बदबूदार जूतों से जन्मी ‘नोबेल जैसी’ इज्ज़त: भारतीय शोधकर्ताओं को मिला Ig Nobel प्राइज
शिव नादर यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं विकास कुमार और सार्थक मित्तल को बदबूदार जूतों पर उनके अनोखे अध्ययन के लिए Ig Nobel Prize से सम्मानित किया गया. उन्होंने जूतों में पनपने वाले बैक्टीरिया को UVC लाइट से नष्ट कर शू-रैक को गंध-मुक्त और सेनेटाइज्ड बनाने का तरीका खोजा. उनके अध्ययन ने दिखाया कि रोजमर्रा की समस्या भी विज्ञान के लिए प्रेरणा बन सकती है.;
हर घर में कहीं-न-कहीं जूतों की अलमारी (शू-रैक) रखी होती है. लेकिन एक समस्या लगभग हर परिवार को परेशान करती है - बदबूदार जूते. बंद पैरों में लंबे समय तक रहने वाले जूतों से उठती दुर्गंध इतनी तीखी होती है कि घर का माहौल तक बिगाड़ देती है. जूता अलमारी हो या हॉस्टल का कॉरिडोर, यह समस्या लगभग हर जगह है.
लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि इस 'बदबू' पर भी वैज्ञानिक रिसर्च हो सकती है? और क्या कभी सोचा है कि यही बदबू किसी को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सम्मान दिला सकती है?
बीबीसी की रिपोर्ट के अनुसार भारत के दो शोधकर्ताओं - विकास कुमार और सार्थक मित्तल - ने यही कर दिखाया. बदबूदार जूतों पर किया गया उनका प्रयोग इतना अनोखा और रोचक था कि उन्हें Ig Nobel Prize से सम्मानित किया गया. यह पुरस्कार असल नोबेल प्राइज की पैरोडी माना जाता है लेकिन इसकी वैज्ञानिक दुनिया में अपनी अलग ही अहमियत है.
इग-नोबेल प्राइज क्या है?
इग-नोबेल प्राइज (Ig Nobel Prize) एक वैश्विक पुरस्कार है जिसे अमेरिका में हर साल दिया जाता है. यह उन वैज्ञानिक प्रयोगों को दिया जाता है जो पहली नज़र में मज़ाकिया लगते हैं, लेकिन भीतर गहराई से देखें तो बेहद रोचक और उपयोगी साबित हो सकते हैं. इसका नारा है: “पहले हंसाइए, फिर सोचने पर मजबूर कीजिए.” इस साल, 2025 में, भारत के इन दो वैज्ञानिकों को 'स्मेली शू स्टडी' (बदबूदार जूतों पर शोध) के लिए यह सम्मान मिला.
कहानी की शुरुआत: हॉस्टल से उठी ‘बदबू’
यह किस्सा शुरू हुआ दिल्ली के पास स्थित शिव नादर यूनिवर्सिटी से. यहां डिजाइन विभाग में असिस्टेंट प्रोफेसर विकाश कुमार और उनके पूर्व छात्र सार्थक मित्तल साथ आए. मित्तल ने अपने हॉस्टल जीवन का अनुभव साझा किया - कॉरिडोर में लाइन से रखे जूते, जो इतनी बदबू मारते थे कि कमरे में रहना मुश्किल हो जाता. शुरू में लगा कि समस्या जगह (स्पेस) की है, लेकिन जांच-पड़ताल के बाद समझ आया कि असली दोषी जूतों से निकलने वाली तीखी दुर्गंध थी.
यहीं से जन्म लिया एक दिलचस्प सवाल ने कि क्या बदबूदार जूतों को लेकर शू-रैक को फिर से डिज़ाइन किया जा सकता है?
सर्वे और रिसर्च
दोनों ने विश्वविद्यालय के 149 छात्रों पर एक सर्वे किया, जिनमें 80% पुरुष थे. आधे से अधिक छात्रों ने माना कि वे अपने या दूसरों के जूतों की बदबू से शर्मिंदगी महसूस कर चुके हैं. लगभग सभी छात्रों ने कहा कि घर में शू-रैक मौजूद है लेकिन वह दुर्गंध रोक नहीं पाता. मजेदार बात यह रही कि बहुत कम छात्रों ने ऐसे किसी डिओडराइजिंग प्रोडक्ट के बारे में सुना था. ज्यादातर छात्र घरेलू नुस्खे अपनाते थे - चाय की पत्तियां डालना, बेकिंग सोडा छिड़कना या डियो स्प्रे करना. लेकिन असर मामूली ही मिलता.
असली अपराधी: एक बैक्टीरिया
वैज्ञानिक शोध ने साबित किया कि जूतों से आने वाली दुर्गंध का कारण है Kytococcus sedentarius नामक बैक्टीरिया. यह बैक्टीरिया पसीने और नमी से भरे जूतों में तेजी से पनपता है और दुर्गंध छोड़ता है. कुमार और मित्तल ने इसका वैज्ञानिक समाधान खोजा - UVC Light Treatment, यानी, जूतों को ऐसे शू-रैक में रखना जो अल्ट्रावॉयलेट C (UVC) किरणों से उन्हें सेनेटाइज करे.
एक्सपेरिमेंट
शोधकर्ताओं ने यह प्रयोग यूनिवर्सिटी के एथलीट्स के जूतों पर किया, जो स्वाभाविक रूप से सबसे ज्यादा बदबूदार माने जाते हैं. जूतों के टो (toe) हिस्से पर UVC लाइट फोकस की गई क्योंकि बैक्टीरिया वहीं सबसे ज्यादा होता है. 2–3 मिनट की रोशनी ने बदबू लगभग पूरी तरह खत्म कर दी. शुरुआती गंध का विवरण “सड़े चीज़ जैसी तीखी” बताया गया. 2 मिनट बाद यह “हल्की जली रबर जैसी” रह गई. 4 मिनट में गंध पूरी तरह गायब हो गई. 6 मिनट तक जूते ठंडे और गंध-मुक्त रहे. लेकिन 10–15 मिनट तक लाइट देने से रबर जलने लगा और जूते खराब होने लगे. यानी, टाइमिंग ही सब कुछ थी.
डिजाइन का नतीजा
दोनों वैज्ञानिकों ने ऐसा शू-रैक डिजाइन किया जिसमें UVC ट्यूबलाइट लगी हो. यह न केवल जूतों को व्यवस्थित रखेगा बल्कि उन्हें गंध-मुक्त और जीवाणु-रहित भी बनाएगा.
इग-नोबेल से मिला सम्मान
यह शोध 2022 में किया गया था लेकिन ज्यादा चर्चा में नहीं आया. अचानक 2025 में Ig Nobel Prize Committee ने उनसे संपर्क किया और कहा कि उन्हें इस साल के विजेताओं में शामिल किया गया है. विकास कुमार ने हंसते हुए कहा, "हमें इस पुरस्कार के बारे में पहले जानकारी भी नहीं थी. यह जानकर हंसी भी आई और गर्व भी हुआ कि हमारी रिसर्च को इतना खास माना गया."
इस साल के अन्य ‘फन साइंस’ विजेता
- जापान में वैज्ञानिकों ने गायों को रंगकर मक्खियों से बचाने का तरीका निकाला.
- टोगो के छिपकली वैज्ञानिकों ने बताया कि उन्हें चार-चीज़ पिज्ज़ा बेहद पसंद है.
- अमेरिकी डॉक्टरों ने साबित किया कि लहसुन खाने वाली मां का दूध बच्चों को ज्यादा स्वादिष्ट लगता है.
- नीदरलैंड्स के रिसर्चरों ने बताया कि शराब पीने से विदेशी भाषा बोलने की क्षमता थोड़ी बेहतर हो जाती है.
- एक इतिहासकार ने अपने नाखूनों की बढ़त 35 साल तक दर्ज की.
इन सबके बीच भारतीय शोधकर्ताओं की “बदबूदार जूते” वाली रिसर्च ने दुनिया का ध्यान खींचा.
असर और भविष्य
इस पुरस्कार ने शोधकर्ताओं पर एक नई जिम्मेदारी भी डाल दी है. विकास कुमार कहते हैं, "अब हमें और ऐसे रिसर्च करने होंगे जिन पर आमतौर पर लोग ध्यान नहीं देते. छोटे सवाल ही बड़े विज्ञान को जन्म देते हैं."