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'मैं तेरी पीठ खुजाऊं तू मेरी पीठ खुजा,' जज-वकीलों के ऐसे गठबंधन में गरीब को न्याय की बात बेईमानी!

दिल्ली उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश जस्टिस एस. एन. ढींगरा ने स्टेट मिरर हिंदी से खास बातचीत में भारत की न्याय व्यवस्था पर तीखा हमला बोला. उन्होंने कहा कि सुप्रीम कोर्ट और नामी वकीलों के बीच “मैं तेरी पीठ खुजाऊं, तू मेरी खुजा” जैसा गठबंधन बन चुका है. गरीब को न्याय मिलना अब नामुमकिन हो गया है. ढींगरा ने सुप्रीम कोर्ट की प्राथमिकताओं पर सवाल उठाते हुए कहा-“जब जज जानवरों पर संज्ञान लें लेकिन गरीब की पुकार अनसुनी रहे, तब समझिए न्याय व्यवस्था मर चुकी है.”

मैं तेरी पीठ खुजाऊं तू मेरी पीठ खुजा, जज-वकीलों के ऐसे गठबंधन में गरीब को न्याय की बात बेईमानी!
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संजीव चौहान
By: संजीव चौहान

Updated on: 26 Oct 2025 6:24 PM IST

"भारत में न्याय के लिए कानून तो बना है. उस कानून का इस्तेमाल मगर अपने अपने नफा-नुकसान के हिसाब से किया जाता है. यह काम सुप्रीम कोर्ट के जजों और देश के तमाम नामी-गिरामी वकीलों की साठगांठ से होता है. उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों और तमाम मशहूर वकीलों के के बीच वही रिश्ता है जैसे की मैं तेरी पीठ खुजाऊं और तू मेरी पीठ खुजा दे.

सोचिए ऐसे में क्यों और कैसे नहीं हाँफने लगेगा मजबूत से मजबूत कानून भी. जब जज और वकीलों के बीच इस कदर की घटिया परिपाटी पनप चुकी हो तो फिर, किसका न्याय कैसा न्याय और किसको न्याय. ऐसे गठबंधन में गरीब को न्याय मिलने या दिलाने की बात तो दूर की कौड़ी है. भारत की मौजूदा न्यायायिक प्रणाली का यह वह कड़वा सच है, जिसे जानता तो हर कोई है. मगर इस बारे में खुलकर बोलकर बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधे?"

'कानून नहीं, कानून लागू करने वालों की सांठगांठ बड़ी समस्या है'

यह तमाम बेबाक मगर आम भारतीय से जुड़ी बातें बयान की हैं दिल्ली उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश जस्टिस एस एन ढींगरा ने. जस्टिस शिव नारायण ढींगरा स्टेट मिरर हिंदी के एडिटर क्राइम इनवेस्टीगेशन से एक्सक्लूसिव इंटरव्यू के दौरान बातचीत कर रहे थे. दिल्ली उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश ने एक सवाल के जवाब में कहा, "दरअसल हमारे कानून में बहुत ज्यादा कमी नहीं. बस यह है कि कानून को लागू करवाने वाले तमाम लोग (जज और वकील) आपसी सांठगांठ से इसे अपने हिसाब. खुद के नफा-नुकसान से गुणा-गणित से हांक और चला रहे हैं."

देश की इसी बेतरतीब हो चुकी न्यायायिक-व्यवस्था पर सवालिया निशान लगाते हुए जस्टिस एस एन ढींगरा ने कहा, "मै कोई हैरत की विशेष बात नहीं बता रहा हूं. पूरा देश देख रहा है कि बड़े-बड़े लोगों के लिए आधी रात को भी सुप्रीम कोर्ट की बेंच बैठने को तत्पर रहती है. जबकि वकीलों की महंगी फीसें, सुप्रीम कोर्ट और उसके न्यायाधीशों को हौवा समझने वाला आम या देश का गरीब आदमी, सुप्रीम कोर्ट की दहलीज पर पांव रखने की भी जुर्रत नहीं कर पाता है. जब कानून बना ही देश के आम-ओ-खास को न्याय दिलाने के लिए है. तब फिर गरीब आदमी सुप्रीम कोर्ट और वहां के वकीलों से सामना कर पाने की हैसियत आखिर क्यों नहीं रखता है? क्यों डरता है देश का आम-गरीब आदमी न्याय पाने के लिए सुप्रीम कोर्ट का रुख करने से."

'जब सुप्रीम कोर्ट के जज जानवरों पर संज्ञान लें, पर गरीब की पुकार अनसुनी रहे'

स्टेट मिरर हिंदी के एक सवाल के जवाब में जस्टिस एस एन ढींगरा ने कहा, "जिस देश की सुप्रीम कोर्ट के जज जानवरों से संबंधित मामलों पर स्वत: संज्ञान लेने लगें. या ऐसे मामलों की पीआईएल स्वीकार करने लगें. और इन जजों व वकीलों को न्याय के लिए दर-दर भटकता हुआ पीड़ित-गरीब दिखाई ही न देता हो. तब समझ लीजिए कि देश की न्यायायिक व्यवस्था का हश्र या पतन किस हद तक हो चुका है. और हो भी यही रहा है. सुप्रीम कोर्ट के मीलॉर्ड और वकीलों की मिलीभगत तो यहां तक देखी सुनी जाती रही है कि, तमाम जज अपने चहेते वकीलों से ही कहते हैं कि तुम फलां मामले पर पीआईएल दाखिल करो मैं उसे मंजूर करके उसके ऊपर सुनवाई शुरू कर दूंगा. ऐसे में भला सोचो कि सुप्रीम कोर्ट के जजों के पास भला वास्तव मे न्याय के लिए दर दर की ठोकरें खाने वाले आम पीड़ित से भला क्या और क्यों कैसे सरोकार होगा.

दूसरी बात यह भी है कि आज वकील और उनकी फीसें इस कदर की महंगी-ऊंची हो गयी है कि, जिसके पास भारी-भरकम रकम जेब में मौजूद होगी. वही इंसान न्याय पाने के लिए सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाने की हैसियत रख सकता है. वरना अगर पैनी नजर डालिए तो आज भी हजारों लाखों मामले देश की अदालतों में कई कई दशक से न्याय पाने के लिए कोर्ट-कचहरी की कानून की फाइलों में पड़े-पड़े हाँफ रहे हैं."

स्टेट मिरर हिंदी के साथ विशेष बातचीत के दौरान दिल्ली उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश शिव नारायण ढींगरा ने आगे कहा, "जब तक सुप्रीम कोर्ट, वहां के जजों और कुछ वकीलों के बीच की दोस्ती नहीं टूटेगी. तब तक आम आदमी तो मजबूत कानून होने के बाद भी न्याय मिलने की आस छोड़ ही दे. आस छोड़ क्या दे, आस तो बीते कई दशक से देश का आम आदमी छोड़े ही बैठा है. क्योंकि जजों-वकीलों के महंगे मकड़जाल को भेद कर सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच पाना कम से कम आज आम-आदमी के बूते की बात तो नहीं रही है. इसके एक नहीं हजारों उदाहरण मौजूद हैं. "

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