यौन उत्पीड़न साबित करने के लिए शारीरिक चोटें ज़रूरी नहीं; रेप मामलों पर SC की बड़ी टिप्पणी

सुप्रीम कोर्ट में रेप मामले पर सुनवाई हुई. अदालत ने सुनवाई के दौरान कहा कि ऐसे मामलों में पीड़िता के चोट लगे, या फिर वो चिल्लाए ये जरूरी नहीं है. उन्होंने कहा कि ऐसे कई मिथक हैं. जिनमें इस बात का जिक्र है. लेकिन ये जरूरी नहीं कि हर मामलों में ऐसा ही कुछ हो.;

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Edited By :  सार्थक अरोड़ा
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सुप्रीम कोर्ट ने रेप मामलों में सुनवाई करते हुए अहम फैसला सुनाया है. अदालत ने कहा कि रेप मामलों में चोट का होना आवश्यक नहीं है. इस बात को एक बार फिर से अदालत ने दोहराते हुए कहा कि ऐसे कई मिथक हैं कि रेप पीड़ित मामलों में ऐसा मामना है कि पिड़िता के चोट लगना आवश्यक है. ऐसा मानना है कि उत्पीड़न के बाद चोटें जरूर आती है.

इसी पर सुनवाई के दौरान उन्होंने कहा कि ऐसा जरूरी नहीं. अदालत ने कहा कि ये भी जरूरी नहीं कि उत्पीड़न के दौरान पीड़िता शोर मचाए या फिर चिल्लाए. कोर्ट ने कहा कि हर मामलों में पीड़ित अलग-अलग प्रतिक्रिया करते हैं. सभी एक समान हो ऐसी उम्मीद करना ये गलत है. सही नहीं है.

हर पीड़ित अलग तरह से देता प्रतिक्रिया

अदालत ने कहा कि कई लोग ऐसी दर्दनाक घटनाओं में अलग-अलग प्रतिक्रियाएं देते हैं. इसपर उदाहरण देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि किसी व्यक्ति के माता-पिता की मृत्यु के कारण वे व्यक्ति पब्लिकली रो सकता है. लेकिन कुछ लोग इस स्थिति में कोई इमोशन साझा नहीं करते हैं. ऐसे ही बलात्कार मामलों में भी होता है. किसी पुरुष द्वारा उत्पीड़न किए जाने के बाद अपने पर्सनल इमोशन को बाहर निकालने का तरीका अलग हो सकता है. इसका कोई भी तरीका सही या फिर गलत नहीं है.

इन धाराओं के तहत दर्ज था मामला

सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस हृषिकेश रॉय और जस्टिस एस.वी.एन भट्टी की पीठ धारा 363 और 366 ए के तहत आरोपी की सजा के खिलाफ वाली याचिका पर सुनवाई कर रही थी. आरोप था कि व्यक्ति ने शादी का झूठा झांसा देकर लड़की का अपहरण किया इससे पहले इस मामले की सुनवाई उत्तराखंड हाई कोर्ट में हुई थी जहां अदालत ने आरोपी को IPC की धारा 363 और 366 A के तहत दोषी माना था. लेकिन फैसले को सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई हुई जिस पर अदालत ने कहा कि धारा 366-ए नहीं बनती है.

अदालत ने कहा कि पीड़िता को आरोपी जबरन अपने साथ नहीं लेकर के गया था. इसलिए धारा 366-ए नहीं बनती है. अपहरण मामले को लेकर अदालत ने कहा कि पीड़ित के सबूतों का समर्थन नहीं करते हैं. इसलिए इन सबूतों के आधार पर अपीलकर्ता की सजा बरकरार रखना उचित नहीं होगा.

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