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‘उदयपुर फाइल्स’ फिल्म की रिलीज पर रोक के लिए एक साथ तीन हाईकोर्ट क्यों गई जमीयत उलेमा-ए-हिंद?

‘उदयपुर फाइल्स’ फिल्म के ट्रेलर पर विवाद गहराता जा रहा है. जमीयत उलेमा-ए-हिंद ने दिल्ली, मुंबई और गुजरात हाईकोर्ट में याचिका दायर कर इसे रोकने की मांग की है. आरोप है कि फिल्म सांप्रदायिक तनाव भड़का सकती है. धार्मिक भावनाओं को आहत करने और संविधान के मूल अधिकारों के उल्लंघन का भी दावा किया गया है.

‘उदयपुर फाइल्स’ फिल्म की रिलीज पर रोक के लिए एक साथ तीन हाईकोर्ट क्यों गई जमीयत उलेमा-ए-हिंद?
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( Image Source:  social media )
नवनीत कुमार
Curated By: नवनीत कुमार

Updated on: 6 July 2025 2:46 PM IST

‘उदयपुर फाइल्स’ फिल्म का ट्रेलर सामने आते ही देश के सामाजिक और राजनीतिक हलकों में हलचल मच गई है. ट्रेलर में नूपुर शर्मा के उस बयान को दोहराया गया है जिसने 2022 में देशभर में व्यापक विवाद खड़ा कर दिया था और जिसके चलते बीजेपी ने उन्हें पार्टी से निष्कासित किया था. यह वही घटना थी जिसने उदयपुर में टेलर कन्हैया लाल की हत्या को जन्म दिया और अब इस पर बनी फिल्म को लेकर नई बहस छिड़ गई है.

2फिल्म पर रोक लगाने की मांग करते हुए जमीयत उलेमा-ए-हिंद ने एक साथ दिल्ली, बंबई और गुजरात हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया है. यह असामान्य कदम बताता है कि संगठन इस फिल्म को लेकर कितना गंभीर है और उसे आशंका है कि अलग-अलग क्षेत्रों में यह फिल्म व्यापक प्रभाव डाल सकती है. याचिका में सेंसर बोर्ड, केंद्र सरकार और फिल्म के निर्माताओं को प्रतिवादी बनाया गया है.

देश की आंतरिक शांति के लिए खतरा

जमीयत का दावा है कि फिल्म का कंटेंट पैगंबर मोहम्मद और इस्लाम की पवित्र शख्सियतों को गलत तरीके से प्रस्तुत करता है, जिससे देश की आंतरिक शांति खतरे में पड़ सकती है. उनका कहना है कि देवबंद को उग्रवाद का केंद्र बताना और उलेमा को निशाना बनाना समाज के एक बड़े वर्ग को उकसाने जैसा है.

देवबंद और ज्ञानवापी का उठा मुद्दा

फिल्म में न केवल देवबंद को निशाने पर लिया गया है, बल्कि ज्ञानवापी मस्जिद जैसे अदालत में लंबित विवादास्पद मुद्दों को भी उठाया गया है. यह दावा किया गया है कि ये दृश्य भारत के संविधान में प्रदत्त धार्मिक स्वतंत्रता और सामाजिक समानता के मूल अधिकारों का उल्लंघन करते हैं.

सेंसर बोर्ड की भूमिका पर गंभीर सवाल

मौलाना अरशद मदनी ने सवाल उठाया है कि सेंसर बोर्ड ने कैसे इतनी संवेदनशील फिल्म को प्रमाणपत्र दे दिया? उन्होंने आरोप लगाया कि यह संस्था अब कुछ खास शक्तियों के हाथों की कठपुतली बन चुकी है. उनका कहना है कि 2 मिनट 53 सेकंड का ट्रेलर ही यह साबित करने के लिए काफी है कि फिल्म विभाजनकारी विचारधारा से प्रेरित है.

संवैधानिक प्रावधानों के उल्लंघन का दावा

याचिका में यह भी कहा गया है कि फिल्म अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर संविधान की धारा 14, 15 और 21 के तहत नागरिकों को मिले अधिकारों का उल्लंघन करती है. साथ ही सिनेमैटोग्राफ एक्ट की धारा 5B और 1991 के सार्वजनिक प्रदर्शन नियमों की अवहेलना भी की गई है.

राजनीतिक एजेंडा या नफरत फैलाने का माध्यम?

जमीयत का आरोप है कि यह फिल्म महज एक रचनात्मक प्रयास नहीं है, बल्कि इसके पीछे एक सुनियोजित राजनीतिक एजेंडा है. उनके अनुसार, इसे एक धार्मिक समुदाय को निशाना बनाने और बहुसंख्यक वर्ग में उनके प्रति द्वेष पैदा करने के उद्देश्य से तैयार किया गया है.

सवाल जो अब उठ रहे हैं…

जब फिल्म अभी रिलीज भी नहीं हुई, तब केवल ट्रेलर के आधार पर ही इतना बड़ा विरोध और अदालती मोर्चाबंदी क्या यह साबित करता है कि देश में रचनात्मक अभिव्यक्ति का अधिकार खतरे में है? या फिर यह सवाल भी उतना ही जरूरी है- क्या फिल्मों के नाम पर धार्मिक नफरत फैलाने की कोशिशों पर समय रहते रोक जरूरी हो गई है?

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