चांद पर बनेंगे घर, चलेंगे परमाणु रिएक्टर; तो क्या 2030 से शुरू होने वाला है नया अंतरिक्ष युग?
परमाणु रिएक्टर की तकनीक इंसानों के लिए सौरमंडल में यात्रा करने और वहां बसने की क्षमता को पूरी तरह बदल सकती है. आज नासा के कई रोबोटिक यान इतनी ही ऊर्जा पर चलते हैं, जितनी कुछ बल्ब जलाने में लगती है. इतनी कम ऊर्जा के कारण वैज्ञानिक उपकरणों की संख्या सीमित रहती है.

चंद्रमा पर उतरने का सपना अब हकीकत बन चुका है, लेकिन दुनिया की नज़रें अब उससे आगे बढ़ चुकी हैं. अब नई दौड़ इस बात की है कि चांद पर ऐसा आवासीय परिसर बनाया जाए, जहां इंसान लंबे समय तक रह सके और उसकी हर ज़रूरत पूरी हो सके। इसके लिए सबसे अहम चीज़ है एनर्जी.
इसी दिशा में अप्रैल में चीन ने एक बड़ी घोषणा की कि वह 2035 तक चंद्रमा पर न्युक्लेअर पावर प्लांट्स बनाएगा. इसके बाद नासा के कार्यवाहक प्रशासक सीन डफी ने भी कहा कि अमेरिका 2030 तक चंद्रमा पर अपना परमाणु रिएक्टर शुरू कर देगा. लेकिन सवाल यह है कि आखिर चंद्रमा पर बनने वाला रिएक्टर, धरती पर चल रहे रिएक्टर से कैसे अलग होगा और क्यों ज़रूरी है?.
दो हफ्ते तक रात रहती है
दरअसल, परमाणु रिएक्टर की तकनीक इंसानों के लिए सौरमंडल में यात्रा करने और वहां बसने की क्षमता को पूरी तरह बदल सकती है. आज नासा के कई रोबोटिक यान इतनी ही ऊर्जा पर चलते हैं, जितनी कुछ बल्ब जलाने में लगती है. इतनी कम ऊर्जा के कारण वैज्ञानिक उपकरणों की संख्या सीमित रहती है. अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन (ISS) को एनर्जी सोलर पैनलों से मिलती है, लेकिन चंद्रमा पर यह तरीका कारगर नहीं है, क्योंकि वहां रात करीब दो हफ्ते तक रहती है और तापमान बेहद ठंडा हो जाता है.
70 साल से बिजली बना रहा है परमाणु रिएक्टर
यहीं पर परमाणु रिएक्टर काम आता है. यह न सिर्फ लगातार बिजली देगा, बल्कि तेज़ और कुशल अंतरिक्ष यात्रा के लिए ज़रूरी प्रणोदन प्रणालियों को भी ताकत देगा. पृथ्वी पर परमाणु रिएक्टर 70 साल से भी ज़्यादा समय से बिजली बना रहे हैं. रेडियोएक्टिव एनर्जी सोर्सेज इन स्पेस का इस्तेमाल पहली बार नहीं होगा 1977 में लॉन्च हुए वॉयजर 1 और वॉयजर 2 यान प्लूटोनियम से चलते हैं. प्लूटोनियम के प्राकृतिक क्षय से निकलने वाली ऊष्मा को बिजली में बदला जाता है. शुरू में इन यानों को 470 वॉट बिजली मिलती थी, लेकिन दशकों में यह घटकर लगभग 225 वॉट रह गई. तुलना करें तो वॉयजर का यह सिस्टम धरती के न्यूक्लियर प्लांट के सामने एक बैटरी जैसा है, क्योंकि यूरेनियम जैसे तत्व का विखंडन कई गुना ज़्यादा ऊर्जा पैदा करता है.
चुनौती भरा है वहां माहौल
नासा की वैज्ञानिक भव्या लाल के मुताबिक, सिर्फ एक किलोग्राम यूरेनियम से उतनी ऊर्जा बनाई जा सकती है, जितनी कोयले से भरी एक पूरी मालगाड़ी से बनती है. लेकिन चांद का माहौल चुनौती भरा है वहां न पानी है, न हवा, और तापमान दिन में 250°F (करीब 121°C) से रात में माइनस 400°F (करीब -240°C) तक बदलता रहता है. ऐसे में रिएक्टर का आकार छोटा और वज़न हल्का होना चाहिए ताकि वह रॉकेट में फिट हो सके और इतने कठिन तापमान में भी ठीक से काम कर सके. प्रस्तावित चंद्र रिएक्टर डिज़ाइन में तापमान नियंत्रित करने के लिए बड़े-बड़े रेडिएटर लगाए जाएंगे. लॉकहीड मार्टिन के चंद्र अन्वेषण प्रमुख केविन औ के अनुसार, सबसे बड़ी चुनौती ऐसी सामग्री तैयार करना है जो बेहद अधिक तापमान में भी ऊष्मा को बिजली में बदलने की क्षमता रखे.
मंजूरी मिलने में लग सकते है कई साल
हालांकि कई विशेषज्ञ मानते हैं कि ऐसा रिएक्टर बनाना संभव है, लेकिन 2030 तक इसे तैयार कर लॉन्च कर पाना कुछ हद तक मुश्किल होगा. इसकी वजह सिर्फ तकनीकी नहीं है, बल्कि नासा के पास अभी चंद्रमा की सतह पर ऐसी कोई योजना नहीं है जिसके लिए इतनी जल्दी रिएक्टर की ज़रूरत पड़े. इलिनॉयस यूनिवर्सिटी की प्रोफेसर कैथरीन हफ बताती हैं कि रिएक्टर के डिज़ाइन और निर्माण के साथ-साथ, इसे लॉन्च करने की रेगुलेटर मंज़ूरी लेने में भी कई साल लग सकते हैं.
सामान्य होगा 'चांद पर घर'
इसके अलावा, रिएक्टर को चंद्रमा तक पहुंचाने वाले लैंडर की पेलोड क्षमता कम से कम 15 मीट्रिक टन होनी चाहिए. फिलहाल ऐसा कोई यान तैयार नहीं है, लेकिन स्पेसएक्स का स्टारशिप और ब्लू ओरिजिन का ब्लू मून लैंडर, जो इंसानों को चंद्रमा तक ले जाने के लिए विकसित हो रहे हैं, अपने कार्गो वर्ज़न में यह काम कर सकते हैं. अगर यह सपना पूरा होता है, तो चांद पर इंसानी बस्तियां बनाने का रास्ता और भी आसान हो जाएगा और शायद आने वाले दशकों में 'चांद पर घर' सुनना उतना ही सामान्य लगे, जितना आज 'मंगल पर मिशन' सुनना लगता है.