अग्निदेव को ही क्यों लगता है श्राद्ध में पहला भोग? गरुड़ पुराण में आती है कथा
कहीं भी श्राद्ध हो तो पहला भोग अग्निदेव को लगता है. गरुड़ पुराण की कथा के मुताबिक अग्निदेव श्राद्ध के भोजन में से अग्नितत्व को अपने समाहित कर लेते हैं. इसके बाद ही यह अन्य देवताओं और पितरों को अर्पित किया जाता है.

कहीं भी श्राद्ध कर्म होता है तो पहला भोग अग्निदेव को लगता है. इसके पीछे भी मान्यता पर आधारित एक कथा गरुड़ पुराण में आती है. इस कथा के मुताबिक ऋषियों से शुरू होकर राजाओं तक और राजाओं से आम जनता तक पिंडदान और श्राद्ध की परंपरा पहुंची तो सभी लोग पितरों और देवताओं को को खूब भोजन कराने लगे. चूंकि उन्हें इतना खाने की आदत नहीं थी. इसलिए अर्जीण होने लगा. चूंकि भक्तों के इस आदर भाव के चलते देवता भोजन को ठुकरा नहीं सकते थे, इसलिए समस्या के समाधान के लिए वह ब्रह्मा के पास पहुंचे. उस समय ब्रह्मा जी ने भी देवताओं की समस्या को सुनकर हाथ खड़े कर लिए. हालांकि उन्होंने कहा कि इस समस्या का समाधान यदि अग्निदेव चाहें तो कर सकते हैं.
इसके बाद सभी देवताओं ने अग्निदेव का आह्वान किया. ब्रह्मा की अनुमति से अग्निदेव ने उस समय देवताओं को आश्वासन दिया कि अब जहां कहीं भी श्राद्ध का भोजन होगा, सबसे पहले वह खुद भोजन करेंगे. ऐसा कर वह भोजन में से अग्नितत्व ग्रहण कर लेंगे. इससे देवताओं को फिर कभी अर्जीण जैसी समस्या से परेशान नहीं होना पड़ेगा. उस समय के बाद से ही श्राद्ध का भोजन कंडे पर बनने लगा. वहीं पका हुआ भोजन सबसे पहले अग्निदेव को अर्पित किया जाने लगा. मान्यता है कि आज भी सभी देवताओं के साथ ही अग्निदेव भी श्राद्ध् का भोजन ग्रहण करने के लिए आते हैं, लेकिन वह सबसे पहले भोजन पाते हैं.
परंपरागत तरीके से किया जाता है देवताओं का आह्वान
बता दें कि श्राद्ध पक्ष में लोग बड़े जोश-खरोश के साथ अपने पितरों का तर्पण कर रहे हैं और एक समारोह की तरह ही अपने ईष्ट मित्रों को बुलाकर भोजन करा रहे हैं. इसके लिए कहीं बुफे सजाया जाता है तो कहीं पंगत बैठाई जाती है. हालांकि देवताओं और पितरों का आह्वान करने और उन्हें भोग परोसने के लिए उसी परंपरा का निर्वहन किया जाता है, जो लाखों वर्षों से पीढ़ी दर पीढ़ी चलती आ रही है. इसमें आज भी कटहल के पत्ते पर देवताओं को भोग परोसा जाता है. वहीं देवताओं को भोग अर्पित करने से पहले जिस चूल्हें पर भोजन तैयार होता है, वहीं पर अग्निदेव को भोग अर्पित कर प्रार्थना की जाती है कि यह भोग देवताओं से लेकर पितरों तक और फिर उनके वंशजों तक का कल्याण करें.