Sholay के 50 साल : 15 अगस्त को ही क्यों रिलीज हुई थी एक्शन भरी यह फिल्म?
फिल्म की मूल कहानी पुलिस इंस्पेक्टर ठाकुर बलदेव सिंह (संजीव कुमार) और डाकू गब्बर सिंह (अमजद खान) की दुश्मनी पर आधारित है. गब्बर सिंह का खौफ इतना था कि लोग उसके नाम से कांपते थे. वह धर्म या जाति नहीं देखता था जिसे भी दुश्मन मानता, उसे बेरहमी से खत्म कर देता.

यह कहानी हिंदी सिनेमा की सबसे यादगार और चर्चित फिल्मों में से एक "शोले" के 50 साल पूरे होने पर फिर से चर्चा में आई है. 15 अगस्त 1975 को रिलीज हुई इस फिल्म ने समय के साथ अपना असर कम नहीं किया. आधी सदी गुजर जाने के बाद भी इसके डायलॉग, सीन और पर्दे के पीछे की कहानियां लोगों की ज़ुबान पर हैं. निर्देशक रमेश सिप्पी की इस फिल्म के किरदार और कहानी आज भी उतनी ही लोकप्रिय हैं जितनी उस दौर में थी.
लेकिन एक दिलचस्प सवाल हमेशा उठता है इतनी हिंसा और खौफ से भरी फिल्म को स्वतंत्रता दिवस जैसे दिन पर क्यों रिलीज किया गया? आमतौर पर 15 अगस्त या 26 जनवरी पर ऐसी फिल्में रिलीज की जाती हैं जो देशभक्ति, एकता और भाईचारे का मैसेज दें. उदाहरण के तौर पर 'चक दे इंडिया', 'शेरशाह', 'मिशन मंगल', 'गदर' 2 जैसी फिल्में 15 अगस्त पर आईं, जबकि लगान, 'बॉर्डर', 'रंग दे बसंती', 'उरी' जैसी फिल्में गणतंत्र दिवस के आसपास रिलीज हुईं. ऐसे में 'शोले' जैसी मार-धाड़ और डकैतों की क्रूरता वाली कहानी को इस दिन रिलीज करने का औचित्य हमेशा सोचने पर मजबूर करता है.
गब्बर के खौफ में था रामगढ़
फिल्म की मूल कहानी पुलिस इंस्पेक्टर ठाकुर बलदेव सिंह (संजीव कुमार) और डाकू गब्बर सिंह (अमजद खान) की दुश्मनी पर आधारित है. गब्बर सिंह का खौफ इतना था कि लोग उसके नाम से कांपते थे. वह धर्म या जाति नहीं देखता था जिसे भी दुश्मन मानता, उसे बेरहमी से खत्म कर देता. ठाकुर, गब्बर को पकड़ने के लिए दो अपराधियों जय (अमिताभ बच्चन) और वीरू (धर्मेंद्र) को मदद के लिए बुलाते हैं. रामगढ़ गांव में गब्बर का आतंक अंग्रेजी हुकूमत के लगान वसूली जैसा था, डाकू फसल और अनाज लूट लेते थे. एक दिन ठाकुर, जय और वीरू की मदद से गांव वालों को हिम्मत देते हैं कि वे डाकुओं को अनाज देना बंद करें. यही था गांव में आज़ादी का पहला ऐलान. इसके बाद गब्बर बदला लेने आता है, और जय-वीरू उसके खिलाफ डटकर खड़े हो जाते हैं.
असली आजादी तो गब्बर से मिली
कहानी में दिल छू लेने वाली बात यह है कि जय और वीरू जैसे आदतन अपराधी भी गांव में रहकर बदल जाते हैं. वे प्यार, परिवार और नई जिंदगी के बारे में सोचने लगते हैं. गब्बर से लड़ाई में जय शहीद हो जाता है, लेकिन वीरू उसे पस्त कर देता है. ठाकुर, गुस्से में भी कानून का सम्मान करते हुए गब्बर को पुलिस के हवाले कर देते हैं. भले ही फिल्म में सीधे तौर पर स्वतंत्रता दिवस का जिक्र नहीं है, लेकिन रामगढ़ को गब्बर के आतंक से आज़ाद कराना ही असल में आज़ादी की कहानी है एकता, बलिदान और हिम्मत की मिसाल.