यता बढ़ती है. परंपरा के अनुसार प्राचीन काल में ध्वजा देखकर ही लोग दूर से जान जाते थे कि मंदिर कहां है.

देवता की प्रतिष्ठा और सम्मान का प्रतीक

धर्म ध्वज देवता की सम्मान-रूप सज्जा मानी जाती है. जैसे राजमहलों पर ध्वज राजा की उपस्थिति का संकेत है, वैसे मंदिर पर ध्वज भगवान की सत्ता की मौजूदगी होती है.

लगाना जरूरी क्यों?

  • अग्नि पुराण, स्कंद पुराण, वास्तु शास्त्र और कर्मकांड ग्रंथों में मंदिर के ऊपर ध्वजा लगाना आवश्यक बताया गया है. यह माना गया है कि ध्वजा रहित मंदिर अधूरा होता है.
  • कई मंदिरों में प्रतिदिन या निश्चित अंतराल पर ध्वज बदलने की परंपरा है. यह ‘नवीनता’ और ‘जीवंतता’ का प्रतीक है.
  • ऊपर लहराती ध्वजा बुरी शक्तियों को दूर करती है. मंदिर में सकारात्मक संदेश देती है. हिंदू परंपरा के अनुसार जहां धर्म ध्वजा लहराती है, वहां दैवीय कृपा और रक्षा बनी रहती है.

श्रीराम मंदिर में ध्वज का मतलब

राम का अर्थ ही है - मर्यादा, अनुशासन, सत्य. ध्वजा भगवान राम द्वारा स्थापित मूल्यों को सर्वोच्च मानता है. साथ ही इस मूल्यों को मानव जीवन में बढ़ावा देने के लिए प्रेरणा पुंज के रूप में काम करता है. शिखर पर फहराती ध्वजा यह घोषित करती है, धर्म ने एक बार फिर से अस्तित्व में अपना स्थान ग्रहण कर लिया है. यही वजह है कि हनुमान जी के ध्वज को ‘कपिध्वज’ कहा गया है.

लाभ

  • इसका आध्यात्मिक दृष्टि से लाभ सबसे ज्यादा होता है. मन में श्रद्धा, भक्ति और शांति बढ़ती है. देव कृपा बनी रहती है. नकारात्मक विचार और ऊर्जा दूर होती है. वातावरण में ऊर्जा बढ़ती है. मंदिर परिसर में पवित्रता और सुरक्षा की भावना को बढ़ावा मिलता है. नकारात्मकता का प्रभाव कम होता है.
  • भारत के मंदिरों में धर्म ध्वज (ध्वजारोहण) की परंपरा अत्यंत प्राचीन है, जिसकी जड़ें वैदिक काल से जुड़ी मानी जाती हैं। ध्वज को मंदिर की आस्था, विजय, पवित्रता और संरक्षण का प्रतीक माना गया है.

ध्वज की परंपरा का इतिहास

धर्म ध्वज की परंपरा वैदिक काल से चली आ रही है. ऋग्वेद और अथर्ववेद में ध्वज, पताका और ध्वज-स्तम्भ का जिक्र मिलता है. उस समय ध्वज दैवी शक्तियों के आह्वान, यज्ञ स्थल की पहचान और दुष्ट शक्तियों से रक्षा के प्रतीक के रूप में माना जाता था. देवताओं जैसे इंद्र, अग्नि, सूर्य और विष्णु से जुड़े ध्वजों का वर्णन वेदों में मिलता है.

स्कंद पुराण में ध्वज-आराधना का वर्णन मिलता है. इसमें कहा गया है कि “जहां मंदिर के शीर्ष पर ध्वज लहराता है, वहां पाप नष्ट होते हैं और शुभ शक्तियों का अस्तित्व बना रहता है. गरुड़ पुराण, अग्नि पुराण और विष्णु धर्मोत्तर पुराण में भी मंदिर के द्वार और शिखर पर ध्वज के स्थापित होने का उल्लेख है. ध्वज का रंग अक्सर केसरिया, भगवा, पीला या लाल होता है, जो त्याग, शक्ति, पवित्रता और उत्साह का प्रतीक है.

दक्षिण भारत

दक्षिण भारतीय मंदिरों में ध्वज-स्तंभ या ध्वजस्तंभ (कंबम) के रूप में विशाल पीतल/सोने चढ़े स्तंभ सदियों से मौजूद हैं. विशेष त्योहारों, ब्रह्मोत्सव और धार्मिक अनुष्ठानों की शुरुआत ध्वजारोहण से होती है. तिरुपति बालाजी, मदुरै मीनाक्षी, रामेश्वरम और सबरीमाला मंदिर में यह परंपरा आज भी राजनीतिक और सांस्कृतिक पहचान का हिस्सा है.

उत्तर भारत में शिखर ध्वज

उत्तर भारत में मंदिरों के शिखर पर ध्वज चढ़ाया जाता है. जगन्नाथ पूरी मंदिर में हर दिन ध्वज बदला जाता है. यह परंपरा 800 वर्षों से जारी है. वृंदावन, द्वारका और कई वैष्णव परंपरा के मंदिरों में ध्वज को भगवान की अनवरत सेवा माना जाता है.

रामायण में श्री राम और रावण दोनों के रथों पर ध्वज का वर्णन है. महाभारत में अर्जुन का ध्वज 'कपिध्वज' जिस पर हनुमान जी का चिन्ह होता था. यह ध्वज दैवीय संरक्षण और विजय का प्रतीक था.

आधुनिक समय में में राम मंदिर, द्वारका, सोमनाथ, उज्जैन और पुरी जैसे बड़े मंदिरों में ध्वजारोहण एक प्रमुख अनुष्ठान है. इसे राष्ट्र की सांस्कृतिक विरासत का हिस्सा माना जाता है.

धर्मराम मंदिर
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