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Kashmir Terror Attack: नोटबंदी से लेकर Article 370 तक... सब सरकारी झुनझुना, घाटी में खून बहना क्यों नहीं हुआ बंद?

जब सरकार ने कहा था कि “नोटबंदी से आतंकवाद बंद होगा” और “370 हटाने से कश्मीर में अमन आएगा”, तो ये सब झूठ क्यों? कश्मीर में फिर से खून की नदी क्यों बह रही है?

Kashmir Terror Attack: नोटबंदी से लेकर Article 370 तक... सब सरकारी झुनझुना, घाटी में खून बहना क्यों नहीं हुआ बंद?
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सवाल पूछना गुनाह नहीं होता. गुनाह होता है चुप रह जाना. और आज सवाल करने का वक्त है — उन सबसे, जो हर आतंकी हमले के बाद “मजबूत सरकार” का झुनझुना हिला कर आगे बढ़ जाते हैं.

क्योंकि अगर सरकार को खुद पर इतना भरोसा है, तो फिर डर किस बात का? अगर वाकई देश में अमन है, तो घाटी में अब भी लाशें क्यों गिर रही हैं?

1. नोटबंदी से आतंकियों की कमर टूटनी थी —

2016 में सरकार ने नोटबंदी को आतंकवाद के खिलाफ सर्जिकल स्ट्राइक बताया था। दावा था कि पुराने नोटों को बंद करके आतंकियों की फंडिंग को रोका जाएगा। लेकिन जरा सोचिए, क्या आम आदमी की जेब, दुकानदार की कमाई, मजदूर की दिहाड़ी वाकई ठीक हुई? एटीएम की लंबी लाइनें, छोटे व्यापार का बंद होना, और जानें भी गईं। वहीं, आतंकियों की AK-47 बंद नहीं हुई। क्या हम सिर्फ वोटबैंक को चमकाने के लिए इन मुहिमों का शिकार हो गए? सरकार के मुताबिक, "Cashless India" तो बना नहीं, फिर "आतंकवाद मुक्त भारत" का क्या हुआ? क्या वाकई आतंकवाद की फाइनेंशियल नेटवर्क को रोका गया, या यह सब सिर्फ जनता को भ्रमित करने का एक तरीका था?

2. 370 हटाने से जन्नत की ज़मीन पर अमन आना था —

हर न्यूज चैनल ने "370 हट गई, अब कश्मीर अपना है" का नारा लगाया, लेकिन सवाल यह है कि क्या सच में घाटी में शांति आई? जिस मां ने अपने बेटे की वर्दी पर तिरंगा देखा और फिर तिरंगे में लिपटी उसकी लाश देखी, क्या उसकी पीड़ा कम हुई? हर हफ्ते कोई जवान अपनी जान गवा रहा है। कहां है वो अमन, वो विकास? कहां हैं वो निवेशक जो अरबों रुपये कश्मीर में लगाने वाले थे? क्या सिर्फ प्लॉट बेचने का छलावा दिया गया और उस डर को छुपाया गया, जो हर दिन वहां के लोगों के जीवन में महसूस हो रहा है?

3. जम्मू-कश्मीर अब भारत का अभिन्न हिस्सा है —

यह हमेशा से भारत का हिस्सा था, लेकिन क्या आज भी वहां लोग बिना डर के जी सकते हैं? क्या अब भी लोग पहचान पत्र दिखाकर, धर्म पूछकर मारे जाते हैं? क्या वहां मौत की बजाय रोज़गार और स्कूल की घंटी की आवाज़ गूंजती है, या फिर वही डर और आतंक की गूंज सुनाई देती है? क्या यही विकास है? या फिर सिर्फ टीवी की डिबेट में जीतने के लिए एक भ्रम का निर्माण किया गया है?

4. अमित शाह का काफ़िला जब घाटी पहुंचा —

गृह मंत्री का काफ़िला जब घाटी पहुँचा, तो उसमें 66 गाड़ियाँ थीं। लेकिन सवाल यह है कि क्या यह काफ़िला आम नागरिक के लिए सुरक्षा के प्रतीक के रूप में था, या फिर सत्ता की आंतरिक सुरक्षा व्यवस्था की अतिरेकता का उदाहरण? जहां आम आदमी अब भी सुरक्षा के लिए संघर्ष कर रहा है, वहीं गृह मंत्री के लिए इतने काफ़िले का तामझाम क्यों? क्या यह वही घाटी है, जहाँ लोग अपनी जान को लेकर बेफिक्र नहीं हो सकते, वहीं इतने काफ़िले की सुरक्षा व्यवस्था बताती है कि क्या सरकार को खुद पर विश्वास है या फिर यह केवल एक दिखावा है?

5. श्रद्धांजलि सभा में रेड कार्पेट —

जब श्रद्धांजलि सभा में रेड कार्पेट बिछाया गया, तो यह किसी उद्घाटन समारोह जैसा क्यों महसूस हुआ? क्या शहादत की जगह पर यह सत्ता का प्रदर्शन था? क्या यह सच में संवेदनशीलता का प्रतीक है या फिर सत्ता के अहंकार का दर्शक बन चुका है? क्या उन शहीदों के खून से सना यह लाल कालीन केवल इवेंट मैनेजमेंट का हिस्सा बन चुका है? यह वही कालीन है, जो उन परिवारों की पीड़ा की गवाही देता है जिन्होंने अपने बच्चों, पतियों और भाइयों को खो दिया। क्या यह संवेदनशीलता है, या फिर सत्ता की नफरत और दिखावा?

6. जवानों की शहादत अब breaking news नहीं —

वो दिन अब गुजर चुके हैं जब शहीद जवानों की मौत पर पूरा देश शोक में डूबा करता था। अब यह बस एक "routine" बन चुका है— "Encounter in Pulwama" के जैसे एक लाइन, दो फोटो, और फिर मौन। सिस्टम अब जवानों की लाश पर बने हेडलाइन का मूल्य समझता है, उनकी जान का नहीं। अब किसी जवान की शहादत पर TRP नहीं मिलती, क्योंकि यह अब रोज़मर्रा का हिस्सा बन चुका है। क्या हमारी संवेदनाएँ भी अब सिर्फ अवसरों पर एक्टिव होती हैं, जैसे सत्ता के अहंकार के अवसरों पर दिखावा होता है?

7. और सबसे बड़ा सवाल —

हर आतंकी हमले के बाद सरकार का पहला बयान यही होता है: "हमारे पास solid intel था।" फिर क्यों नहीं मरे ये 28 लोग पहलगाम में? अगर जानकारी थी तो फिर क्यों नहीं इसे रोकने की कोशिश की गई? क्या यह जानकारी केवल प्रेस कॉन्फ्रेंस के लिए रखी जाती है? या फिर intel अब सत्ता की रणनीति का हिस्सा बन चुका है, जिसे जब चाहें दिखा दो और जब चाहें छुपा लो? यह है वह सिस्टम, जो अब तक लाशों को सिर्फ 'न्यूज़ हेडलाइन' मानता है। जब तक यह नजरिया नहीं बदलेगा, आतंकवाद का समाधान नहीं मिलेगा।

शहादत श्रद्धा मांगती है, लेकिन श्रद्धांजलि प्रदर्शन नहीं मांगती —

शहादत का असली सम्मान श्रद्धांजलि देने से नहीं, बल्कि उस श्रद्धांजलि को महसूस करने और उसे अपने कर्मों में उतारने से होता है। शहादत संवेदनाओं की मांग करती है, प्रदर्शन नहीं। श्रद्धांजलि सिर्फ फूलों से नहीं, बल्कि सही सुरक्षा, सही सम्मान, और सही न्याय से होती है। जब सरकार आतंकवाद पर सर्जिकल स्ट्राइक कर सकती है, तो क्या प्रेस कॉन्फ्रेंस में सवालों का सामना करने की भी हिम्मत रखती है? या फिर यह सत्ता का सिर्फ दिखावा है, सेवा नहीं?

देशभक्ति क्या है?

देशभक्ति सिर्फ यह नहीं कि जो भी सरकार करे, आँख मूंदकर उसका समर्थन करो। देशभक्ति यह है कि जब हमारे जवान मारे जाएं, तो सरकार से पूछो— "मरना क्यों पड़ा?" यह उस सच्ची देशभक्ति का प्रतीक है, जिसे हर नागरिक को समझने की जरूरत है।

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